सौन चिरैया के परिवार से, सिर पर खूबसूरत कलंगी लिए, मेढ़क जैसी आवाज निकालते हुए, लगातार सैंकड़ों बार 2 से 3 मीटर तक उछलने वाले खरमोर पक्षी, मध्य प्रदेश, राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र में हर साल प्रजनन के लिए आते हैं। इस पक्षी को मालवा में भाट कुकड़ा, हिंदी में खरमोर और अंग्रेजी में लैसर फ्लोरिकन (Sypheotides indicus) बोला जाता है।
Lesser Florican (Sypheotides indicus)🐦🦜🕊️🎵❤️ pic.twitter.com/tSnD7xDXhZ
— World birds (@worldbirds32) February 26, 2021
खरमोर भारत की बस्टर्ड पक्षी प्रजाति में सबसे छोटा पक्षी है। बस्टर्ड प्रजाति (ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लैसर फ्लोरिकन और बंगाल फ्लोरिकन) घास के मैदानों के संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण और किसानों के दोस्त माने जाते हैं। क्योेंकि यह पक्षी घांस के मैदानों में पाए जाने वाले कीट और मूंग व उड़द जैसी फसलों के फूलों में लगने वाले कीटों को खाते हैं। लेकिन इसकी घटती आबादी के कारण इंटरनेशनल यूनियन फाॅर कंजर्वेशन ऑफ नेचर IUCN की रेड लिस्ट में इस पक्षी को गंभीर रूप से संकटग्रस्त श्रेणी में रखा गया है। वहीं साल दर साल कम होती संख्या की वजह से बर्डलाइफ इंटरनेशनल द्वारा साल 2021 में किए गए आंकलन के आधार पर यह गंभीर रूप से लुप्तप्राय की श्रेणी में शामिल किया जा चुका है। बाॅम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (बीएनएचएस) के साल 2020 के शोध के मुताबिक देशभर में केवल 340 नर खरमोर बचे हैं, जबकि दुनियाभर में केवल 1000 खरमोर बचे हैं।
बर्डलाइफ के डाॅ. निगेल काॅलर, जो इंटरनेशनल यूनियन फाॅर नेचर के बस्टर्ड स्पेशलिस्ट ग्रुप के सह-अध्यक्ष भी हैं, कहते हैं कि,
"खरमोर अपने परिवार के दूसरे दो सदस्यों से ज्यादा खतरे में हैं, और इसे बचाने के लिए हमारे पास कुछ ही साल हैं।"
मध्य प्रदेश के नीमच, धार, झाबुआ, रतलाम जिलों में पाए जाने वाले घांस के मैदान खरमोर का पंसदीदा क्षेत्र हैं, जबकि राजस्थान के शोकेलिया-केकरी क्षेत्र और महाराष्ट्र के अकोला-वाशिम क्षेत्र इस पक्षी के प्राकृतिक रहवासों में शामिल हैं।
खरमोर प्रजनन यानि अपनी आबादी बढ़ाने के लिए मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान में हर साल जुलाई में पहुंचते हैं और तीन से चार माह के लिए यहीं पर डेरा डालते हैं।
क्यों विलुप्त हो रहे हैं खरमोर?
