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छिंदवाड़ा के तामिया गांव में वनभूमि से जलाउ लकड़ी बटोरती आदिवासी महिला Photograph: (ग्राउंड रिपोर्ट)
मध्य प्रदेश में एक बार फिर से प्राइवेट कंपनियों को जंगल की ज़मीन लीज पर सौंपने की तैयारी की गई है। यह तैयारी राज्य के बिगड़े हुए वनों (Degraded Forests) को सुधारने और आदिवासियों के कल्याण के नाम पर की जा रही है। मप्र वन विभाग ने प्राइवेट कंपनी को आकर्षित करने के लिए ''सीएसआर (कॉर्पोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी), सीईआर (कॉर्पोरेट एनवायरनमेंट रिस्पांसिबिलिटी) और अशासकीय निधियों के उपयोग से वनो की पुनर्स्थापना '' नामक नीति बनाई है। यह नीति साल 2020 में बनाई गई और राजपत्र में प्रकाशन दिसंबर 2021 में किया गया। इस योजना में प्राइवेट कंपनियों ने खूब दिलचस्पी दिखाई थी, लेकिन आदिवासी संगठनों और कार्यकर्ताओं के विरोध में यह ठंडे बस्ते में चली गई थी।
एक बार फिर से मप्र वन विभाग ने इस नीति में मामूली बदलाव करते हुए ड्राफ्ट पब्लिक डोमेन में रखा और आमजन की प्रतिक्रिया मांगी है। यह बात अलग है कि इस ड्राफ्ट में प्रतिक्रिया की समय-सीमा का कहीं भी उल्लेख नहीं किया गया है।
इस ड्राफ्ट के मुताबिक राज्य के कुल 95 हेक्टेयर वन क्षेत्र में से 40 फीसदी यानि 37 लाख हेक्टेयर जंगल की जमीन का चयन किया गया है। इसमें छोटे निवेशकों को 10 हेक्टेयर और बड़े निवेशकों को 1000 हेक्टेयर तक की जंगल की ज़मीन दी जाएगी। यह ज़मीन 60 साल की लीज़ पर मिलेगी और उक्त समय सीमा तक कार्बन क्रेडिट पर अधिकार मिलेगा, जबकि वन समिति को 10 फीसदी कार्बन क्रेडिट प्राप्त होगा।
वन विभाग का दावा है कि निजी निवेश से बिगड़े हुए वन (डिग्रेडेड फॉरेस्ट) तो सुधरेंगे, साथ ही स्थानीय समुदायों की वनों पर आधारित आजीविका में भी सुधार होगा।
हालांकि,वन अधिकार कानून-2006 के मुताबिक जंगल और उसकी वनोपज पर वनवासी समुदाय का हक है। उस जंगल को स्वस्थ स्थिति में लाने के नाम पर मात्र 20 प्रतिशत हिस्सा आदिवासी समुदाय और 50 प्रतिशत निजी निवेशक को दी जाएगी, जबकि न्यूनतम 30 प्रतिशत हिस्सेदारी वन विकास निगम को मिलेगी।
वहीं राज्य के आदिवासी संगठन और पर्यावरणविद वन विभाग की इस योजना का विरोध कर रहे हैं। इसी कड़ी में जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) ने 28 फरवरी को प्रदेश भर के जिला मुख्यालयों में ज्ञापन दिया। साथ ही प्रदेशव्यापी आंदोलन की चेतावनी भी दे दी है।
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इधर, मप्र मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव ने निर्देश दिए है कि वनों से संबंधित प्रस्तावित नीति के लिए सभी स्टेक होल्डर के साथ मिलकर सभी पहलुओं पर मंथन किया जाए। इसके बाद ही वन विभाग द्वारा नई नीति को लागू किया जाए। मुख्यमंत्री ने यह निर्देश 28 फरवरी को हुई हाई पावर पेसा एवं वनाधिकार टास्क फाेर्स की बैठक में दिए है।
आदिवासी कार्यकर्ताओं और पर्यावरणविदों का कहना हैं कि तमाम ऐतिहासिक और कानूनी प्रमाणों से यह साबित है कि ये जंगल और जमीनें अभी सामुदायिक स्वामित्व में हैं। फिर क्या राज्य व केंद्र सरकार के पास इन्हें लीज़ पर देने का अधिकार है?
