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संसद में प्रस्तुत आंकड़ों के अनुसार, पीएम 10 देश के ग्रामीण क्षेत्रों में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारक रहा है। Photo - Ground Report
गूगल के सर्च बार पर अंग्रेज़ी में एयर पॉल्यूशन लिखकर सर्च करते ही दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों के प्रदूषण से संबंधित ख़बरें दिखाई पड़ती है। भारत में वायु प्रदूषण पर होने वाली बात हमें यह महसूस कराने की कोशिश करती है कि यह समस्या शहरों तक सीमित है और ग्रामीण इलाके इससे मुक्त हैं।
मगर पर्यावरण कंसल्टिंग ग्रुप क्लाइमेट ट्रेंड्स ने बताया कि प्रदूषण के सबसे महीन और खतरनाक कारक पीएम 2.5 का स्तर शहरों और गांवों में एक जैसा ही है। इसके लिए ग्रुप द्वारा दो अलग-अलग डाटा सेट का विश्लेषण करके देश भर के शहरी और ग्रामीण क्षेत्र की वायु गुणवत्ता की स्थिति का आकलन किया गया है।
पीएम 2.5 के आकलन के लिए आईआईटी दिल्ली के डॉ साग्निक डे और डॉ दिलीप गांगुली द्वारा विकसित SAANS का डेटा और शहरी और ग्रामीण वर्गीकरण के लिए ग्लोबल ह्यूमन सेटलमेंट लेयर (GHSL) का डेटा विश्लेषित किया गया।
विश्लेषण के अनुसार 2022 में शहरों में पीएम 2.5 का औसत स्तर 46.8 माइक्रोग्राम था। वहीं ग्रामीण इलाकों में भी यह 46.4 माइक्रोग्राम ही था। यानि शहरों और गांवों में प्रदूषण के स्तर में मामूली अंतर ही था।
ग्रामीण इलाके के लिए इन आंकड़ों के मतलब को समझने से पहले यह जान लेते हैं कि गांवों को प्रदूषित कौन कर रहा है?
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इस साल पराली जलाने की 37 हज़ार 602 घटनाएं मध्य प्रदेश में दर्ज की गईं। यह देश की कुल घटनाओं का 44% है। Photo - Ground Report
पराली जलाने में अव्वल मध्य प्रदेश
संसद में पेश किए गए एक आंकड़े के अनुसार देश के ग्रामीण इलाकों में पीएम 10 सबसे बड़ा प्रदूषण कारक रहा है। दरअसल देश भर में केवल पंजाब, दादर एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव के ग्रामीण इलाकों में ही मॉनीटरिंग स्टेशन लगाए गए हैं। यहां स्थापित कुल 26 गांव के 2019 से 2021 तक के आंकड़े संसद में पेश किए गए थे। इनके अनुसार इन तीन में से प्रत्येक साल में पीएम 10 का स्तर सबसे ज़्यादा रहा है।
इसे और आसान भाषा में समझें तो ग्रामीण इलाकों में धुआं और धूल के कण यहां की हवा को सबसे ज़्यादा प्रदूषित कर रहे हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अनुसार इस साल 15 सितंबर से 10 नवम्बर के बीच देश के 6 राज्यों में पराली जलाने की 17003 घटनाएं देखी गईं। इस दौरान देश में सबसे ज़्यादा पराली पंजाब में (6 हज़ार 611) जलाई गई। वहीं मध्य प्रदेश 5 हज़ार 818 घटनाओं के साथ देश में दूसरे स्थान पर था।
मगर 15 सितंबर से 30 नवंबर के बीच के आंकड़ों में मध्य प्रदेश पराली जलाने के मामले में टॉप पर पहुंच गया। इस साल पराली जलाने की 37 हज़ार 602 घटनाएं मध्य प्रदेश में दर्ज की गईं। यह देश की कुल घटनाओं का 44% है।
यहां यह ध्यान दिला देना ज़रूरी है कि भले ही पराली जलाने से दिल्ली में बढ़ने वाला प्रदूषण नेशनल हेडलाइन हो मगर इसका पहला शिकार उन गांवों के लोग ही बनते हैं जहां यह जलाई जाती हैं।
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धूल और धुंए से दम घोटता परिवहन
