हाल ही में आई एक रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया भर में सर्वाधिक प्लास्टिक कचरा उत्पादित करने वाला देश बन गया है, जो कि सालाना 9.3 मिलियन टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन करता है। लेकिन छिंदवाड़ा के पांढुर्ना में रहने वाले युवा उद्यमी अरुण शेंडे इन आंकड़ों को एक अलग नजरिये से देखते हैं। अरुण पांढुर्ना में पिछले तीन सालों से प्लास्टिक को रिसाइकल कर रहे हैं। अरुण इसे प्लास्टिक प्रदूषण की वैश्विक समस्या के समाधान के साथ ही, लोगों को रोजगार प्रदान करने के एक माध्यम के तौर पर देखते हैं।
पिछले 5-6 वर्षों से प्लास्टिक रीसाइक्लिंग का काम कर रहे हैं अरुण
अरुण ने अपने काम की शुरुआत 2018-19 में टाटा समूह के अंतर्गत टी-वेस्ट रीसाइक्लिंग के साथ की। इसके बाद अरुण बैंगलोर की संस्था साहस जीरो वेस्ट के साथ जुड़े, जहां उन्हें देश की अलग-अलग निकायों के साथ काम करने का मौका मिला।
साल 2022 में जब साहस जीरो वेस्ट ने देश के 5 विभिन्न स्थानों पर प्लास्टिक कचरे को रिसाइकल करने की यूनिट खोलने का निर्धारण किया, तब पांढुर्ना की जिम्मेदारी अरुण के हिस्से आई। साहस जीरो वेस्ट ने ही अरुण के लिए पांढुर्ना में शेंडे रिसोर्स मैनेजमेंट नाम की एक फैसिलिटी और मशीनें स्थापित कर के दी, जहां अरुण आज प्लास्टिक रीसाइक्लिंग का काम कर रहे हैं ।
शुरुआत में अरुण, नगर निगम की डंपसाइट से ही सीधे कचरा उठा कर सीमेंट उद्योग में कोप्रोसेसिंग के लिए भेज देते थे। अरुण बताते हैं कि उस दौरान वो रोज़ का 4 से 5 टन का कचरा को-प्रोसेसिंग के लिए भेजते थे। वो आगे कहते हैं,
जब ये काम चल रहा था तब मेरे मन में ये विचार आया कि हम डंपसाइट के कचरे को रिसाइकल करके पर्यावरण को बचाने के साथ ही इससे फायदा भी कमा सकते हैं। इसके बाद साहस जीरो वेस्ट के सहयोग से ही मैंने सिटी के अंदर एक छोटी सी फैसिलिटी खोली, और रीसाइक्लिंग का काम शुरू किया।
अरुण बताते हैं कि शुरुआत में उन्होंने एक छोटे से कमरे में 5-6 कर्मचारियों के साथ प्लास्टिक वेस्ट रीसाइक्लिंग का काम शुरू किया था। बाद में शहर से बाहर 3000 स्क्वायर फुट की एक नई फैसिलिटी में काम कर रहे हैं। यहां उन्होंने अपने कर्मचारी भी बढ़ा दिए हैं।
इस काम के लिए उन्होने अपने क्षेत्र के 100 किलोमीटर के दायरे में आने वाली पांढुर्ना, काटोल, वरूड़ जैसे 10-12 नगर निकायों से संपर्क स्थापित किया।
छिंदवाड़ा जिले के सभी 14 निकायों को मिलकर देखा जाए तो यहां रोजाना 6163.68 मीट्रिक टन कचरा निकलता है। इनमे पांढुर्ना जैसे बड़े निकाय भी शामिल हैं जहां से रोजाना 13.55 मीट्रिक टन कचरा निकलता है।
अगर इसमें पांढुर्ना से सटी हुई उन म्युनिसिपालिटी को शामिल किया जाए जो महाराष्ट्र में आती हैं तब यह आंकड़ा और भी बड़ा हो जाता है। मसलन अमरावती की वरूड़ और नागपुर की काटोल म्युनिसिपालिटी से रोजाना तकरीबन 18 मीट्रिक टन कचरा निकलता है। अरुण इन नगरीय निकायों की डंपसाइट से सीधे प्लास्टिक कचरा उठाकर अपनी यूनिट पर लाते हैं और उस पर कार्य करना शुरू करते हैं।
