Read in English | गुरुवार 7 नवंबर को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की सख्ती के बाद पराली जलाने वाले किसानों पर लगने वाले जुर्माने की राशि बढ़ाकर दोगुनी कर दी। लेकिन भोपाल से 20 किलोमीटर दूर स्थित खजूरी सड़क गांव के किसानों को इसकी चिंता नहीं है, वे बेखौफ अपने खेत में बची धान की पराली में माचिस से आग लगा रहे हैं।
पर्यावरण मंत्रालय की नोटिफिकेशन के अनुसार अब 2 एकड़ से कम ज़मीन पर पराली जलाने पर किसान को 5 हज़ार रुपए, 2-5 एकड़ पर 10 हज़ार रुपए, 5 एकड़ से ज्यादा जमीन वालों को 30 हज़ार रुपए जुर्माना देना होगा।
जुर्माने की यह रकम पहले के तुलना में सीधे दोगुनी बढ़ा दी गई है। इसके अलावा मध्य प्रदेश में इस नियम को लागू करने की बाध्यता नहीं है। केवल उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और दिल्ली सरकारों को ही तत्काल और अनिवार्य रुप से यह नियम लागू करना है।
मध्य प्रदेश में पराली जलाने को लेकर सख्ती न दिखाना यह बताता है कि भारत की फसल अवशेष प्रबंधन पॉलिसी देश भर में पराली जलाने की समस्या से निपटने के बजाय दिल्ली की वायु प्रदूषण समस्या पर केंद्रित हैं।
पराली न जलाएं तो क्या करें?
खजूरी सड़क, भोपाल जिले की हुज़ूर तहसील के उन गिने चुने गांवों में से एक है जहां खरीफ के सीज़न में धान की पैदावार होती है, इसकी एक वजह इस गांव का भोज वेटलैंड के नज़दीक होना और पानी की पर्याप्तता भी है। जब हम शाम चार बजे यहां पहुंचे तो कई किसान अपने खेत में पराली जलाते दिखे।
छतरसिंह मेवाड़ा 50 एकड़ ज़मीन पर खेती करते हैं, उनका खेत जलाई गई पराली की राख से पूरा काला दिखाई देता है। वो कहते हैं
"पराली नहीं जलाएंगे तो क्या करेंगे किसान? हर साल मौसम की वजह से फसल बर्बाद हो जाती है, फसल के भाव मिलते नहीं, मज़दूर नहीं मिलते तो हारवेस्टर से फसल कटवाते हैं, अब अगर रोटोवेटर से पराली निकालेंगे तो लागत और अधिक बढ़ जाएगी।"
रोटोवेटर एक कृषि यंत्र है जो पराली को क्रष कर मिट्टी में मिला देता है, इससे खेत की मिट्टी भी एक समान हो जाती है, जो अगली फसल की बुवाई को आसान बना देती है। मध्य प्रदेश में कई गांवों में यह 8 हज़ार रुपए घंटे के रेट से किराये पर मिलती है।
खजूरी सड़क गांव में अभी ज्यादातर खेतों में धान की कटाई चल ही रही है। यह काम अगले 15 दिन में पूरा हो जाएगा। जैसे-जैसे खेतों की कटाई पूरी होगी, एक एक कर यहां खेतों में आग लगाई जाती रहेगी। यानी अगले 15 दिनों तक यहां हवा में धुआँ बना रहेगा।
अगर पिछले साल के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि 57 फीसदी पराली जलाने के मामले 8 से 30 नवंबर के बीच ही दर्ज हुए थे। पिछले वर्ष दर्ज किए गए कुल 36,663 मामलों में से 15,685 मामले सिर्फ़ इसी अवधि के दौरान दर्ज हुए थे।
