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सरकार की वादा-खिलाफी से जूझते सतपुड़ा के विस्थापित आदिवासी

नया खामदा, सुपलई और सकाई गांव के परिवारों को सतपुड़ा के जंगल से विस्थापन के बदले पथरीली और कब्ज़े वाली ज़मीन दी गई है जहां उनके लिए खेती करना संभव नहीं है। 

By Sanavver Shafi
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Satpura Tiger reserve displacement protests

विस्थापन के बदले मिली पथरीली ज़मीन दिखाते ग्रामीण

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सतपुड़ा टाइगर रिजर्व (STR) के घने जंगल, जहां बाघों की दहाड़ और पक्षियों की चहचहाट गूंजती है, वहां ए‍क और आवाज़ धीरे-धीरे उभर रही है, वह है विस्‍थापित ग्रामीणों की। ये वे लाेग हैं, जिन्‍हें बाघ और वन्‍यजीव संरक्षण के नाम पर अपनी पुश्‍तैनी ज़मीनों से उजाड़ा गया, लेकिन नई बस्तियों में उन्‍हें वादाखिलाफी के सिवा कुछ नहीं मिला।

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यह काहानी नया खामदा, सुपलई और सकाई गांव के उन परिवारों की है, जिन्हें विस्थापन के बदले मिली है पथरीली और कब्ज़े वाली ज़मीन जहां खेती करना संभव नहीं है। 

नर्मदापुरम जिले में आने वाले नया खामदा-2, साकई गांव (केसला ब्‍लॉक, तहसील इटारसी) और  सुपलई-3 (सुहागपुर ब्‍लॉक, तहसील माखननगर) के दर्जनों ग्रामीण 9 मई 2025 को अपनी शिकायतें लेकर सतपुड़ा टाइगर रिजर्व के फील्‍ड डायरेक्‍टर कार्यालय पहुंचे। उनके साथ क्षेत्रीय विधायक विजय पाल भी थे, जिन्‍होंने ग्रामीणों की आवाज को बुलंद किया। सुपलई से 45 और नया खामदा से 34 परिवारों ने बताया कि उन्‍हें दी गई जमीन न केवल खेती के लिए अनुपयुक्‍त है, बल्कि कुछ जगहों पर पहले से अतिक्रमण भी है। 

नया खामदा के गौंड आदिवासी, रमेश पद्राम (46) कहते हैं, '' हमें 90 हेक्‍टेयर ज़मीन का वादा किया गया था। चार साल बीत गए, न पूरी ज़मीन मिली, न मुआवजा। जो जमीन दी, उस पर कोई और कब्‍ज़ा किए बैठा है।''

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ग्रामीणों ने यह भी शिकायत की है कि नई बस्तियों में बिजली, पानी, स्‍कूल और स्‍वास्‍थ्‍य सुविधाओं का अभाव है। 

विस्थापन टाईमलाईन

सतपुड़ा टाइगर रिजर्व (STR) में  गांवों का विस्‍थापन 2004-05 से शुरू हुआ। यह विस्‍थापन बाघों और संरक्षण के नाम पर किया गया। अब तक 53 गांव विस्‍थापित किए जा चुके हैं। इसमें 38 कोर क्षेत्र और 13 बफर ज़ोन से हैं। इन विस्‍थापनों में लगभग 8450.823 हेक्‍टेयर क्षेत्र को वन्‍यजीवों के लिए मुक्‍त किया गया। 

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सतपुड़ा टाईगर रिज़र्व से विस्थापन की टाईमलाईन
सतपुड़ा टाईगर रिज़र्व से विस्थापन की टाईमलाईन

 

राष्‍ट्रीय टाइगर संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) के अनुसार, देशभर के टाइगर रिजर्व में 591 गांवों का (64,801 परिवार) अभी विस्‍थापित होने बाकी हैं। 

प्रक्रिया और नीतियां 

सतुपड़ा में विस्‍थापन दो विकल्‍पों के तहत हुआ: 

