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कूड़े की यात्रा: घरों के फर्श से लैंडफिल के अर्श तक

आमतौर पर हम सभी को साफ़-सफ़ाई पसंद होती है, लेकिन हममें से ज्यादातर लोग नहीं जानते कि साफ़-सफ़ाई के बाद निकला कचरा आखिर कहां जाता है? इस सवाल का जवाब पाने के लिए हमारे लिए ये समझना बेहद जरूरी है कि कचरे को हैंडल करने में कौन कौन से लोग शामिल होते हैं और उन्हें किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है?

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ओखला लैंडफिल साईट।   तस्वीर: पीयूष सिंह 

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आगामी COP29 इस बार बाकू, अजरबैजान में 11 नवंबर से 22 नवंबर के बीच होने वाली है, जहाँ दुनियाभर के नेता पेरिस एग्रीमेंट, ग्रीनिंग ट्रेड, क्लाइमेट एक्शन फंड, ग्रीन एनर्जी तथा जलवायु परिवर्तन से जुड़ी अन्य मुद्दों पर चर्चा करेंगे। क़रीब दो हफ्तों तक चलने वाली इस वैश्विक कांफ्रेंस में जलवायु परिवर्तन के कई पहलुओं को चर्चे में रखी गई है, जिसमें से एक है मानव विकास, बच्चे, युवा, शिक्षा और स्वास्थ। क्योंकि, सम्पूर्ण सामाजिक योगदान के बिना इस विषय का निदान बेहद मुश्किल है। और इसकी एक शुरुआत हो सकती है हमारे घर से निकलने वाले घरेलू कचरे से। 

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जुलाई 2024 में सुप्रीम कोर्ट में एमसीडी द्वारा दायर किए गए एक हलफ़नामे के मुताबिक़ दिल्ली में प्रतिदिन कुल 11,000 मीट्रिक टन ठोस कचरा निकलता है। लेकिन दिल्ली की प्रसंस्करण क्षमता केवल 8,073 मीट्रिक टन प्रतिदिन है, इस वजह से  प्रतिदिन क़रीब 3000 मीट्रिक टन कचरा अनुपचारित रह जाता है। जस्टिस अभय ओक और जस्टिस एजी मसीह की पीठ ने इसे आपातकाल की स्थिति बतायी थी। पीठ ने हलफ़नामे का हवाला देते हुए ये भी बताया था कि एमसीडी के पास 2027 तक इससे निपटने के लिए कोई सुविधा मौजूद नहीं है। 2023 में आयी IQAir की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दिल्ली विश्व की सबसे प्रदूषित शहर शामिल थी।

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निगम की गाड़ी में कूड़े डालते स्थानीय लोग।      तस्वीर: पीयूष सिंह 

घर से निकली पन्नियाँ

दिल्ली में 250 से ज़्यादा वार्ड हैं, जिसे नगर निगम के कुल तीन स्थानीय शहरी निकाय; एमसीडी, एनडीएमसी, और डीसीबी द्वारा संचालित किया जाता है। क्षेत्र के हिसाब से, हर वार्ड को किसी एक निकाय के अन्तर्गत रखा जाता है। घरों में एकत्रित हुए कचरे को रोज़ाना सुबह-सुबह नगर निगम की गाड़ियां डोर—टू-डोर जाकर इकट्ठा करती हैं। इन गाड़ियों में निगम के दो कर्मचारी होते हैं; ड्राइवर और सफ़ाई कर्मचारी। घरों से कचरा उठाने के बाद सफ़ाई कर्मी उस वार्ड में मौजूद स्थानीय कूड़ेदान के पास जाकर एकत्रित किए कचरे की छंटाई करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान सफ़ाई कर्मी ज़्यादातर प्लास्टिक की बोतलें, काँच की बोतलें, कार्टन के डिब्बे, तथा अन्य बेचने लायक चीजों को अलग करते हैं। अलग करने के बाद बचे हुए कचरे को उस वार्ड के लोकल डंपिंग यार्ड में मौजूद मशीन में डाल दिया जाता है और बेचने लायक चीजों को सफ़ाई कर्मी बेच देते हैं। यार्ड की मशीनें जब कचरे से भर जाती हैं तो इसे ट्रकों द्वारा उस निकाय के संबंधित लैंडफिल साईट पर ले जाकर डंप कर दिया जाता है।

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घरों से कूड़ा इकट्ठा करने के बाद उसकी छटनी करते सफ़ाई कर्मी     तस्वीर: पीयूष सिंह