लगातार कम होती खरमोर की संख्या के पीछे विशेषज्ञों द्वारा कई कारण बताए जाते हैं। लेकिन मध्य प्रदेश में वन विभाग के अफसरों की दोहरी नीतियों की वजह से ही राज्य में इस पक्षी की संख्या साल दर साल कम होती चली गई और खरमोर के दिखाई देने का आंकड़ा एक-दो संख्या तक ही सीमित हो गया।
यही वजह हैं कि मध्य प्रदेश में खरमोर के संरक्षण के लिए दो-दो अभ्यारण (सैलाना खरमोर और सरदारपुर अभ्यारण) होने के बाद भी संरक्षण के लिए किए जा रहे तमाम प्रयासों में सफलता नहीं मिल पा रही है।
वन विभाग से मिले ताजा आंकड़ों के मुताबिक मध्यप्रदेश के सैलाना खरमोर और सरदारपुर अभ्यारण में साल 2019 में 11 खरमोर दिखाई दिए थे, इसके बाद यह संख्या और कम होती गई और पिछले दो साल से यह शून्य हो गई है। जबकि साल 2015 में यह संख्या 48 थी, साल 2016, 2017, 2018 में क्रमशः 39, 19 और 27 थी।
भारतीय वन्यजीव संस्थान की साल 2017 में खरमोर पक्षी पर बनाई गई स्टेटस रिपोर्ट के सदस्य और इस क्षेत्र में लंबे समय काम कर रहे पर्यावरणविद् अजय गाडिकर कहते हैं कि,
"वैसे तो खरमोर की कम होती संख्या के पीछे कई कारण हैं, जिसमें उनके प्राकृतिक रहवास यानि ग्रास लैंड का नष्ट होना, खेती में आए बदलाव और कीटनाशकों प्रयोग आदि शामिल हैं। इसके साथ ही मप्र में बढ़ती पवन चक्कियां, मानव जनित दबाव और स्थानीय किसानों का आक्रामक रवैया भी इसके लिए ज़िम्मेदार है।"
भारतीय वन्यजीव संस्थान की रिपोर्ट और साल 2018-2019 में पर्यावरण मंत्रालय द्वारा संरक्षित क्षेत्रों के प्रबंधन पर जारी की गई रिपोर्ट में भी इन्हीं कारणों का ज़िक्र किया गया है।
गाडिकर वन विभाग की कार्य शैली पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि "सैलाना को साल 1938 में अभ्यारण के रुप में नोटिफाई किया गया था तब स्थानीय लोगों की ज़मीन भी इस अभ्यारण क्षेत्र में आई और इसका अधिग्रहण किया जाना चाहिए था, लेकिन नहीं किया गया। इससे स्थानीय किसानों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है, इस वजह से स्थानीय किसानों के मन में खरमोर के प्रति हीन भावना पैदा हुई है।"
सैलाना बर्ड सेंचुरी के पास बढ़ती गई पवन चक्कियां
सैलाना अभ्यारण और इसके आसपास के क्षेत्र ईको सेंसिटिव ज़ोन में आते हैं, और अभ्यारण की सीमा से 10 किलोमीटर के क्षेत्र में औद्योगिक गतिविधियों के संचालन और पवन चक्कियों की स्थापना नहीं की जा सकती है। इस नियम का हवाला देते हुए मप्र सरकार ने साल 2017 में एक पवन ऊर्जा परियोजना को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था।
इसके बाद भी सैलाना के ईको सेंसिटिव जोन के अंदर करीब 50 पवन चक्कियां संचालित हो रही हैं। वहीं केंद्र सरकार ने साल 2020 के नोटिफिकेशन में भी माना था कि 15 पवन ऊर्जा संयंत्र ईको सेंसिटिव जोन में संचालित हैं।
अजय गाडिकर, सैलाना अभ्यारण के आसपास ईको सेंसिटिव जोन में पवन चक्कियों की मौजूदगी से खरमोर पक्षी पर पड़ने वाले प्रभाव के बारे में कहते हैं कि,
ठयह ऊंची-ऊंची पवन चक्कियां पिछले 3-4 सालों में अभ्यारण के तीनों भागों की सीमा में ईको सेंसिटिव जोन में स्थापित की गई हैं। इन पवन चक्कियों से आने वाली आवाज से खरमोर पक्षी के डरने और उसके विस्थापन का भी खतरा बढ़ जाता है।"