  • विकल्‍प-1: प्रत्‍येक परिवार को 15 लाख रूपये का नकद भुगतान ( 3 लाख रू. पति-पत्न‍ि के सुंयक्‍त खाते में और 12 लाख रू. कलेक्‍टर के साथ संयुक्‍त सावधि जमा में)। 

  • विकल्‍प-2: वन विभाग द्वारा पुर्नवास, जिसमें जमीन और अन्‍य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं। 

नया खामदा-2, सुपलई-3, और साकई गांव में विकल्‍प-2 के तहत पुनर्वास किया गया, जहां प्रत्‍येक परिवार को 5 एकड़ जमीन देने का वादा था ( 0.5 एकड़ आवासीय और 4.5 एकड़ खेती के लिए)। 

उजड़े गांव, अतिक्रमण और अनुपजाऊ ज़मीन 

सतपुड़ा से विस्थापन के बाद ग्रामीणों को मुर्रम वाली ज़मीन दी गई है जिसपर खेती करना संभव नहीं है।
सतपुड़ा से विस्थापन के बाद ग्रामीणों को मुर्रम वाली ज़मीन दी गई है जिसपर खेती करना संभव नहीं है।

सुपलई-3 और नया खामदा-2 के लोग, जो पीढि़यों से जंगल के संसाधनों नदी, खेत और लकड़ी पर निर्भर थे। विस्‍थापन के बाद नई बस्तियों में बसाए गए। नया खामदा-2 में 34 परिवारों की कुल जनसंख्‍या 140 है। प्रत्‍येक परिवार को 5 एकड़ ज़मीन का वादा किया गया था। इसमें से 0.5 एकड़ आवासीय ज़मीन दी जा चुकी है। परंतु विस्थापितों का आरोप है कि खेती के लिए दी जा रही 4.5 एकड़ ज़मीन मुर्रम वाली (पथरीली और बंजर) है। जोकि खेती के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्‍त है। इसके अलावा इस जमीन पर अतिक्रमण की समस्‍या है, जिसके कारण ग्रामीण इसका उपयोग नहीं कर पा रहे है। 

रमेश पद्राम (46), नया खामदा-2 के एक गौंड आदिवासी, कहते हैं, 

''हम 34 परिवारों को जो ज़मीन दी जा रही है, उसमें से 80 प्रतिशत पर ज़मीन पर पत्‍थर ही पत्‍थर हैं।'' वे गुस्‍से में सवाल पूछते हैं, '' खेती नहीं होगी, तो बच्‍चे को क्‍या खिलाएंगे, कब तक मज़दूरी करके गुज़ारा करेंगे। अभी यह हालात हैं कि एक सप्‍ताह में दो-तीन दिन मज़दूरी मिल जाए तो बहुत बड़ी बात हैं।''

सुपलई-3 गांव 2022 में विस्‍थापित किया गया। इस गांव के 45 परिवारों की स्थिति भी नया खामदा-2 जैसी ही है। सुपलई भाग-3 के रामतेज तेकाम, विस्‍थापित ग्राम समिति के अध्‍यक्ष, कहते हैं, 

''2022 में विस्‍थापन से पहले वन विभाग ने जो जमीन दिखाई थी, वह ऊपजाऊ, खेती योग्‍य जमीन थी। परंतु विस्‍थापन के बाद जो जमीन खेती के लिए विभाग दे रहा है, वो पथरीली जमीन है। इस पर खेती नहीं की जा सकती है।''

सुपलई की कलावती बाई (50),गौंड आदिवासी महिला, उनके पति की मृत्‍यु हो चुकी है, और उनके चार बच्‍चे हैं (तीन लड़के और एक लड़की) उनकी बेटी की अभी शादी नहीं हुई है, जिसके कारण परिवार आर्थिक दबाव है। सुपलई के 45 परिवारों की तरह, कलावती को भी 5 एकड़ जमीन का वादा किया था, उन्‍हें आवासीय जमीन तो मिल चुकी है, लेकिन खेती की 4.5 एकड़ ज़मीन पथरीली है। 