डोर टू डोर के अलावा, हर वार्ड में रोज़ाना निगम के द्वारा दूसरी गाड़ियों को सड़क के किनारे पड़े कूड़े को उठाकर उस वार्ड में आने वाले लोकल यार्ड की मशीनों में डम्प कर दिया जाता है। इस दौरान सफ़ाई कर्मी थोड़ी-बहुत छंटनी और कर लेते हैं।

अब तक दिल्ली में मुख्यतः तीन लैंडफिल साईट चल रही हैं; ओखला, ग़ाज़ीपुर और भलस्वा। दो लैंडफिल साईट - ओखला और ग़ाज़ीपुर पर बिजली पैदा करने वाले प्लांट भी लगाये गये हैं जो ठोस कूड़े को प्रोसेस कर बिजली पैदा करते है। दिल्ली सरकार समय-समय पर इन लैंडफिल साइट्स को प्राइवेट एवं पब्लिक कम्पनियाँ को बोली लगाकर चलाने की मान्यता देती है। फ़िलहाल ओखला सैनिटरी लैंडफिल साईट को ग्रीन टेक कंपनी संचालित कर रही है। एमसीडी के मुताबिक़ ओखला लैंडफिल को 2024, भलस्वा को 2025, तथा गाज़ीपुर को 2026 तक साफ़ करने की समय सीमा दी गई है।

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सड़क किनारे से कूड़ा उठाते सफ़ाई कर्मी।    तस्वीर: पीयूष सिंह 

दिल्ली सरकार के अनुसार ओखला में प्रतिदिन 1950 तथा ग़ाज़ीपुर में 1300 मीट्रिक टन कूड़े को प्रोसेस करने की क्षमता है जिससे क्रमश: 23 तथा 12 मेगावाट बिजली पैदा की जाती है। इसके अलावा नरेला-भवाना में भी प्रतिदिन 4000 मीट्रिक टन क्षमता वाला एमएसडब्लू मैनेजमेंट प्लांट लगाया गया है जिसका परिचालन अभी सिर्फ़ 2000 मीट्रिक टन ही है। 

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ओखला लैंडफिल साईट   तस्वीर: पीयूष सिंह 

ओखला लैंडफिल साईट पर प्रोसेसिंग मशीन चलाने वाले शिवम् बताते हैं कि, “यहाँ हम सब सुबह 8 बजे से शाम के 7 बजे तक काम करते हैं। जब ग्रीन टेक को इस साईट का टेंडर मिला था मैं तब से यहां हूँ। पिछले  8-9 महीनों में हम कूड़े के इस पहाड़ को काफ़ी हद तक कम करने में सफल रहे हैं।”

प्राथमिक स्तर पर ही नहीं हो रहा कचरा प्रबंधन 

मुनिरका के डीडीए फ़्लैट्स से कचरा उठाने वाले सफ़ाईकर्मी अवधेश बताते हैं कि, “नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा घरों से कूड़े को गीले सूखे में अलग करके नहीं दिया जाता। सरकारी निर्देशानुसार, निगम की गाड़ियों को सूखा कूड़ा और गीला कूड़ा अलग-अलग कर के देना होता है लेकिन ज़्यादातर लोग ऐसा नहीं करते। इसके कारण मुझे छटनी के दौरान बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, हमेशा कटने-फटने का डर लगा रहता है।” 

“यहाँ तक कि लोग कूड़े को पन्नियों में डाल कर घरों के बाहर छोड़ देते हैं, जिससे कई बार कुत्ते आदि उस कचरे को फैला देते हैं। कई लोग तो अपने घर के कूड़े को निगम की गाड़ियों में डालने का कष्ट भी नहीं उठाते।”, अवधेश ने आगे जोड़ा।

संगम विहार में ड्राइवर का काम करने वाले देवेंद्र जी ने बताया कि “भारत में लोग क्रिकेट के शौक़ीन हैं, कोई अपने छत से तो कोई चलती गाड़ी में कूड़ा फ़ेक देते है। इसकी वजह से कई बार हमें चोट लगती लगती रह जाती है। लोग हमारी न तो इज्जत करते हैं और न ही परवाह। अगर निगम की गाड़ी किसी के घर के सामने कुछ देर खड़ी रह जाए तो लोग गाली-गलौज पर उतर आते हैं।”

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लोकल डंपिंग यार्ड की मशीन में कूड़ा डंप करती निगम की गाड़ी    तस्वीर: पीयूष सिंह

यह स्थिति ना सिर्फ़ दिल्ली के आम इलाक़ों की है बल्कि गेटेड सोसाइटीज में भी ज़्यादातर लोग कचरे और सफ़ाई कर्मियों को लेकर उतने संवेदनशील नहीं हैं, जितने कि होने चाहिए। सफ़ाई कर्मियों की मानें तो पॉश इलाक़ों में रहने वाले लोगों का रवैया भी कोई ज्यादा अच्छा नहीं होता है। वे अपनी गलती के लिए कई बार घरों में काम करने वाली हाउस हेल्पर को ही ज़िम्मेदार ठहरा देते हैं। 

