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Tribals women carrying firewood in a village in Madhya Pradesh Photograph: (Ground Report)
मध्य प्रदेश सरकार राज्य के 40 प्रतिशत यानी 37 लाख हेक्टेयर संरक्षित (प्रोटेक्टेड) या बिगड़े वन ( डिग्रेडेड फाॅरेस्ट) को निजी हाथों में सौंपने की तैयारी कर रही है। इसके लिए वन विभाग ने ‘कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी ( सीएसआर), कॉर्पोरेट एनवायरनमेंट रिस्पांसिबिलिटी (सीईआर) और अशासकीय निधियों के उपयोग से वनों की पुनर्स्थापना’ नामक योजना बनाई है। लेकिन इस योजना की खबरें सामने आते ही आदिवासी संगठनों ने विरोध शुरू कर दिया है। संगठनों के विरोध के बाद फिलहाल वन विभाग ने इसे होल्ड पर डाल दिया है।
वनों का निजीकरण और आदिवासी संगठनों की नाराजगी
वनों के निजीकरण की इस योजना को साल 2021 में राजपत्र में प्रकाशित किया गया था। वन विभाग ने इस योजना को ही अपग्रेड करने के उद्देश्य से अपनी वेबसाइट पर एक संशोधित ड्राफ्ट प्रस्तुत किया है। विभाग ने संशोधित योजना को राज्य में लागू करने का समय मार्च 2025 तक निर्धारित किया है।
संशोधित योजना का ड्राफ्ट आते ही आदिवासी संगठनों और कार्यकर्ताओं ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया है। इसी सिलसिले में आदिवासी संगठनों के एक दल ने मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव से मुलाकात भी की है। इसके बाद 28 फरवरी को मुख्यमंत्री ने इस योजना को लागू करने से पहले इसके सभी स्टेकहोल्डरों से मंथन करने के निर्देश दिए हैं।
मुख्यमंत्री के इस निर्देश के बाद से ही वन विभाग ने इस संशोधित योजना के ड्राफ्ट को होल्ड पर रखा हुआ है। विभाग द्वारा ड्राफ्ट पर मिली प्रतिक्रियाओं का निराकरण करने की बात कही जा रही है और सभी स्टेकहोल्डर्स से मिलकर सभी पहुलओं पर विचार–विमर्श किया जा रहा है।
आदिवासी संगठनों और कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह नीति वनवासी समुदायों के अधिकारों का हनन करती है। इनका मानना है कि यह नीति आदिवासी समुदायों की आजीविका पर गहरा और बहुआयामी प्रभाव डालेगी।
वहीं पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) माॅडल पर आधारित यह नीति वनों के पुनर्स्थापन और कार्बन क्रेडिट जैसे पर्यावरणीय लक्ष्यों को हासिल करने का दावा करती है। साथ ही यह नीति आदिवासी समुदायों की आजीविका में सुधार करने का भी दावा करती है। लेकिन आदिवासी संगठनों का मानना है कि इस नीति से आदिवासी समुदायों के जीवन और आजीविका पर कई नकारात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं।
वनों पर निर्भरता और आजीविका
मध्य प्रदेश में क्षेत्रफल के हिसाब से भारत का सबसे बड़ा जंगल फैला हुआ हैं। राज्य में सबसे अधिक अनुसूचित जनजातीय आबादी निवास करती हैं। राज्य के कुल 52,739 गांवों में से 22,600 गांव या तो जंगल में बसे हैं या फिर जंगलों की सीमाओं से सटे हुए हैं। प्रदेश का बड़ा हिस्सा आरक्षित वन है और दूसरा बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय उद्यान और अभयारण्य आदि के रूप में जाना जाता है। बाकी बचते हैं वे वन जिन्हें बिगड़े वन या संरक्षित वन कहा जाता है। यहां के वन क्षेत्रों में विविध आदिवासी समुदाय रहते हैं, जिनमें गोंड, बैगा और कोरकू प्रमुख हैं। फिलहाल इन वनवासी समुदायों के अधिकारों का दस्तावेजीकरण किया जा रहा है।