क्या होते है बिगड़े वन (डिग्रेडेड फॉरेस्ट)
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इस ड्राफ्ट में बिगड़े वन से तात्पर्य वन के उस हिस्से से हैं जहां पेड़ों की संख्या का घनत्व 0.4 से भी कम है। वन विभाग द्वारा इन्हीं वन क्षेत्रों को निजी हाथों में देने की कोशिश की जा रही है। वन विभाग के मुताबिक बिगड़े वनों को स्वस्थ स्थिति में लाने के लिए बड़े पैमाने पर पूंजी (5 से 8 लाख रू. प्रति हेक्टेयर), और तकनीकी व प्रबंधकीय कौशल की आवश्यकता है। निजी निवेश के माध्यम से जलवायु परिर्वतन, ग्रामीण व स्थानीय आजीविका और पारिस्थितिकी सेवाओं मसलन जल चक्र आदि को सुचारू व सतत बनाने जैसे लक्ष्य हासिल होंगे।
हालांकि जिन ज़मीनों की बात हो रही है वे ज़मीनें वन विभाग को आज़ाद भारत में 1950 के जमींदारी उन्मूलन कानून के तहत मिली। इन्हीं को भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 29 के तहत संरक्षित (प्रोटेक्टेड) वन माना गया। 1980 के बाद से भारत सरकार के वन, पर्यावरण मंत्रालय ने इनको अपने वर्किंग प्लान में शामिल किया। जब से ही इन जमीनें पर नियंत्रण, प्रबंधन, विदोहन और आवंटन की योजनाएं स्वीकृत की जा रही हैं।
वहीं 1 नवंबर, 1956 में मप्र के पुनर्गठन के समय राज्य का भौगोलिक क्षेत्रफल 442.841 लाख हैक्टेयर था, इसमें से 172.460 लाख हैक्टेयर वनभूमि और 94.781 लाख हैक्टेयर सामुदायिक वनभूमि दर्ज थी।
पर्यावरणविद् सुभाष सी पांडे सवाल उठाते हुए कहते हैं ''इन ज़मीनों पर आदिवासी समुदायों के घर-द्वार, खेत और चारागाह हैं, जबकि बिगड़े जंगलों को सुधारने के लिए राज्य भर के जंगलों में स्थित गांवों में वन ग्राम समितियां बनी हुई हैं। इसके लिए वन विभाग के पास बजट का भी प्रावधान है। फिर निजी निवेश की आवश्यकता क्यों।”
वे आगे कहते हैं ''कैंपा जैसे फंड का मिस यूज हो रहा है, यह नीति इस बात का सबूत है। वहीं इसी संरक्षित वन में से वनवासियों को वन अधिकार कानून 2006 के अंतर्गत सामुदायिक वन अधिकार और सामुदायिक वन संसाधनों पर अधिकार दिए जा रहे हैं।''
इन ज़मीनों का कानूनन स्टेटस क्या है?
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अविभाजित मप्र में भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 4 के बलात उपयोग से पैदा हुई विसंगतियों पर लंबे समय से अध्ययन करने वाले बैतूल के एडवोकेट अनिल गर्ग कहते हैं
''जिन ज़मीनों को विभाग निजी हाथों में सौंपने की बात कह रहा है। उस जंगल पर सरकार के सांपत्तिक ( प्रोपाइटरी राइट्स) अधिकार हैं न कि संपत्ति ( प्रॉपर्टी) अधिकार हैं।''
इस बात को समझाते हुए गर्ग कहते हैं
''सरकार के पास इस जंगल का अधिकार है, क्योंकि राज्य अंतत: स्वामी है, लेकिन यह सामुदायिक अधिकारों, निस्तार और उनके उपयोग के लिए आरक्षित है। इस वजह से सरकार समुदाय के अधिकारों के लिए ही इसका उपयोग कर सकती है। इसके अलावा इस वन क्षेत्र का सामुदायिक उपयोग नहीं होता और अभिलेखों में दर्ज न होता तो यह सरकारी संपत्ति होती और इसे जैसे चाहे वैसे उपयोग में ले सकती थी।''
जंगल और ज़मीन विवाद
मप्र और छत्तीसगढ़ में विवादित ज़मीनों का इतिहास बहुत पुराना है। यह ज़मीनी विवाद अविभाजित मप्र में 1950 के बाद से ही लंबित हैं। जंगल और ज़मीनी विवाद की जड़ को समझने के लिए हमें इतिहास के पन्नों में झांकने की ज़ररूत है।