मंडी हाउस में रहने वाले भारत सरकार के रिटायर पदाधिकारी राजू (बदला हुआ नाम) कहते हैं कि, “कचरा अलग करना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है। इस सोसाइटी में ऑफ़िसर्स रहते हैं, हम कूड़े में हाथ थोड़े ही लगायेंगे। ये सब काम हमारे यहाँ मेड करती हैं। हम तो अलग-अलग रखते ही हैं लेकिन निगम की गाड़ियाँ जब आती है तो मेड एक ही पन्नी में सारा कचरा रख कर दे देती है। हालांकि हमने कई उसे कई बार टोका भी है, लेकिन इसमें हम कर ही क्या सकते हैं।”

सामाजिक असुरक्षा से जूझते सफ़ाई कर्मी 

दिल्ली नगर निगम ठोस कचरे को मैनेज करने के लिए अपने हर शहरी स्थानीय निकाय की ज़िम्मेदारी किसी प्राइवेट या पब्लिक कंपनी को टेंडर के रूप में देती है। पर्यावरण को साफ़ रखने की इस पूरी प्रक्रिया में सबसे ज़्यादा ख़तरों का सामना सफ़ाई कर्मियों को ही करना पड़ता है। कचरे को इकट्ठा करने से लेकर कचरे को अलग करने तक का काम ज़्यादातर सफ़ाई कर्मी ही करते हैं, और वो इसके लिए किसी भी तरह के सुरक्षा उपकरणों का इस्तेमाल नहीं करते। हालाँकि, इसका संचालन करने वाली कंपनियां सफाई कर्मियों को साल में दो बार सुरक्षा उपकरण  मुहैया कराती हैं जिसमें मुख्य तौर पर जर्सी, जूते, ग्लव्स, और मास्क होते हैं। सफ़ाई कर्मियों की मानें तो कंपनी द्वारा दिए जाने वाले उपकरणों का इस्तेमाल रोज़ाना कर पाना मुश्किल होता है। एमसीडी में कार्यरत ज़्यादातर सफ़ाई कर्मी कॉंट्रैक्ट बेसिस पे काम कर रहे हैं जिसकी वजह से उन्हें व्यावसायिक के साथ-साथ निजी जीवन में भी परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

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बिना किसी सुरक्षा उपकरण के काम करते सफ़ाई कर्मी   तस्वीर: पीयूष सिंह 

आर के पुरम में कचरा उठाने वाले सफ़ाई कर्मी राकेश जी बताते हैं कि “हमसे हफ़्ते के सातो दिन काम कराया जाता है, छुटियाँ तो बिलकुल भी नहीं है। चाहे 15 अगस्त हो, 26 जनवरी हो या 02 अक्टूबर हो, हमारी कोई छुट्टी नहीं होती।” 

“कॉंट्रैक्ट पे होने के कारण हमारी तनख़ाह अगले महीने की 20 तारीख़ तक होती है। इसकी वजह से बीच के महीनों में हमें कर्ज लेने पड़ जाते हैं, जिस कभी-कभी चुका पाना मुश्किल हो जाता है”। 

कई सफ़ाई कर्मियों ने अपने सुपरवाइजर्स पर साठ-गाँठ का आरोप लगाते हुए ये भी बताया कि वे जो भी बेचने योग्य कचरा इकट्ठा करते हैं, उसे बेहद कम दामों पर ख़रीदा जाता है। वे बताते हैं कि अगर बाज़ार में किसी कबाड़ की क़ीमत 10 रुपये प्रति किलो है तो उसे यहाँ पर सीधे 3 से 4 रुपये प्रति किलो की दर से ख़रीदा जाता है।

ग़ैर सरकारी संस्थाओं की पहल 

लैंडफिल साइट्स पर जब भारी मात्रा में मौजूद ठोस कचरा सड़ने लगता है, तो उससे मीथेन गैस पैदा होती है, इसका असर हमें सीधे तौर पर जलवायु परिवर्तन के रूप में देखने को मिलता है। कई वैश्विक पर्यावरण एजेंसियों ने ये माना है कि ठोस कचरे का बेहतर प्रसंस्करण करने से हम तेज़ी से हो रहे जलवायु परिवर्तन को रोकने में कामयाब हो सकते हैं। बढ़ते तापमान, भुस्खलन और शीतलहर जैसी तमाम चरम मौसमी घटनाओं का कारण कहीं न कहीं पर्यावरण को दूषित करना है। इस वर्ष हमने दिल्ली के मुंगेशपुर इलाक़े में तापमान को रिकॉर्ड तोड़ 52.3 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ते देखा है।