बुरहानपुर जिले के सिवाल गांव में रहने वाले 32 वर्षीय अंतराम अवासे आदिवासी समुदाय से आते हैं। वे गांव की वन अधिकार समिति के सचिव हैं और पिछले कई सालों से अपने समुदाय के अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।
पिछले वर्ष जागृत आदिवासी दलित संगठन (JADS) के साथ मिलकर गांव वालों ने पेड़ों की कटाई का विरोध किया था। इस विरोध के बाद प्रशासन ने कई कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया। इस दौरान अंतराम और उनके जैसे कई कार्यकर्ता गिरफ्तार और जिला बदर भी किये गए। हालांकि न्यायालय ने प्रशासन द्वारा अंतराम पर की गई जिला बदर की कार्रवाई को खारिज कर दिया है।
अंतराम की कहानी सिवाल के कई परिवारों की कहानी है। यहां के भील और गोंड समुदाय वनों से महुआ, तेंदुपत्ता और औषधीय पौधे इकट्ठा करते हैं। इन्हें बेचकर वे हर साल करीब 30 से 40 हजार रू. की कमाई करते हैं।
आदिवासी सहकारी विपणन विकास फेडरेशन ऑफ इंडिया (ट्राइफेड) के अनुसार मप्र, ओडिशा और आंध्रप्रदेश में करीब 75 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासियों की आजीविका वनोपज पर निर्भर हैं। वन उनके सांस्कृतिक और आर्थिक जीवन का आधार हैं और उनकी पारंपरिक प्रथाओं में वन प्रबंधन और संरक्षण की मजबूत भूमिका निभाते हैं। उन्हें डर हैं कि अगर निजी कंपनियां इन जंगलों का प्रबंधन संभालती हैं तो उनकी आजीविका खतरे में पड़ जाएगी।
अंतराम इस योजना पर सवाल खड़ा करते हुए कहते हैं,
अगर जंगल हमसे छीन लिया गया तो हम कहां जाएंगे। हमारा जीवन तो इन्हीं पेड़ों और जमीन के साथ जुड़ा है।
हालांकि वन अधिकार अधिनियम 2006 में इन समुदायों को अपने जंगलों पर अधिकार मिला हुआ है। लेकिन फिर भी बुरहानपुर में 10,000 से अधिक व्यक्तिगत वन अधिकार दावे अभी लंबित हैं। अंतराम को डर है कि निजीकरण की आड़ में उनकी जमीने बड़ी कंपनियों को दे दी जाएगी।
हालांकि, एफआरए और पेसा के क्रियान्वयन के लिए गठित कमेटी के सदस्य और कार्यकर्ता शरद लेले कहते हैं,
वन अधिकार अधिनियम, 2006 ( FRA) और पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम,1996 (PESA) जैसे कानूनों ने आदिवासियों को अपने पारंपरिक वन अधिकारों को पुन: हासिल करने का अवसर प्रदान किया है, लेकिन इन अधिकारों का पूर्ण कार्यान्वयन अभी भी चुनौतीपूर्ण बना हुआ है।
विस्थापन का भय
अंतराम जैसी ही कहानी डिंडोरी जिले के एक छोटे से गांव बिछिया के 42 वर्षीय श्यामलाल गाेंड की भी है। जंगलों के निजीकरण की खबर श्यामलाल को उनके गांव के सरपंच के जरिये मिली। उन्हें बताया गया कि ‘इससे जंगल फिर से हरा-भरा होगा और गांव वालों को रोजगार मिलेगा।’
इस खबर की चर्चा होने पर श्यामलाल सवाल खड़ा करते हैं कि,
अगर जंगल किसी कंपनी का हो जाएगा, तो हमारा क्या होगा? क्या हमें वहां जाने की इजाजत भी मिलेगी?
