मध्यप्रदेश के निमाड़ क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले खरगोन, बड़वानी और खण्डवा ज़िले प्रदेश के गर्म ज़िले माने जाते हैं. मगर यह क्षेत्र कपास के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है. यहाँ कपास की बोवनी 15 मई से शुरू हो जाती है. खरगोन के किसान इसे ‘गर्मी का कपास’ कहते हैं. यूँ तो यहाँ के किसान गर्म मौसम के अनुकूल हैं मगर बढ़ते तापमान के दुष्प्रभाव से अछूते नही हैं. फ़सल से लेकर किसान तक बढ़ता तापमान उन्हें बुरी तरह से प्रभावित कर रहा है.
काम करने की क्षमता घट रही है
मध्यप्रदेश के इस हिस्से में कपास की बुवाई 15 मई से शुरू हो जाती है. यह खरगोन के अधिकतर हिस्सों में जून के अंत तक और कुछ हिस्सों में जुलाई के पहले हफ्ते तक चलती है. यानि मई और जून के दौरान जब सूरज सर पर होता है तब यह किसान खेतों में बोवाई कर रहे होते हैं. खरगोन के लिक्खी गाँव के रहने वाले महेश पाटीदार के 10 एकड़ खेत में अभी ही बुवाई पूरी हुई है. इस बार इसके लिए उन्हें ज़्यादा मजदूर लगाने पड़े,
“पहले मैं 2 मजदूर लगाता था तो भी काम समय से हो जाता था अब 4 मजदूर लगाने पड़ते हैं. जब हम इतनी गर्मी में काम नहीं कर पाते तो वो कहाँ से कर पाएँगे?”
वह हमें बताते हैं कि पहले वह खेत में सुबह 6 बजे से 2 बजे तक काम कर लेते थे. मगर अब उन्हें 10 बजे ही अपने घर वापस आना पड़ता है. मगर महेश ऐसे अकेले किसान नहीं हैं जिनके काम करने के घंटे कम हो गए हैं. एक शोध के अनुसार यदि उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों का तापमान एक डिग्री सेल्सियस भी बढ़ता है तो इससे दुनिया भर के 800 मिलियन मजदूर प्रभावित होंगे.
बढ़ती फ़सल लागत
दरअसल बढ़ती गर्मी इन किसानों और मज़दूरों के काम करने के घंटे कम कर रही है. फ़सल की लागत बढ़ रही है मगर बाज़ार में दाम कम हो रहा है. बहरामपुरा के संदीप यादव इसे और बेहतर तरीके से समझाते हैं,
“खेत में बीज डालने से पहले उसकी निंदाई-गुड़ाई करवानी होती है. मज़दूर तो रोज़ के हिसाब से पैसे लेते हैं. ऐसे में जितने दिन निंदाई-गुड़ाई चलेगी उतने दिन मज़दूरी देनी पड़ेगी.”
संदीप के अनुसार एक एकड़ खेत में कपास लगाने का अनुमानित खर्च 15000 से 16000 तक आता है. इसमें डीएपी (डाई अमोनियम फास्फेट), यूरिया और बीज का खर्च तो बाज़ार के अनुसार बढ़ रहा है मगर मज़दूरी में बढ़ते खर्च के लिए वह सीधे तौर पर बढ़ते तापमान को दोषी मानते हैं.
गुलाबी इल्ली का बढ़ता ख़तरा
महेश पाटीदार ने अबकी बार कपास की बोवाई 1 जून से शुरू की थी. उनके अनुसार यह 15 दिन की देरी है. वह मानते हैं कि आने वाले दिनों में बोवाई का समय जून 15 तक खिसक जाएगा. उनके अनुसार इससे फ़सल में गुलाबी इल्ली लगने का ख़तरा बढ़ जाता है.
दरअसल खरगोन में कपास की ख़रीदी अक्टूबर के मध्य में ही शुरू हो पाती है. जबकि सितम्बर में कपास में गुलाबी इल्लियों का हमला होने लगता है. कृषि विज्ञान केंद्र खरगोन के निर्देशक डॉ. जीएस कुलमी भी मानते हैं कि इस दौरान जितने ज़्यादा दिनों तक फ़सल खेत में रहेगी उसके इल्लियों से प्रभावित होने का ख़तरा उतना ही ज्यादा हो जाएगा.
इस बारे में संदीप अपना अनुभव बताते हैं. 2019 में उन्होंने 3 एकड़ में देर से कपास की बोवाई की थी जो बाद में गुलाबी इल्ली का शिकार हो गई थी. हालाँकि उस दौरान देर से बोवनी करने का कारण बीज की अनुपलब्धता थी. मगर उनका यह उदाहरण इस फ़सल की देर से होने वाली बोवनी का हाल बयां करता है.
पानी का अनियमित बँटवारा
हसीराम पटेल खरगोन की झिरन्या तहसील के निवासी हैं. वह बढ़ती गर्मी के कारण पानी की अनुपलब्धता को केंद्र में रखकर कहते हैं
“इस ज़िले में जो लोग नर्मदा किनारे रह रहे हैं उन्हें पानी आसानी से मिल जाता है. मगर झिरन्या जैसे पहाड़ी इलाके में यह मुश्किल है.”
वह कहते हैं कि बढ़ती गर्मी के साथ ही फ़सल में लगने वाले पानी की मात्रा भी बढ़ जाती है. ऐसे में यदि बारिश में पर्याप्त पानी नहीं गिरता है तो उनकी फसलों को नुकसान उठाना पड़ता है.
“साल 2022 में गर्मी के कपास के लिए हमने ट्यूबवेल का खूब इस्तेमाल किया मगर बाद में पर्याप्त बारिश न होने के चलते रबी की फसल के लिए हमारे पास पानी नहीं था.”
वह इस क्षेत्र में पानी के अनियमित बंटवारे को भी रेखांकित करते हैं. वह बताते हैं कि छोटे किसानों के पास अपने ट्यूबवेल को गहरा करवाने के लिए आमदनी कम होती है ऐसे में इनका गहरीकरण भी बड़े किसान ही करवा पाते हैं. पानी के संसाधनों तक यह अनियमित पहुँच बढ़ते तापमान के चलते और भी गहरा जाती है इसका असर किसानों को आर्थिक रूप में सबसे ज़्यादा होता है.
भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश है. भारत में 118.81 लाख हेक्टेयर में कपास की खेती होती है. मध्यप्रदेश में कुल 5.47 लाख हेक्टेयर में कपास का उत्पादन होता है. इनमें बुरहानपुर, खरगोन, खण्डवा और बड़वानी ज़िले प्रमुख योगदान देते हैं. मगर बढ़ता हुआ तापमान यहाँ के किसानों के लिए खेती को और मुश्किल बना रहा है. जहाँ एक ओर फ़सल की लागत बढ़ रही है वहीँ फ़सल के दाम उस अनुपात में नहीं बढ़ रहे हैं. जैसा की हमें संदीप यादव ने बताया, मौसम का यह फेर और बाज़ार की यह स्थिती यहाँ के किसानों को कपास की खेती छोड़ने पर मजबूर कर रही है.
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