वहीं सैलाना अभ्यारण क्षेत्र में भारतमाला परियोजना के अंतर्गत बने राष्ट्रीय राजमार्ग के लिए बनाई बायोडायवर्सिटी रिपोर्ट में भी सामने आया है कि आवाज से खरमोर पक्षी के डरने के साथ ही उसके विस्थापन की बहुत अधिक संभावना बन जाती है।
इसी वजह से सैलाना और सरदारपुर अभ्यारण को साउंड प्रूफ बनाए रखने के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग के अधिसूचित क्षेत्र में साउंड प्रूफ दीवार बनाई गई है।
जबकि राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की बैठक में अभ्यारण की जमीन के डिनोटिफिकेशन के मामले में गठित की गई, स्थाई समिति ने रिपोर्ट पेश की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि स्थानीय वन अधिकारियों और कर्मचारियों का मानना है कि ईको सेंसिटिव जोन में बिना किसी आधिकारिक अनुमति के संचालित पवन ऊर्जा संयंत्र से खरमोर अपने प्रजनन काल में इस क्षेत्र में आने से गुरेज कर रहे हैं। संरक्षित क्षेत्र और ईको सेंसिटिव जोन की सुरक्षा के लिए एक व्यवस्था बनाई जानी चाहिए। इन संयंत्रों से बनने वाली बिजली को यहां से 30 किलोमीटर दूर नगरा गांव में डिस्टीब्यूशन पाॅइंट तक बिजली के तारों के माध्यम से भेजा जा रहा है। इस हाई टेंशन लाइन की ऊंचाई भी उतनी ही है, जितनी की खरमोर या बस्टर्ड पक्षी उड़ान भर सकते हैं।
वहीं राष्ट्रीय वन्यप्राणी बोर्ड की बैठक में बोर्ड के सदस्य और बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसयटी के संचालक किशोर रिठे ने सुझाव दिया था कि "अभयारण्य क्षेत्र में आने वाली विद्युत लाइन को अंडरग्राउंड किया जाए। लेकिन उनके सुझाव को नजर अंदाज करते हुए वन विभाग ने सरदारपुर अभ्यारण के 45.479 हेक्टेयर ईको सेंसिटिव ज़ोन में भी राजगढ़ से धार के बीच 220 केव्ही की विद्युत ट्रांस्मिशन लाईन के लिए 41 टावरों के निर्माण की अनुमति दी थी।"
कार्रवाई नहीं हुई
वन विभाग की कार्य शैली पर कटाक्ष करते हुए धार जिले के सामाजिक कार्यकर्ता अक्षय भंडारी कहते हैं कि,
आदिवासी जिलों को जोड़ने वाली इंदौर-दाहोद रेल लाइन का काम धार जिले के सरदारपुर क्षेत्र में खरमोर पक्षी अभ्यारण के कारण रूका हुआ है। जबकि विभाग को खरमोर की चिंता होती तो वो खरमोर अभ्यारण के ईको सेंसिटिव जोन में पावर ग्रिड की मंजूरी साल 2002-2003 में नहीं देता।
वो आरोप लगाते हुए कहते हैं कि,
वन विभाग रेलवे लाइन जैसी अहम परियोजना की मंजूरी खरमोर पक्षी की वजह से नहीं दे रहा है, जबकि खरमोर को इस क्षेत्र में काफी समय नहीं देखा गया है।
वहीं रेलवे पीआरओ खेमराज मीणा ने ग्राउंड रिपोर्ट को बताया कि
"सेंचुरी की वजह से सरदारपुर के पास रेलवे लाइन को बायपास करने की योजना बनाई गई है। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की आपत्ति को दूर किया जा चुका है और वन विभाग के रीजनल आफिस से मंजूरी मिल गई है और अब केंद्र की मंजूरी का इंतजार है, नहीं मिलने पर बायपास वाली योजना पर काम करेंगे।"
किसान का मददगार खरमोर ही बन गया दुश्मन
सरदारपुर अभयारण्य के ईको सेंसिटिव जोन में आने वाले गांव गुमानपुरा के स्थानीय निवासी चंदेल बताते हैं कि,
"खरमोर के कारण सालों से वन विभाग ने खेती नहीं करने दी है। जबकि पिछले दो से तीन साल से खरमोर दिखाई ही नहीं दिए हैं।"