जंगल श्यामलाल के लिए महज़ आर्थिक संसाधन नहीं, बल्कि उनकी सांस्कृतिक जड़ों का हिस्सा भी है। श्यामलाल गोंड समुदाय से आते हैं। गोंड समुदाय के लिए जंगल की मान्यता उनकी मां की तरह है। वे हर साल जंगल में ''बड़ादेव'' की पूजा करते हैं, इसके लिए वे खास पेड़ों के पास अनुष्ठान करते हैं। श्यामलाल को चिंता है कि अगर निजी कंपनियों को जंगल सौंप दिया गया तो उनकी ये परंपराएं खत्म हो जाएंगी।
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श्यामलाल का मानना है कि सरकार की योजनाएं उनके बच्चों को जंगलों से दूर करने की है। उन्हें डर है कि अगर ऐसा हुआ तो उनकी कहानियां, उनके गीत, सब खत्म हो जाएंगे। वे इस योजना को आदिवासी समुदाय को उनकी जमीन से बेदखल करने के एक प्रयास के तौर पर देखते हैं।
इस विषय पर आदिवासी संगठनाें और कार्यकर्ताओं का आरोप है कि,
बाघों और अन्य विकास परियोजनाओं के माध्यम से पहले ही वनवासियों को उनके पुश्तैनी घरों से अवैध रूप से बेदखल किया जा रहा है। अब वन विभाग ने इस नीति के माध्यम से उनकी आजीविका और अस्तित्व को ही खत्म करने की तैयारी कर रही है।
उदाहरण के तौर पर अब तक प्रदेश में सिर्फ टाइगर प्रोजेक्ट के नाम पर ही नौ टाइगर रिजर्व (बांधवगढ़, कान्हा, पेंच, संजय-दूबरी, सतपुड़ा, पन्ना, वीरांगना दुर्गावती, रातापानी और माधव टाइगर रिजर्व) में से 165 गांवों के 18626 परिवारों को नोटिफाई किया जा चुका है। यहां के 109 गांवों के 9058 परिवारों को विस्थापित किया जा चुका है। अभी भी 56 गांवों के 9568 परिवारों को विस्थापित किया जाना शेष है। ऐसी स्थिति में आदिवासी समुदाय वनों के निजीकरण को विस्थापन के संभावित खतरे की तरह देख रहे हैं।
कानून और नीति
जागृत आदिवासी दलित संगठन (JADS) की अध्यक्ष माधुरी बेन निजीकरण की इस योजना को वन अधिकार अधिनियम (FRA) और पेसा कानून का उल्लंघन मानती हैं। बकौल माधुरी इस नीति के बिंदु 3.2 और 8.2 के तहत निजी कंपनियों को 60 साल तक जंगल पर नियंत्रण दिया जाएगा। इस निर्णय पर ग्राम सभा की कोई भी भूमिका नहीं होगी। माधुरी आगे कहती हैं,
यह वन अधिकार कानून का सीधा उल्लंघन है, क्योंकि एफआरए की धारा 3 (1)(झ) ग्राम सभा को वन संसाधनों के प्रबंधन का अधिकार देती है। यह नीति ग्राम सभा के अधिकार को छीनकर कंपनियों को सौंप रही हैं।
इस नीति में इन अधिकारों को नजरअंदाज कर दिया हैं। यहां तक कि वनोपज पर पहला अधिकार भी कंपनियों को दिया जा रहा है, जो धारा 3(1)(ग) का उल्लंघन है। पेसा कानून की धारा 4 (घ) और एफआरए की धारा 5 के तहत ग्राम सभा को जंगल के संरक्षण और प्रबंधन का पूरा अधिकार है। लेकिन नीति की धारा 2.2 और 4.1 में ग्राम सभा से सिर्फ ''परामर्श'' लेने की बात कही गई है, जबकि इस पर अंतिम फैसला वन विभाग और कंपनियां ही करेंगी। माधुरी ने आगे जोड़ा।
आदिवासी कार्यकर्ता और वरिष्ठ एडवोकेट अनिल गर्ग भी न सिर्फ इस नीति को कानूनी रूप से अवैध मानते हैं बल्कि सामाजिक और पर्यावरणीय दृष्टिकोण से भी हानिकारक मानते हैं। इस नीति पर सवाल उठाते हुए गर्ग आगे कहते हैं,
जो जमीनें सरकार की संपत्ति नहीं है, उन जमीनों को नीलाम करने की योजना कैसे बनाई जा सकती हैं। यह आदिवासियों के जल-जंगल-जमीन पर सामूहिक अधिकारों को छीनने का एक नया हथियार है, जिसके खिलाफ कानूनी और सामुदायिक स्तर पर लड़ाई जरूरी है।
अनिल गर्ग के तर्क की पुष्टि जबलपुर हाईकोर्ट के मार्च 2025 के आदेश से भी होती है। इस फैसले में हाईकोर्ट ने साफ कहा कि सरकार के पास इन जमीनों पर संरक्षण का अधिकार हैं।