क्या है रीसाइक्लिंग की प्रकिया
अरुण नगर निगमों से लाये हुए कचरे को सबसे पहले सॉर्टिंग मशीन की मदद से छाँटते हैं। कचरे को छांटने के बाद उस हिस्से को अलग कर देते हैं जिसे रिसाइकल नहीं किया जा सकता है। इसे सीमेंट फ़ैक्ट्री में को-प्रोसेसिंग के लिए भेजा जाता है। इसके बाद बचे हुए प्लास्टिक जिसमे प्लास्टिक बॉटल, पॉलीथिन, और अन्य वस्तुएं शामिल होती हैं उसे नजदीकी रीसायकलर्स को बेच देते हैं।
अगर कोई प्लास्टिक ऐसा है जिसे रीसायकलर्स नहीं लेते हैं, उसे अरुण खुद रिसाइकल करते हैं। मिसाल के तौर पर अरुण ने एलडी पॉलीथिन का उदाहरण दिया। अरुण एलडी पोलोथिन को रिसाइकल कर के छोटे-छोटे दानों में तोड़ते हैं, जिससे दोबारा पॉलीथिन बनाई जाती है।
अरुण ने बताया की उनके पास संसाधन सीमित हैं।अरुण कहते हैं कि उनके पास रोजाना 2 से 3 टन कचरा नगर निगमों से आता है। और इस प्रक्रिया के बाद उन्हें 1 किलो कचरे पर 1 से 2 रुपये बचते हैं।
अरुण बताते हैं कि, त्योहारों के समय कचरे की मात्रा और भी बढ़ जाती है। अगर उनके पास अधिक बड़ी जगह और मशीनें होती तो यह काम अधिक तेजी के साथ हो पाता। हालांकि अरुण पांढुर्ना के आस-पास अन्य क्षेत्रों में भी अपनी छोटी-छोटी यूनिट खोलने का विचार कर रहे हैं।
इस काम के जरिये सामाजिक प्रतिष्ठा में हुई है वृद्धि
अरुण बताते हैं कि आज उनके साथ 10 से 12 लोग नियमित तौर पर काम करते हैं। वो उन्हें स्थानीय श्रम मूल्य, 425 रूपये प्रतिदिन के अनुसार मानदेय देते हैं। अरुण आगे कहते हैं,
अपने काम के शुरूआती दौर में लोगों की दुकानों से भी प्लास्टिक इकठ्ठा किया करता था। तब से ही लोग मुझे जानने लगे हैं। लोग यहां मुझे ‘कचरे वाला’ या ‘कचरा सेठ’ बुलाते हैं। मैं इसे एक सम्मान के तौर पर देखता हूँ कि जो प्लास्टिक धरती पर पड़े-पड़े पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता आज मैं उसे रिसाइकल कर रहा हूँ।
पहले मैं इसी काम के लिए 20-25 हजार की नौकरी करता था। आज मैं अपने काम से इतना कमाने के साथ ही 10 लोगों को रोजगार उपलब्ध करवा पा रहा हूं। मेरे घर वाले भी मेरे काम से खुश हैं, उन्हें गर्व होता है कि मेरी वजह से लोगों को रोजगार मिलता है और पर्यावरण की सुरक्षा भी हो पाती है।
आज भारत का हर व्यक्ति रोजाना 120 ग्राम कचरा उत्पन्न करता है। अरुण इस आंकड़े को एक बड़ी संभावना के तौर पर देखते हैं। अरुण कहते हैं,
इंसान जब तक इस धरती पर है कचरा निकलेगा ही। प्लास्टिक आज की एक सच्चाई है। हमें जरूरत है एक व्यवस्था तैयार करने की, ताकि ये प्लास्टिक डंपसाइट पर पहुंचने से पहले रिसाइकल हो जाए। पिछले कुछ सालों से यहां काम करते हुए मैंने म्युनिसिपालिटी के साथ अच्छे संबंध स्थापित कर लिए हैं। मेरा प्रयास यही रहता है कि, एक भी प्लास्टिक लैंडफिल का हिस्सा न बने। जो प्लास्टिक रिसाइकल नहीं हो पाता उसे हम 200 किलोमीटर दूर चंद्रपुर की सीमेंट फैक्ट्री में भेज देते हैं।