कलावती बाई कहती हैं,

''मेरे पति के जाने के बाद मैंने बच्‍चों को पाला। पुराने गांव में नदी थी, खेत थे। यहां पत्‍थरों पर क्‍या बोऊं? मेरी बेटी की शादी करनी है, लेकिन खेती नहीं होने से मुश्किलें बढ़ रही है।'' 

उनकी आवाज में दर्द और हताशा साफ झलकती है। उनके तीनों बेटे खेतिहर मजदूरी करते हैं, लेकिन रोजाना मजदूरी नहीं मिलने से आर्थिक स्थिति गंभीर हैं। 

उनकी बात को आगे बढ़ाते हुए सेजराम (45) कहते हैं, '' जंगल में कम से कम अनाज और लकड़ी तो मिलती थी। यहां न खेत है, न स्‍कूल, न अस्‍पताल। अतिक्रमण ने हमारी ज़मीन भी छीन ली।''

विकल्‍प-2 से विकल्‍प-1 की गड़बड़ी 

साकई गांव के अलमत भलावी (50) ने विकल्‍प-2 का फाॅर्म भरा था, जिसमें 5 एकड़ जमीन मिलनी थी। वन विभाग ने उनकी सहमति के बिना उनका दावा विकल्‍प-1 में दर्ज कर लिया और उनके खाते में 3 लाख रू. (पति-पत्न‍ि के सुंयक्‍त खाते में ), जबकि 12 लाख रू. (कलेक्‍टर के साथ संयुक्‍त सावधि जमा में) डाल दिए। अलमत ने यह राशि आज तक नहीं निकाली, क्‍योंकि वे ज़मीन चाहते हैं। उन्‍हें आश्वासन दिया गया कि ज़मीन दी जाएगी और उन्‍होंने ज़मीन पर कब्‍जा भी कर लिया। लेकिन पट्टा (कानूनी दस्‍तावेज) नहीं मिला। 

अलमत कहते हैं, '' मैंने ज़मीन मांगी, पैसा नहीं। मैंने एक रू. भी नहीं निकाला। पट्टा दो, ताकि मेरे बच्‍चे खेती करें।'' 

बिना पट्टे के उनकी जमीन पर अतिक्रमण का खतरा बना हुआ है। उनकी यह शिकायत दर्शाती है कि वन विभाग ने विस्‍थापन प्रक्रिया में पारदर्शिता और ग्रामीणों की सहमति का सम्‍मान नहीं किया।

तुषार दास, वन अधिकारों के शोधकर्ता, कहते हैं, ''ऐसे मामले मध्‍य प्रदेश और अन्‍य राज्‍यों में आम हैं। ग्रामीणों की सहमति के बिना दावों को बदलना FRA का उल्‍लंघन है। ग्राम सभा की भूमिका को नजरअंदाज किया जा रहा हैं।'' 

वादों का सिलसिला, हकीकत का अंधेरा 

मुआवज़े में मिली ज़मीन को देखते ग्रामीण
मुआवज़े में मिली ज़मीन को देखते ग्रामीण

फील्‍ड डायरेक्‍टर राखी नंदा ग्रामीणों और जमीन आवंटन की खामियों की बात को स्‍वीकारते हुए कहती हैं,

''विस्‍थापन के समय ज़मीन के बड़े हिस्‍सों को शामिल किया गया, जिसके कारण कुछ क्षेत्र छूट गए। हम जल्‍द ही बैठक करेंगे और समाधान निकालेंगे। ज़मीन को उपजाऊ बनाने के लिए मिट्टी डाली जाएगी।'' 

स्‍थानीय विधायक विजय पाल ने भी आश्वासन दिया कि ग्रामीणों की समस्‍याओं को प्राथमिकता दी जाएगी, लेकिन ग्रामीणों का भरोसा डगमगा चुका है। 

सुपलई गांव के सेजराम (45) कहते हैं,''ऐसे वादे हमें पहले भी मिले। मी‍टिंग होती है, कागज़ बनते हैं, लेकिन ज़मीन पर कुछ नहीं बदलता है। हमारी सुनता कौन है?'' उनकी बातें विस्‍थापन की त्रासदी को उजागर करती हैं।