पर्यावरण को जलवायु परिवर्तन से बचाने का सबसे बेहतर तरीक़ा है कि हम साफ़-सफ़ाई को लेकर जागरूक रहें और कम से कम कचरे को उत्पन्न करें। क्योंकि कचरा पर्यावरण को नुकसान पहुंचाता है, जोकि आखिरकार जलवायु परिवर्तन की वजह भी बनता है। इसी सिलसिले में दिल्ली में काम कर रही संस्था चिंतन एनवायरनमेंटल रिसर्च एण्ड एक्शन ग्रुप ने अनोखा कदम उठाया है। चिंतन ने कई इलाक़ों में डोर-टू-डोर वेस्ट कलेक्शन की शुरुआत की है, सदस्यता के लिए सुविधा शुल्क के रूप में 100 रुपये मासिक की न्यूनतम राशि ली जाती है। सदस्यता लेने वाले हर घर से सुबह-सुबह चिंतन द्वारा नियुक्त सफ़ाई कर्मी सूखे और गीले कूड़े को अलग-अलग इकट्ठा करते हैं। गीले कूड़े को उस इलाक़े के सरकारी कूड़ेदान में डाल दिया जाता है या फिर कई जगह पर कम्पोस्ट बनाने में भी उपयोग किया जाता है। सूखे कूड़े को चिंतन द्वारा संचालित एमआरएफ (मटेरियल रिकवरी फैसिलिटी) में लाकर अलग-अलग किया जाता है। घरों से कचरा उठाने से लेकर एमआरएफ में छटाईं करने तक, चिंतन ने उन्हीं लोगों को काम पर रखा है जो पहले कचरा बीनने का काम करते थे और उन्हें उचित पैसे तथा सम्मान नहीं मिलता था।

चिंतन में ग्रीन लिवलीहुड प्रोग्राम मैनेजर प्रगुण बताते हैं कि, “जीरो वेस्ट इनिशिएटिव को सफल बनाने में डोर टू डोर कलेक्शन का बहुत बड़ा योगदान रहा है। चाणक्यपुरी और रविन्द्र नगर में आने वाली कई कॉलोनीज़ में कंपोस्टिंग यूनिट भी लगाए गए हैं जिससे गीले कूड़े को वहीं पे कम्पोस्ट बनने के लिए डाल दिया जाता है। एमआरएफ में छाँटे गए रीसायकल होने लायक कचरे को ज़्यादा मात्रा में इकट्ठा होने के बाद रीसायकल करने वाली कंपनी को दे दिया जाता है। चिंतन ने हमेशा से ये कोशिश की है कि इस पूरे क्रम में काम करने वाले लोगों को हमारे समाज में सम्मान से देखा जाए।”

चिंतन अभी चिप्स और कुरकुरे के प्लास्टिक का इस्तेमाल कर के मल्टी लेवल प्लास्टिक के बोर्ड्स तैयार कर रही है, जिसे कई घरेलू कामों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। अभी हम लोग पुराने और फटे कपड़े तथा जूते को ठीक करने के लिए वर्कशॉप देने की तैयारी कर रहे हैं जिससे ज़रूरतमंद की मदद हो पाए।”

अब तक चिंतन द्वारा कुल 9 एमआरएफ का संचालन किया जा रहा है, जिसमें 8 छोटे तथा 1 बड़ा एमआरएफ है। जखीरा में स्थित चिंतन की एमआरएफ में रोज़ाना 4.5 से 6 टन कूड़े को प्रोसेस करने की क्षमता है। इस एमआरएफ में इकट्ठा किए हुए ठोस अपशिष्ट को कई लोगों द्वारा एक साथ बड़े स्तर पर हाथों से ही अलग-अलग किया जाता है। इसके अलावा चिंतन ने गीले कचरे से जैविक खाद बनाने का भी एक मॉडल तैयार किया है जिसे मैजिक मिट्टी का नाम दिया गया है। ये खाद एमआरएफ में आने कचरे से बनाई जाती है। इस पहल से मुख्यतः महिला उधमिता को केंद्र में रखा गया है। जखीरा एमआरएफ में कुल 48 कचरा बीनने वालों में से 32 महिला हैं। महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देने में भी चिंतन ने समय-समय पर अन्य संगठनों को प्रशिक्षण देने में अहम भूमिका निभा रहा है। 

चिंतन की ये पहल न केवल पर्यावरण के हितों की रक्षा कर रही है बल्कि समाज में हाशिए पर रहने वाले लोगों को आर्थिक और मानसिक रूप से सशक्त बनाने की की दिशा में भी एक बड़ा कदम है। 

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