देवास के खिवनी खुर्द में 29 आदिवासी परिवार बेघर। वन विभाग की कार्रवाई पर सवाल, 5000 लोगों का विरोध प्रदर्शन। राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग ने लिया मामले का स्वतः संज्ञान।
2025-26 में मूंग के लिए 8,682 रुपये प्रति क्विंटल का MSP तय था, जो किसानों की आर्थिक रीढ़ था। लेकिन सरकारी फैसले के बाद उन्हें मंडियों में 5000 से 5500 रुपये प्रति क्विंटल के दाम पर फसल बेचने को मजबूर होना पड़ा।
मध्य प्रदेश में गोंड आदिवासियों के बीच काम कर रही दयाबाई समुदाय की शिक्षा और स्वास्थ्य की बेहतरी के लिए लगातार संघर्षरत हैं। अमेरिका में अपनी उच्च शिक्षा पूरा करने का प्रस्ताव ठुकराकर उन्होंने आदिवासियों और किसानों के लिए काम करना चुना।
फाका अलीराजपुर के एक छोटे से गांव ककराना का निवासी है। वो और उसके समुदाय के लिए गांव के किनारे बहने वाली नर्मदा नदी ही अआजीविका का एक मात्र साधन है। मगर नदी में मछलियों की घटती संख्या और पहचान का संकट उनका जीवन कठिन कर देता है।
पन्ना जिले के गांधीग्राम में पत्थर खदानों में काम करने वाले मजदूर सिलिकोसिस की बीमारी से पीड़ित हैं। तिरसिया बाई ने इससे अपने ससुर व पति को मरते देखा है। मगर सरकार के पास इसके लिए न कोई स्पष्ट आंकड़ा है न इलाज का कोई तरीका।
गृहमंत्री अमित शाह ने 22 अप्रैल 2022 को वनग्रामों को राजस्व ग्राम में परिवर्तित करने की घोषणा की थी। लेकिन तीन साल बाद भी आदिवासी गाँवों में कुछ नहीं बदला है। इन वनग्रामों में जीवन कागजी प्रक्रियाओं में कैद होकर रह गया है।
पहले प्रदेश के 27 हजार किसान मित्र और अब 9300 जनसेवा मित्रों को प्रदेश सरकार ने दिखाया बाहर का रास्ता। पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने इन दोनों संगठनों से बहाली के वादे किए थे।
नया खामदा, सुपलई और सकाई गांव के परिवारों को सतपुड़ा के जंगल से विस्थापन के बदले पथरीली और कब्ज़े वाली ज़मीन दी गई है जहां उनके लिए खेती करना संभव नहीं है।
बुंदेलखंड में मिट्टी, पत्थर और पसीने से पांच कुएं गढ़ चुके दीपचंद-गौराबाई की कहानी सिर्फ पानी की नहीं, जज़्बे की है। बुढ़ापे की कमर झुकी है, पर उम्मीद अब भी सीधी खड़ी है—कुएं से नहीं, सरकार से प्यास बुझने की आस है।
बुंदेलखंड के आदिवासी बच्चों की शिक्षा पलायन के दुष्चक्र में फंस गई है। गरीबी, रोजगार की कमी और कमजोर स्कूल सिस्टम के चलते बच्चे पढ़ाई छोड़ मजदूरी को मजबूर हैं। पीढ़ी दर पीढ़ी यही सिलसिला जारी है।
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