रबी और ख़रीफ़ के सीजन के आखिरी दिनों में ही पराली का धुआं भारतीय ग्रामीण इलाकों के लिए संकट बनता है। मगर सड़कों से उड़ने वाली धूल मानसून के अलावा हर सीजन में प्रदूषण का बड़ा कारण बनती है।
आईआईटी दिल्ली और आईआईटी कानपुर के एक शोध के अनुसार भारत के 55% राज्यों में सड़कों से उड़ने वाली धूल विश्व स्वास्थ संगठन के मानकों से ज़्यादा है। देश के बड़े शहरों में पीएम 10 और पीएम 2.5 स्तर के प्रदूषण में सड़कों की धूल का योगदान 30 से 60% तक होता है। हालांकि ग्रामीण इलाकों में इसके चलते होने वाले प्रदूषण पर पर्याप्त अध्ययन उपलब्ध नही हैं।
मगर दिसंबर 2023 में संसद में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए संसदीय पैनल ने ग्रामीण क्षेत्र की सड़कों की खराब हालत पर चिंता ज़ाहिर की थी। पैनल ने रिपोर्ट में कहा कि प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत बनने वाली सड़कों को कम से कम 10 साल तक टिकना चाहिए मगर यह सड़कें एक मानसून सीजन भी नहीं झेल पाती हैं।
गौरतलब है कि साल 2000 में लॉन्च की गई इस योजना के तहत देश भर में 7 लाख किमी से ज़्यादा लंबी सड़क बन चुकी है। वहीं मध्य प्रदेश में इसके तहत 72 972 किमी सड़क बनी है।
एक अन्य शोध में इस बात का ज़िक्र किया गया है कि वाहनों के आवागमन से उड़ने वाली धूल केमिकल रिएक्शन के चलते और खतरनाक हो जाती है। वहीं आईआईटी खड़गपुर के प्रोफ़ेसर जयनारायणन कुट्टीपुरथ मानते हैं कि ग्रामीण इलाकों में परिवहन वायु प्रदूषण के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है।
गौरतलब है कि परिवहन, जीवाश्म ईधन, पावर प्लांट, बायोमास ईधन और बिजली गिरने से नाइट्रिक ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। उनकी सहयोगी मानसी पाठक के साथ किए गए अपने एक अध्ययन में उन्होंने बताया कि देश में 41% नाइट्रोजन डाईऑक्साइड (NO2) प्रदूषण का उत्सर्जन ग्रामीण इलाकों से ही होता है।
देश में होने वाले कुल NO2 उत्सर्जन का 50% हिस्सा औद्योगिक इकाइयों से आता है। आईआईटी खड़गपुर के ये शोधकर्ता गांव से होने वाले NO2 प्रदूषण का मुख्य स्त्रोत परिवहन को बताते हैं। वह कहते हैं कि गांव में 45% NO2 प्रदूषण यातायात से हो रहा है।
अपने शोधपत्र में आईआईटी के प्रोफ़ेसर बताते हैं कि NO2 सल्फर डाई ऑक्साइड (SO2) से 25.25 गुना ज़्यादा खतरनाक है। वातावरण में इसकी मात्रा 53 पीपीबी से ज़्यादा होने पर अस्थमा, ब्रोंकाईटिस और निमोनिया हो सकता है।
मध्य प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के भोपाल के क्षेत्रीय अधिकारी ब्रजेश शर्मा कहते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में खुले में जलने वाला कचरा, सर्दियों में गर्माहट के लिए जलाया जाने वाला आलाव और ईधन के रूप में उपयोग होने वाला बायोमास भी प्रदूषण के प्रमुख स्त्रोत हैं। वह कहते हैं,
“हमारे ग्रामीण इलाकों में प्रदूषण के ये स्त्रोत यहां की जीवन शैली और आर्थिक स्थिति से जुड़े हुए हैं। बहुत से लोग अब भी चूल्हे में ठोस ईधन का इस्तेमाल ही करते हैं।”
एक अनुमान के मुताबिक दुनिया में लगभग 300 करोड़ (3 बिलियन) लोग खाना बनाने के लिए ठोस ईधन का उपयोग करते हैं। वहीं 2011 की जनगणना के अनुसार ग्रामीण इलाकों में रहने वाली 86.5% जनसंख्या ऊर्जा के लिए ठोस इधन पर ही निर्भर है।