संरक्षण बनाम इंसानी हक

सतपुड़ा टाइगर रिजर्व ने बाघ संरक्षण में उल्‍लेखनीय कामयाबी हासिल की है। 2023 में इसे TX2 अवार्ड मिला, क्‍योंकि इसने अपनी बाघ आबादी को दोगुना किया। परंतु इस सफलता की कीमत ग्रामीणाें को चुकानी पड़ी। देश भर के टाइगर रिजर्व से 5.5 लाख से अधिक आदिवासियों और वनवासियों को विस्‍थापति किया गया है और सतपुड़ा भी इस कहानी का हिस्‍सा है। 

विशेषज्ञों का कहना है कि पुनर्वास नीतियों में पारदर्शिता और ग्रामीणों की भागीदारी की कमी इस संकट की जड़ है। ग्रामीणों को संरक्षण प्रक्रिया में शामिल करने के बजाय, उन्‍हें हाशिए पर धकेल दिया गया। 

कर्नाटक के बिलिगिरी रंगास्‍वामी टेम्‍पल टाइगर रिजर्व का उदाहरण देते हुए पर्यावरण कार्यकर्ता डॉ. शरद लेले कहते हैं,''जिस प्रकार सोलिगा आदिवासियों को कोर क्षेत्र में रहने की अनुमति दी गई और बाघों की संख्‍या भी बढ़ी। उसी प्रकार अन्‍य टाइगर रिजर्व में भी इस मॉडल को अपनाना चाहिए।'' 

लेले, आगे चेतावनी देते हुए कहते हैं, ''अतिक्रमण और ज़मीन की गुणवत्ता की समस्‍या नीतिगत विफलता को दर्शाती है। इस समस्‍या को तुरंत हल करना होगा। ऐसा नहीं करने पर ग्रामीणों में अविश्वास बढ़ेगा, जो आगे चलकर संरक्षण के लिए नुकसानदायक साबित होगा।'' 

हालांकि सतपुड़ा टाईगर रिज़र्व में कुछ सकारात्‍मक कदम भी उठाए गए हैं। विस्‍थापित कंकरी गांव को आदर्श गांव घोषित किया गया। यहां पर विस्‍थापिताें को सड़कें, बिजली, पानी और स्‍कूल मिले। कुछ ग्रामीण महिलाएं इको-टूरिज्‍म में प्रशिक्षित हो रही हैं और कई को जंगल सफारी में ड्राइवर और गाइड की नौकरी मिली है। परंतु ये प्रयास सुपलाई, नया खामदा-2 तक नहीं पहुंचे।

इन प्रयासों की सरहाना करते हुए पर्यावरण कार्यकर्ता राशिद नूर खान कहते हैं, ''ग्रामीणों को ईको-टूरिज्‍म में शामिल किया जा रहे है, सतपुड़ा में महिलाएं सफारी गाइड बन रही है, लेकिन यह प्रयास नाकाफी है। इनका दायरा बढ़ने की जरूरत है।'' 

निष्‍कर्ष 

नया खामदा-2 और सुपलई-3 के ग्रामीण अब इंतजार में हैं। उनकी मांग साफ है अति‍क्रमण-मुक्‍त उपजाऊ जमीन, बिजली, पानी, स्‍कूल और रोज़गार। सतपुड़ा में कुछ ग्रामीण महिलाओं को इको-टूरिज्‍म में प्रशिक्षित किया जा रहा है और कुछ को जंगल सफारी में ड्राइवर और गाइड की नौकरी मिली है। परंतु यह प्रयास अभी छोटे पैमाने पर है। 

यह कहानी सिर्फ सतपुड़ा की नहीं, बल्कि भारत के उन तमाम इलाकों की है, जहां संरक्षण के नाम पर इंसानों को उजाड़ा जाता है। पंरतु उनके पुनर्वास की जिम्‍मेदारी अधूरी रहती है। सवाल यह है कि क्‍या हम एक ऐसा रास्‍ता बना सकते हैं, जिसमें बाघ और इंसान, दोनों की जिंदगी सुरक्षित हो? 

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