खजूरी सड़क के किसान और गांव वाले इसे समस्या नहीं परंपरा मानते हैं, जो उन्हें उनके बाप दादाओं से मिली है। आप तो जानते हैं कि भारत में परंपराएं या कु-प्रथाएं लंबे संघर्ष के बिना खत्म नहीं होती। हालांकि सख्त कानून इस काम में तेज़ी ला सकते हैं। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा केवल दिल्ली के आसपास के राज्यों में जुर्माने की राशि बढ़ाना यह बताता है कि सरकार का इरादा पराली जलाने की परंपरा खत्म करना या हर व्यक्ति को सांस लेने के लिए स्वच्छ हवा मुहैया करवाना नहीं है। जबकि सुप्रीम कोर्ट बार-बार सरकारों को यह याद दिलाता रहा है कि प्रदूषण में रहना अनुच्छेद 21 के तहत नागरिकों के मौलिक अधिकारों का घोर उल्लंघन है।
पराली को लेकर दिल्ली केंद्रित नीति की तस्दीक इस बात से भी होती है कि वर्ष 2018-19 से फसल अवशेषों के इन सीटू प्रबंधन के लिए चलाई जा रही केंद्र सरकार की ‘Promotion of Agricultural Mechanization' योजना के तहत पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और दिल्ली के किसानों को वित्तीय सहायता मिलती है। इन राज्यों की सरकारों को 2018 से 2023 तक पराली के प्रबंधन के लिए केंद्र सरकार से 3,062 करोड़ रुपए अधिक जारी किए गए। लेकिन मध्य प्रदेश को इस तरह का वित्तीय समर्थन नहीं मिला। जबकि पराली जलाने के मामले में मध्य प्रदेश बस पंजाब से ही पीछे है।
एमपी में ज्यादातर किसानों के लिए पराली में आग लगाना एक सस्ता और आसान विकल्प है। यही कारण है कि इस सीज़न में अब तक देश में पराली जलाने के कुल 10,693 मामलों में से मध्य प्रदेश में 2875 मामले दर्ज हुए हैं जो पंजाब में दर्ज हुए 4394 मामलों के बाद देश में सार्वधिक है।
सोमवार 4 नवंबर को एक दिन में मध्य प्रदेश में जहां 506 मामले सामने आए तो पंजाब में यह आंकड़ा 262 था। जो यह बताता है कि मध्य प्रदेश में पराली जलाने के मामलों में तेज़ी से उछाल देखा जा रहा है। यह आंकड़े अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की सैटेलाईट इमेजरी से जुटाए गए हैं।
पराली की आग नष्ट कर देती है मि्ट्टी की उर्वरक क्षमता
सीहोर एग्रीकल्चर कॉलेज में प्रोफेसर आरपी सिंह कहते हैं कि
“मध्य प्रदेश में बड़ी मात्रा में किसान पराली जलाते हैं जबकि इससे उनकी ज़मीन को नुकसान पहुंचता है। आग के कारण मिट्टी का तापमान बढ़ जाता है जो उसमें मौजूद ज़रुरी सूक्ष्म जीवों को नष्ट कर देता है। इससे नाईट्रोजन, फॉसफोरस और पोटैशियम जैसे न्यूट्रियेंट्स भी खत्म हो जाते हैं जो अगली फसल के लिए लाभदायक होते हैं।"
मध्य प्रदेश में किसान पराली जलाने के बाद खेतों में बक्खर चलाकर उसे समतल करते हैं और अगली फसल के लिए तैयार करते हैं। बोवनी के समय वो एनपीके यानी नाईट्रोजन, फॉसफोरस और पोटैशियम युक्त खाद का उपयोग करते हैं ताकि रबी की फसल के लिए मिट्टी में ये ज़रुरी तत्व मौजूद रहें।
प्राकृतिक रुप से मिट्टी में मौजूद इन तत्वों को नष्ट करने के बाद एमपी में किसान इस समय सरकारी सोसाईटी से मिलने वाली एनपीके, यूरिया, डीएपी और अन्य खाद के लिए लंबी लाईनों में लगा है।
छतरसिंह के खेत के बगल में ही ज्ञान सिंह का भी खेत है, उन्होंने अपनी धान हारवेस्टर की जगह मज़दूरों से कटवाई और पराली जलाने की अपेक्षा वो रोटोवेटर से उसे क्रश करवाकर मिट्टी में ही मिला देंगे। वो कहते हैं कि
“मैं पिछले 2-3 सालों से यही कर रहा हूं, खर्च थोड़ा ज्यादा है लेकिन यह लाभदायक है।”