हालांकि सरकार का दावा है कि प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के ज़रिए 10.33 करोड़ गैस कनेक्शन दिए गए हैं। संसद में जवाब देते हुए सरकार ने यह भी दावा किया कि इस योजना के चलते लोग ठोस ईधन से एलपीजी की ओर शिफ्ट हुए हैं। मगर अपने दावे के समर्थन में कोई भी आंकड़ा नहीं दिया।
ब्रजेश शर्मा कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों में होने वाले प्रदूषण के लिए यहां स्थापित ईंट भट्टे भी ज़िम्मेदार हैं। गौरतलब है कि दक्षिण एशिया में हर दिन लगभग 300 बिलियन ईंटें रोज़ बनती हैं। इनमें से 75% ईंटों का निर्माण भारत में ही होता है।
यह इंडस्ट्री हर साल लगभग 3 करोड़ (30 मिलियन) टन कोयला और 1 करोड़ (10 मिलियन) बायोमास ईधन का उपयोग करती है। इससे लगभग 6.6-8.4 करोड़ (66-84 मिलियन टन) कार्बन डाई ऑक्साइड और एक लाख टन ब्लैक कार्बन उत्सर्जित होता है।
शर्मा बताते हैं कि मध्य प्रदेश में कुम्हार, अनुसूचित जाति और जनजाति वर्ग को 50 ईंटें बनाने के लिए किसी भी तरह की अनुमति की ज़रूरत नहीं होती। वह कहते हैं कि ईंट भट्टों के लिए चिमनी और ज़िग-ज़ैग पैटर्न अनिवार्य है साथ ही प्रदूषण फैलाने वाले कारकों जैसे पॉलीथिन का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता।
“अगर ऐसा करने की कोई शिकायत हमें मिलती है तो हम कार्रवाई करते हैं।”
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कितना खतरनाक है ग्रामीण इलाके में प्रदूषण?
प्रो कुट्टीपुरथ के रिसर्च पेपर के अनुसार 2016 में दुनिया भर में खराब वायु गुणवत्ता के चलते 42 लाख (4.2 मिलियन) लोगों की मौत हुई है। बीते जुलाई के महीने में संसद में भी सवाल पूछते हुए सरकार से इसके चलते होने वाली मौत का आंकड़ा मांगा गया था। इस पर सरकार ने जवाब देते हुए कहा,
“वायु प्रदूषण के साथ मौत का सीधा संबंध स्थापित करने के लिए कोई निर्णायक डेटा उपलब्ध नहीं है।”
मगर बॉसटन कॉलेज के एक अध्यन के अनुसार 2019 में भारत में वायु प्रदूषण के चलते 16.7 लाख (1.67 मिलियन) लोगों की मौत हुई है। यह इस साल देश में हुई कुल मौत का 17.8% था। वहीं अमेरिका के हेल्थ इफेक्ट इंस्टीट्यूट (HEI) की ‘स्टेट ऑफ़ ग्लोबल एयर’ रिपोर्ट के अनुसार यहां हर साल 5 वर्ष से कम उम्र के 464 बच्चे वायु प्रदूषण से जुड़े हुए कारकों के चलते अपनी जान गवां देते हैं।
वहीं कोलोराडो स्टेट यूनिवर्सिटी और आईआईटी बॉम्बे के शोधकर्ताओं के अनुमान के मुताबिक हर साल पीएम 2.5 के संपर्क में आने से दिल और फेफड़ों की बीमारियों के कारण 10.5 लाख से ज़्यादा लोग समय से पहले मर जाते हैं। इनमें से 69% मौतें गैर-शहरी इलाकों में होती हैं।
यानि ग्रामीण इलाकों में वायु प्रदूषण के कारण हर साल 7 लाख से ज़्यादा लोग समय से पहले मर जाते हैं। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ़ एपिडेमियोलॉजी में प्रकाशित एक अध्ययन में उत्तर भारत में पराली जलाने की घटना और एक्यूट रेस्पीरेट्री इन्फेक्शन (ARI) यानि सांस लेने में होने वाली दिक्कत के केस की तुलना की गई है।
इस अध्ययन में बताया गया कि जिन जिलों में एक दिन में 100 से अधिक पराली जलाने की घटनाएं दर्ज की गईं वहां एआरआई का ख़तरा 3 गुना बढ़ गया। इसका सबसे ज़्यादा असर 5 साल से कम उम्र के बच्चों पर ही पड़ा है।
सरकार क्या कर रही है और क्या नहीं कर रही है?