मध्य प्रदेश में बर्ड सेंचुरी बनाने का प्रस्ताव साल 1980 में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के पक्षी विशेषज्ञ सलीम अली ने दिया था। उनके प्रस्ताव पर अमल करते हुए राज्य सरकार ने साल 1983 में धार जिले के सरदारपुर और रतलाम जिले के सैलाना में पक्षी अभ्यारण बनाया। दोनों अभ्यारण (सैलाना और सरदारपुर) को नोटिफाई किया गया था, तब स्थानीय लोगों की जमीन भी अभ्यारण के दायरे में अधिसूचित की गई थी। तब से सरकार ने न तो उनकी जमीनों का अधिग्रहण किया, न ही उन्हें किसी प्रकार कोई मुआवजा दिया और तो और उनकी जमीनों की खरीद-फिरोख्त तक पर भी रोक लगा दी गई।
चंदेल आगे कहते हैं कि,
इसकी वजह से हम सालों से वन विभाग की प्रताड़ना झेल रहे हैं, हम अपनी खुद की जमीन पर कुंआ, ट्यूबवेल, हैंडपंप भी नहीं खोद सकते, इसके लिए भी वन विभाग की मंजूरी लेनी पड़ती है। अभ्यारण की वजह से किसी भी तरह की सरकारी योजना का लाभ मिलना भी बंद हो गया।
किसानों और ग्रामीणों ने प्रशासन से उन्हें अभ्यारण क्षेत्र से स्थानांतरित करने की मांग भी की। किसानों ने साल 2021 में सैलाना अभ्यारण के दो हिस्सों 355 हेक्टेयर और 90 हेक्टेयर डिनोटिफाई करने के लिए पत्र लिखा, जबकि सरदारपुर अभ्यारण से करीब 14 गांवों की 34812.177 हेक्टेयर भूमि को अभ्यारण क्षेत्र के बाहर करने की मांग की गई।
सैलाना के किशोर वासु कहते हैं कि, उनकी कुछ जमीन अभ्यारण क्षेत्र में है। न तो वह इस जमीन पर खेती कर सकते हैं और न ही उसे बेच सकते हैं।
हालांकि सैलाना में कुछ हिस्सों की जमीन डिनोटिफाई कर दी गई है, लेकिन सरदारपुर अभ्यारण का मामला अभी कागजों तक ही सीमित है।
वहीं इस विषय पर बस्टर्ड और फ्लोरिकन के संरक्षण से जुड़े डॉ सुजीत नरवड़े कहते हैं कि,
अभ्यारण नोटिफिकेशन के समय ही अगर स्थानीय लोगों की जमीनें सरकार द्वारा अधिग्रहित की गई होती और उन्हें जमीन के बदलें जमीन या फिर उचित मुआवजा दे दिया होता तो यह स्थिति नहीं बनती। इसमें ग्रामीणों और किसानों की गलती नहीं है। वे तो सालों से अपनी जमीन पर पाबंदियों के साथ रह रहे हैं जबकि उन्हें जमीन का किसी भी तरह का मुआवजा नहीं मिलता है। लेकिन लगातार नुकसान झेलने की वजह से उनके मन में अब अभ्यारण और खरमोर पक्षी के प्रति हीन भावना उत्पन्न हो गई है, जो कि अभ्यारण और खरमोर के संरक्षण के प्रयासों के बिल्कुल विपरीत है।
वे आगे कहते हैं कि,
सैलाना अभ्यारण की कुछ जमीन डिनोटिफाई करने के साथ ही करीब 1394.161 हेक्टेयर क्षेत्र अधिसूचित किया गया है। यह नया अधिसूचित क्षेत्र भी खरमोर के संरक्षण के लिए उचित नहीं है, क्योंकि पवन चक्कियों के साथ नीलगाय की यहां बढ़ती तादाद भी बड़ी समस्या है।
सामूहिक प्रयासों के बिना संरक्षण संभव नहीं
साल 2005 में सुप्रिया झुनझुनवाला, अनिर्बान दत्ता और गार्गी देशमुख की टीम ने वन विभाग के साथ मिलकर सैलाना अभ्यारण में घांस के मैदान को संरक्षित करके लेसर फ्लोरिकन को संरक्षित करने के लिए काम किया था।
इस परियोजना में सामुदायिक भागीदारी का उपयोग किया गया था। इसके तहत ग्रामीणों, किसानों और बच्चों को जागरूक करने के लिए पुरस्कार कार्यक्रम, फिल्मों, संगीत वीडियो, पोस्टर और किताबों का सहारा लिया गया था। इससे लेसर फ्लोरिकन के संरक्षण के प्रति लोग जागरुक हुए थे।