क्या होती है प्लास्टिक को-प्रोसेसिंग
सीमेंट उद्योग में को-प्रोसेसिंग से तात्पर्य है कि प्लास्टिक के कचरे का उपयोग ईंधन के रूप में किया जाए, खासकर उन पॉलिथीन कचरे को जो रिसाइकल करने के योग्य नहीं होते। इस प्रक्रिया में, प्लास्टिक कचरे को सीमेंट भट्ठी में जलाया जाता है, जिससे कोयले, और जैव ईंधन की खपत में कमी आती है और अपेक्षाकृत अधिक सस्ती ऊर्जा उपलब्ध होती है।
प्लास्टिक के कचरे का को-प्रोसेसिंग पर्यावरण के लिए कई तरह से हितकर है। इससे न केवल CO2 उत्सर्जन में कमी आती है, बल्कि यह गैर-रीसाइकल योग्य प्लास्टिक को लैंडफिल में जाने से भी रोकता है। इसके अलावा, प्लास्टिक जलाने पर जो राख प्राप्त होती है, उसे सीमेंट उत्पादन में कच्चे माल के रूप में भी उपयोग किया जाता है। हालांकि प्लास्टिक को इंसीनरेट करने के अपने पर्यावरणीय नुकसान भी हैं।
क्यों हानिकारक है लैंडफिल में प्लास्टिक की मौजूदगी
प्लास्टिक कचरे की लैंडफिल में मौजूदगी इसके नकारात्मक प्रभावों को बढ़ा देती है। लैंडफिल में प्लास्टिक के अवशेष जमीन और पानी को प्रदूषित करते हैं, जिससे जहरीले पदार्थों का रिसाव होता है और मिट्टी की गुणवत्ता में कमी आती है।
इसके अलावा, जब प्लास्टिक टूटकर माइक्रोप्लास्टिक में बदल जाता है, और हवा-पानी के साथ बहकर यह प्राकृतिक पारिस्थितिकी तंत्र में फैल जाता है। इस वजह से स्थानीय जंगली जीवन और मानव स्वास्थ्य को खतरा होता है। इन माइक्रोप्लास्टिक में अन्य प्रदूषकों को पकड़ने की क्षमता होती है, जो उनकी विषाक्तता को बढ़ा देता है।
प्लास्टिक कचरे की लैंडफिल में उपस्थिति स्वास्थ्य के लिए भी गंभीर खतरे उत्पन्न करती है, क्योंकि यह हानिकारक वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों (VOCs) का उत्सर्जन कर सकती है। इनमें से कई रसायन मानव शरीर में संचित होकर हार्मोनल समस्याएं उत्पन्न कर सकते हैं। इसके अलावा, लैंडफिल में प्लास्टिक बिना अपघटित हुए लगभग सौ वर्षों तक बनी रहती है, जिससे प्रदूषण की समस्याऐं बढ़ती है।
आज भारत में रोजाना 26,000 टन प्लास्टिक कचरा निकलता है जिसका सिर्फ 8 फीसदी हिस्सा ही पुनर्चक्रण की प्रक्रिया से गुजरता है। शेष प्लास्टिक लैंडफिल में पहुंच पर्यावरण में गिरावट का सबब बनती है। अगर रिसाइकल होने वाले 8 फीसदी प्लास्टिक पर नजर डालें, तो इसका 96 फीसदी हिस्सा इनफॉर्मल सेक्टर का है।
ये आंकड़े भारत में प्लास्टिक वेस्ट की रीसाइक्लिंग की दिशा में हुए सीमित प्रयास को रेखांकित करते हैं। भारत में प्लास्टिक कचरे को इकठ्ठा करने के समानांतर ही उसके पुनर्चक्रण की व्यवस्था मौजूदा समय की दरकार है। 34 वर्षीय अरुण पिछले 3 सालों से प्लास्टिक कचरे को लैंडफिल में पहुंचने से रोक रहे हैं। लेकिन प्लास्टिक प्रदूषण को रोकने के दिशा में एक ठोस नीति की आवश्यकता अभी भी बनी हुई है।
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