वहीं धार जिले की मनावर सीट से विधायक और जयस के राष्ट्रीय संयोजक हीरालाल अलावा इस योजना को मौलिक अधिकारों के हनन के रूप में देखते हैं। अलावा का मानना है कि इस नीति के माध्यम से कंपनियां वन उपज पर अधिकार जमाएंगी। इसकी वजह से स्थानीय लोगों के अधिकार का हनन होगा और जंगलों पर निर्भर वनवासी समुदायों की आजीविका प्रभावित होगी।
इस नीति के विरोध को लेकर उनकी योजनाओं के प्रश्न पर अलावा कहते हैं कि,
इस नीति का विरोध सड़क से लेकर विधानसभा के पटल तक किया जा रहा है। इस नीति के खिलाफ जल्द ही कोर्ट का दरवाजा भी खटखटाया जाएगा। क्योंकि यह नीति भारतीय संविधान में मिले जीवन जीने के मौलिक अधिकारों का भी हनन करती हैं।
दूसरी ओर क्रिमिनल जस्टिस एंड पुलिस एकाउंटेबिलिटी प्रोजेक्ट (सीपीए) की रिसर्च हेड और वकील मृणालिनी रविंद्रनाथ इस नीति की वजह से अन्य संभावित समस्याओं की ओर भी इशारा करती हैं। मृणालिनी इस नीति को आदिवासी समुदायों की हर बुनियादी जरूरत ( जैसे जलाऊ-घर बांधने की लकड़ी, चारा, हल-बकड़ की लकड़ी, लघु वन उपज आदि) के लिए कंपनी की मर्जी पर मोहताज करने की साजिश की तरह देखती हैं। मृणालिनी आगे कहती हैं,
राज्य में पहले ही वनवासी समुदायों पर अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए वन अपराध धारा में अनगिनत झूठे केस दर्ज किए जा रहे हैं। इन फर्जी केसों की वजह से वे पहले ही आर्थिक परेशानियों का सामना कर रहे हैं। इस नीति से उन पर वन अपराध की धाराओं में दर्ज होने वाले केसों की संख्या में इजाफा होगा।
रोजगार का वादा सच या भम्र ?
आदिवासी संगठनों और कार्यकर्ताओं के आरोप के जवाब में वन विभाग के प्रधान मुख्य वन संरक्षक (विकास), सुदीप सिंह कहते हैं कि इस योजना के सिर्फ नकारात्मक पहलुओं पर ध्यान दिया जा रहा है। इस योजना के कई दीर्घकालिक लाभ होंगे। सिंह आगे समझाते हुए कहते हैं,
वनों के पुनर्स्थापन से दीर्घकालिक रूप से अधिक संसाधन उपलब्ध होंगे। इससे आदिवासी समुदायों की आजीविका में इजाफा होगा। वहीं निजी निवेश से रोजगार के अवसर भी उपलब्ध होंगे।
हालांकि अंतराम अवासे और श्यामलाल गोंड जैसे आदिवासियों और कार्यकर्ताओं को यह वादा खोखला लगता है। उनका मानना हैं कि कंपनियां अपने लोगों लाएंगी और स्थानीय लोगों को सिर्फ छोटे-मोटे काम मिलेंगे। लेकिन जल, जंगल-जमीन हमारी और मालिक कोई ओर होगा।
अंतराम अवासे तंज कसते हुए कहते हैं,
गांव के कई युवा पहले ही शहरों में मजदूरी के लिए जा चुके हैं और इस नीति से यह सिलसिला और भी बढ़ेगा।
अंतराम और श्यामलाल की कहानी राज्य के उन लाखों आदिवासियों की चिंता की वजह है, जो इस नीति से सीधे प्रभावित होने वाले हैं। इस नीति को आदिवासी समुदाय और संगठन उनकी आजीविका, संस्कृति और अधिकारों पर संकट के तौर पर देख रहे हैं। हालांकि नीति के सकारात्मक पहलुओं पर नजर डालें तो इस नीति के माध्यम से सरकार बिगड़े वनों को सुधार कर पर्यावरण प्रभाव और आर्थिक बोझ को कम करना चाहती है। साथ ही आदिवासी की आजीविका भी सुधारने और वनोपज में 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी की बात करती है, लेकिन यह सभी दीर्घकालिक परिणाम योजना के क्रियान्वन पर निर्भर हैं। इससे उलट आदिवासी समुदाय पलायन व विस्थापन जैसी स्थितियां अपने ठीक सामने देख रहे हैं।
इस लेख का पहला हिस्सा आप नीचे दी हुई लिंक पर पढ़ सकते हैं-
"जंगल की ज़मीन सरकार की संपत्ति नहीं" किस अधिकार से निजी कंपनियों को दी जाएगी लीज़?
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