इतिहास के पन्ने पलटने से पता चलता है कि 1965 से लेकर 1975 के बीच मप्र वन विभाग ने ज़मींदारी उन्मूलन के तहत मिली ज़मीनों को ही भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 34 (अ) के तहत अधिसूचित किया। इनका राजपत्रों में प्रकाशन भी किया गया। बाद में इन प्रकाशित अधिसूचनाओं को डी-नोटिफाई भी किया, लेकिन वन व राजस्व विभाग ने अपने अभिलेखों में सुधार नहीं किया है। यही विसंगति अभी भी बनी हुई है।
गर्ग, आगे कहते हैं ''इन ज़मीनों को ही भारतीय वन अधिनियम, 1927 की धारा 29 (संरक्षित वन बनाए जाने के लिए), धारा 4 (आरक्षित वन बनाए जाने के लिए) व धारा 34 (अवर्गीकृत वन) के तहत केवल अधिसूचित किया गया है, जबकि इनकी जांच आज भी लंबित है।''
सरकार की गठित टास्क फोर्स की सिफारिशें भी नजर अंदाज
इन जमीनों की अस्पष्ट और विवादित वैधानिक स्थिति पर संज्ञान 1956 के बाद से ही समय-समय पर विभिन्न सरकारों ने लिया और विधानसभा में समय-समय पर पूछे गए सवालों के जवाबों में भी स्वीकार किया हैं। सुधार करने के लिए कई बार कार्यकारी आदेश भी निकले, लेकिन सुधार कार्य पूर्ण नहीं हो सका। साल 2020 में भी ऐतिहासिक रूप से चली आ रही इन्हीं विसंगतियों की पड़ताल और सुधार करने के लिए एक टास्क फोर्स बनाई गई।
इस टास्क फोर्स में तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव (वन) एपी श्रीवास्तव और दो गैर सरकारी सदस्यों सहित कुल दस सदस्य शामिल थे। राज्य सरकार को 6 फरवरी 2020 में सौंपी गई टास्क फोर्स की रिपोर्ट में इसकी पुष्टि हुई है। परंतु पांच साल बीत जाने के बाद भी सरकार के अधीन गठित की गई टास्क फोर्स की सिफारिशों पर कोई काम नहीं किया गया।
टास्क फोर्स की रिपोर्ट में सामने आया कि 1950 के बाद वन विभाग द्वारा संरक्षित वन में शामिल की गई ज़मीनों को विंध्य विधानसभा (मप्र गठन से पहले) विंध्य प्रदेश भू-राजस्व एवं कृषकाधिकार अधिनियम, 1953 में राजस्व भूमि बताई गई। इस ज़मीन को ही मप्र के पुनर्गठन के बाद मप्र विधानसभा द्वारा पारित मप्र भू-राजस्व संहिता 1959 के अध्याय 18 में दखल रहित भूमि मानकर कानूनी प्रावधान किए गए। वहीं मप्र भू-राजस्व संहिता की धारा 237(1) में इन्हीं ज़मीनों को सार्वजनिक एवं निस्तारी प्रयोजनों के लिए आरक्षित किया गया। यह सिस्टम आज भी वैधानिक रूप से लागू है।
दोनों विभागों (वन और राजस्व विभाग) की तमाम कार्यवाहियों के आधार पर इस ज़मीन की वैधानिक स्थिति की समझाते हुए धार जिले की मनावर सीट से विधायक और जयस के राष्ट्रीय संयोजक हीरालाल अलावा बताते हैं
''यह ज़मीन एक तरफ वन विभाग द्वारा भारतीय वन कानून-1927 की धारा 4 व धारा 34 (अ) के तहत अधिसूचित वन भूमि है। दूसरी ओर यही ज़मीनें मप्र भू-राजस्व संहिता 1959 की धारा 237(1) में सार्वजनिक व निस्तारी प्रायोजनों के लिए आरक्षित हैं।''
अलावा, आगे कहते हैं ''तमाम कायदे-कानूनों और अस्पष्टताओं के बावजूद मौजूदा स्वरूप में भी इन ज़मीनों पर पहला और अंतिम हक स्थानीय समुदायों का है। अगर यह राजस्व की ज़मीन है तब भी और यदि यह वन भूमि है तब भी।''
राजस्व की ज़मीन होने की स्थिति में इस ज़मीन और इन गांवाें में संविधान की 11वीं अनुसूची और 73वें संविधान संशोधन के तहत ग्राम पंचायत के अधिकार क्षेत्र में जिसे प्राकृतिक संसाधनों पर समस्त अधिकार दिए गए है।
वहीं अगर ये समस्त जमीनें वनभूमि मानी जाती हैं तो इन ज़मीनों पर अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी कानून- 2006 (जोकि वन अधिकार कानून के नाम से प्रचलित है) लागू होगा। इस कानून की धारा 3 (1) ख के तहत ये सभी ज़मीनें समाज, समुदायों और ग्राम सभाओं को प्रदान की गई हैं। इस पर दावा प्रक्रिया प्रचलित है।
कैसे ये ज़मीनें दोनों ही विभाग के पास बतौर प्रोपराइटरी हैं?