केंद्र सरकार ने जनवरी 2019 में नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (NCAP) लॉन्च किया था। मगर इस राष्ट्रीय मिशन का लक्ष्य 130 शहरों की हवा को ही सुधारना था। इसके लिए सरकार ने 16,539 करोड़ रुपए आवंटित किए हैं।
भारत में वायु प्रदूषण को मापने के लिए 516 शहरों में वायु प्रदूषण मॉनीटरिंग स्टेशन लगाए गए हैं। इसके लिए कुल 1449 मॉनीटरिंग स्टेशन हैं जिनमें से सिर्फ 26 ग्रामीण इलाकों में स्थापित किए गए हैं। हालांकि सरकार का ग्रामीण इलाको के लिए यह उपेक्षा कोई हैरानी की बात नहीं है। केंद्र सरकार ने सदन में जवाब देते हुए बार-बार यह दोहराया है कि वायु प्रदूषण मुख्यरुप से शहरों की समस्या है।
हालांकि सरकार ने वित्तवर्ष 2022-23 में हर राज्य के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड से 10 ग्रामीण मॉनीटरिंग स्टेशन प्लान करने के लिए कहा था। मगर भोपाल के क्षेत्रीय अधिकारी ने हमें बताया कि भोपाल के ग्रामीण इलाकों में इसे स्थापित करने की कोई योजना नहीं है।
“एक मॉनीटरिंग स्टेशन को 1.5 साल तक चलाने का खर्च 5 करोड़ के आस-पास है मगर हमारे पास ग्रामीण इलाकों में इन्हें स्थापित करने के लिए अभी कोई बजट नहीं है।”
पर्यावरण पत्रकार और मोंगाबे इंडिया के असिस्टेंट एडिटर मनीष चंद्र मिश्रा कहते हैं कि सरकार को प्रदूषण की समस्या को समझने के लिए ग्रामीण इलाकों से आंकड़े एकत्र करने के प्रयास करने चाहिए ताकि पहले समस्या का पता चले और गांवों में भी सही कदम उठाए जा सकें।
वह कहते हैं कि गांवों में ठोस कचरा प्रबंधन का इंतज़ाम होना चाहिए ताकि लोग खुले में कचरा ना जलाएं। पराली जलाने की समस्या के समाधान के लिए पराली का प्रबंधन और लोगों में जागरूकता का प्रयास होना चाहिए। ग्रामीण इलाकों में उज्ज्वला जैसी योजनाएं कारगर तरीके से लागू हो और लोगों तक स्वच्छ ईधन पहुंचाया जाए।
सरकार के पास भले ही गांवों में वायु प्रदूषण से सम्बंधित कोई ठोस योजना न हो मगर पराली जलाने सहित तमाम आंकड़ें यह बताते हैं कि इस ओर ध्यान दिया जाना बेहद ज़रूरी है। इस ओर बढ़ने का सबसे पहला प्रयास तो यही हो सकता है कि वायु प्रदूषण को गांव की भी समस्या समझी जाए।
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