इस परियोजना से जुड़े अनिर्बान दत्ता कहते हैं कि,
इन प्रयासों के परिणामस्वरूव मानसून के मौसम में सैलाना में आने वाले पक्षियों की संख्या में लगभग वृद्धि हो रही थी। सैलाना में वर्ष 2008 में 40 खरमोर देखे गए थे, परियोजना के पहले इनकी संख्या 27 तक ही थी। इस परियोजना के सफल होने की वजह से हमारी टीम को दो बार संरक्षण नेतृत्व कार्यक्रम पुरस्कार मिला है।
वन विभाग पीसीसीएफ समीता रंजौरा, जोकि साल 2008 में इस परियोजना से जुड़ी हुई थी कहती हैं कि,
जिस तरह से साल 2005 से लेकर 2009 तक सैलाना में काम किया गया है, उस तरह काम किया जाए तो खरमोर के संरक्षण के प्रयासों में सफलता मिलने की संभावना ज्यादा बनेगी।
साल 2020 में प्रधान मुख्य वन संरक्षक पीसीसीएफ के पद से सेवानिवृत्त और राज्य में खरमोर को बचाने के लिए लंबे समय तक काम करने वाले पीसी दुबे भी कहते हैं कि,
खरमोर के प्राकृतिक आवास क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को संरक्षण प्रयासों का हिस्सा बनाए बिना खरमोर को बचाया नहीं जा सकता है। सरकार को नियमों को आसान कर लोगों को खरमोर की रक्षा के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।
प्रजनन केंद्र कागजों तक सीमित
लगातार कम होती खरमोर की संख्या को लेकर मप्र वन विभाग ने संरक्षित प्रजनन की योजना बनाई है। दो साल गुज़र जाने के बाद भी इस योजना का प्रस्ताव तक तैयार नहीं किया गया है। जबकि इस योजना के लिए सलीम अली पक्षी विज्ञान एवं प्राकृतिक विज्ञान केंद्र (एसएसीओएन) से सहयोग लेने की बात कही गई थी।
खरमोर अभ्यारण सरदारपुर, अधीक्षक संतोष कुमार रनशोरे कहते हैं कि
खरमोर की लगातार कम हो रही संख्या को देखते हुए संरक्षित प्रजनन या कंजर्वेशन ब्रीडिंग की व्यवस्था के लिए प्रोजेक्ट तैयार किया गया है। इसके लिए एक बुकलेट भी तैयार की गई, लेकिन प्रोजेक्ट का प्रस्ताव अभी वन विभाग, मुख्यालय को नहीं भेजा गया है। जल्द ही इस योजना का प्रस्ताव तैयार कर मुख्यालय को मंजूरी के लिए भेजा जाएगा, इसके बाद केंद्र से मंजूरी लेने की प्रक्रिया की जाएगी।
आगे क्या?
खरमोर की आवाजाही की निगरानी के लिए टेलीमेट्री प्रोजेक्ट के माध्यम से निगरानी की जा रही है। खरमोर के शरीर पर एक यंत्र लगाकर उनकी आवाजाही पर नजर रखी जाती है। अजय गाडिकर कहते हैं कि,
फसल कटने के बाद खरमोर पक्षी दूसरे इलाके का रूख करते हैं, लेकिन ये पक्षी सबसे पहले अजमेर, फिर मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र रवाना होते हैं।
वे आगे कहते हैं कि,
इस पक्षी के बारे में जितनी ज्यादा जानकारी हासिल होगी, उतना ही इसके संरक्षण में मदद मिलेगी। इसके लिए अधिक लंबे शोध की जरूरत है।
वहीं सुचित भी उनकी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं कि,
खासकर मप्र में अभ्यारण के आसपास संचालित पवन चक्कियों से खरमोर को होने वाले नुकसान का आंकलन करने की जरूरत है।
वहीं बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के डायरेक्ट किशोर रिठे कहते हैं कि,
अभी संरक्षण के लिए और भी प्रयास करने होंगे। तब जाकर हालात में बदलाव देखने को मिलेंगे।
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