कैसे यह जमीनें दोनों ही विभागों के पास बतौर प्राेपराइटरी ही हैं और ये उनकी प्रॉपर्टी नहीं हैं। इसे समझाते हुए भारत सरकार की हैबिटेट राइट्स व सामुदायिक अधिकारों से संबंधित समितियों में नामित विषय विशेषज्ञ और पर्यावरण एक्टिविट्स सत्यम श्रीवास्तव कहते हैं
“ये जमीनें वन विभाग द्वारा भारतीय वन कानून, 1927 की धारा 4 में अधिसूचित हैं तो यह अभी भी आरक्षित वन की श्रेणी में कानूनी तौर पर नहीं है, क्योंकि इसके लिए ज़रूरी धारा 5 से लेकर 19 तक की जांच और बंदोबस्त की प्रकिया लंबित है। इस वजह से यह वन विभाग की प्रॉपर्टी नहीं साबित होती है।"
श्रीवास्तव, आगे कहते है कि “ये ज़मीन राजस्व के अधीन भी हैं और मप्र भू-राजस्व संहिता 1959 के अध्याय 18 की धारा 237 में शामिल हैं और भारतीय वन कानून 1927 के अध्याय 2 धारा 12 के मुताबिक केवल तब ही नीलाम या लीज़ पर दी जा सकती हैं, जब इन ज़मीनों पर ऐतिहासिक रूप से भू-अभिलेखों में दर्ज सामाजिक, सामुदायिक अधिकारों को समाप्त मान लिया जाए।”
उनकी बात पर सहमित जताते हुए विधायक हीरालाल अलावा कहते हैं '
'सामुदायिक अधिकारों को समाप्त मान लिए जाने की शक्ति राज्य सरकार के पास नहीं है। सार्वजनिक प्रयोजन के लिए ऐसी ज़मीनों के अधिग्रहण किए जाने की घटनाएं मौजूद है, लेकिन उन मामलों में सामुदायिक अधिकारों को स्वीकार करते हुए वैकल्पिक व्यवस्था की गई है।”
अलावा, आगे बताते हैं ''यह तो स्पष्ट है कि सामुदायिक अधिकारों का समाधान किए बगैर ज़मीनों को लीज़ पर देने या उनका अधिग्रहण कानून सम्मत नहीं है।''
वहीं संविधान की 11वीं अनुसूची का समग्रता में पालन नहीं होना और वन अधिकार कानून 2006 के तहत दावा प्रक्रिया का संपूर्ण न होना किसी भी वनभूमि को निजी निवेश के लिए लीज़ पर नहीं दिया जा सकता है।
निष्कर्ष
मध्य प्रदेश में विवादित ज़मीनों और एक ही ज़मीन पर दो विभागों द्वारा बार-बार की गई समानान्तर कार्यवाहियों की पड़ताल से यह समझ आता है कि या तो सरकार के कांरिदों में बुनियादी समझ कम है या वे जान-बूझकर ऐतिहासिक गलतियों को दुरुस्त करने की बजाय गलतियों के इतिहास को बढ़ावा पूरे होशोहवास में दे रहे हैं। या जिन ज़मीनों को आदिवासियों के कल्याण और जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के नाम पर निजी निवेशकों को लीज़ पर देने की तैयारी की जा रही है, उन ज़मीनों पर सरकार के प्रॉपर्टी राइट्स तय हो चुके हैं या अभी भी ये समस्त ज़मीनें सरकार के पास बतौर प्रोपराइटरी हैं, जोकि इजमेंट (Easement) यानी सामुदायिक निस्तार के लिए आरक्षित हैं।
सवाल है कि जब ये जमीनें सामुदायिक निस्तार के प्रयोजन के लिए आरक्षित हैं तो ऐसे में वन विभाग वह ज़मीन किसी भी प्राइवेट कंपनी को लीज़ पर कैसे दे सकता है? वहीं एफआरए-2006 के मुताबिक इन ज़मीनों और उसकी वनोपज पर वनवासी समुदाय का हक है, पंरतु इस नीति से उसके हक (वनोपज) में से ही 50 फीसदी की हिस्सेदारी दी जा रही है, बिगड़े वनों को सुधारने के नाम पर।
इस स्टोरी के दूसरे भाग में हम इस नीति से आदिवासी समुदाय की आजीविका और उस पर पर पड़ने वाले प्रभावों पर प्रकाश डालेंगे।
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