आरपी सिंह कहते हैं कि
“मार्केट में ऐसे कई बायो एंज़ाईम्स मौजूद हैं जो पराली को खत्म करने में सहायक हैं, लेकिन ज्यादातर किसानों को इसकी जानकारी नहीं है।”
पूसा डीकंपोजर एक ऐसा ही बायो-एंजाइम है जिसे भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) ने फसल अवशेषों को तोड़ने और मिट्टी के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए विकसित किया है। इसका उपयोग फसल अवशेषों, विशेष रूप से चावल के भूसे को विघटित करने और उसे खाद में बदलने के लिए किया जा सकता है।
आपको बता दें कि नवंबर के माह में ही किसानों को रबी की फसल की बुवाई भी करनी होती है, ऐसे में खरीफ की फसल की कटाई और रबी की बुवाई के बीच किसान को मुश्किल से 10 दिन का ही समय मिलता है। इस बीच उसे अपना खेत दोबारा बुवाई के लिए तैयार करना होता है। बायो एंज़ाईम पराली को मिट्टी में मिलाने में कम से कम 25-30 दिन का समय लेती है।
छतरसिंह हमें बताते है कि मॉनसून के देर से आने की वजह से इस बार धान की बुवाई देर से हुई थी। ऐस में अब धान कटाई और रबी के सीज़न में गेंहूं की बुवाई में समय और घट गया है।
पर्यावरण को नुकसान
इंटरनैशनल जर्नल ऑफ इंवायरमेंटल रीसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में प्रकाशित रीसर्च के मुताबिक फसल अवशेषों को जलाने से वातावरण में वायु प्रदूषक जैसे CO2, CO, NH3, NOX, SOX, गैर-मीथेन हाइड्रोकार्बन (NMHC), वॉलेटाईल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स (VOCs), सेमी वॉलेटाईल ऑर्गेनिक कंपाउंड्स (SVOCs) और पार्टिकुलेट मैटर की मात्रा बढ़ जाती है। जो मिट्टी में ही रह सकते थे, अगर पराली में आग नहीं लगाई जाती। पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) और स्मॉग का बढ़ा स्तर जहां स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा करते हैं तो वहीं इससे उत्सर्जित होने वाली ग्रीन हाउस गैस ग्लोबल वॉर्मिंग में योगदान देती हैं और भूमि की जैव विविधता को खत्म कर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती है।
ऐस में यह कहा जा सकता है कि पराली का धुआं यह नहीं देखता कि व्यक्ति दिल्ली का है या नहीं, वह मध्य प्रदेश के किसी छोटे से गांव में भी समान रुप से क्षति पहुंचाता है।
शाम होते-होते पराली के धुंए से पूरा खजूरी सड़क गांव पट गया था और यहां सांस लेना मुश्किल होने लगा। धुंए की वजह से विज़िबिलिटी भी कम होने लगी। हमने अपनी गाड़ी भोपाल की ओर बढ़ाई तो करीब 30 किलोमीटर तक यह दम घोंटू धुआँ हमारा पीछा करता रहा।
यही वजह है कि शनिवार 9 नवंबर को भोपाल के कई इलाकों में एयर क्वालिटी इंडेक्स (AQI) 300 के पार दर्ज किया गया। टीटी नगर में AQI 316, कलेक्ट्रेट कार्यालय के पास 301 और पर्यावरण परिसर मॉनिटरिंग सेंटर पर AQI 323 दर्ज किया गया है। पीसीबी के रीजनल ऑफिसर बृजेश सक्सेना के मुताबिक हाल ही में हुई एआरआई की स्टडी में भी यह बात सामने आई है कि भोपाल की हवा को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारकों में पराली जलाना भी है।
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