आमतौर पर लोग अपने पालतू जानवर यानि अपने पेट्स से बेहद प्यार करते हैं और उनका ख्याल रखते हैं। लेकिन जब बात सड़क पर घूमने वाले लावारिस जीवों की आती है तब उनकी परिस्थिति पेट्स से ठीक विपरीत नजर आती है। लेकिन इस विषमता के बीच पश्चिमी राजस्थान (Rajasthan) का एक गांव बीसलपुर (जिली पाली, तहसील बाली) एक मिसाल बन कर सामने आया है।
बीसलपुर (Bisalpur Bali) गांव में 'जीव दया सेवा समिति' नाम की एक संस्था भीषण गर्मी में भी इन जानवरों के आसरे से लेकर इलाज तक का ध्यान रखती है। ग्राउंड रिपोर्ट ने संगठन के एक सदस्य सत्येंद्र शर्मा जी से इस सिलसिले में बात की और जाना उनके काम और अब तक की चुनौतियों के बारे में।
जानवरों के लिए बनाते हैं 'अवाले'
हमसे बातचीत के दौरान सत्येंद्र जी ने बताया कि वे जानवरों के लिए ऐसी व्यवस्था तैयार करते हैं जिससे उन्हें छाया, दाना और पानी तीनों सहजता से उपलब्ध हो सके। इसके लिए सत्येंद्र मध्यम आकार का एक ढांचा बनाते हैं, जो कि चारों तरफ से खुला हुआ होता है। इसकी छत पर एक बड़ा सा सीमेंट का पात्र रखा जाता है, जिसे स्थानीय भाषा में 'कुड़ी' बोलते हैं। छत में पक्षियों के लिए दाना रखा जाता है, और कुड़ी में पानी।
सत्येंद्र ने बताया कि इन ढांचों, और वृक्षों के नजदीक ही वो पशुओं के लिए एक संरचना का निर्माण करते हैं जिसे 'अवाला' कहा जाता है। अवाला 20 फीट लंबा और 5 फीट चौड़ा होता है। अवाला पक्की ईंटों से बनाया जाता है। इन अवालों में पशुओं के लिए पानी भरा जाता है।
एक अवाले के निर्माण में कम से कम 20-25 हजार का खर्च आता है। इसके अलावा साल दर साल इनके रखरखाव का भी ध्यान रखना पड़ता है। सत्येंद्र ने बताया कि लगभग 45 मीटर की परिधि में फैले कई गांवों में उन्होंने ऐसे 7-8 अवाले बनाए हैं।
अवाले के पानी का लगातार रखा जाता है ध्यान
सत्येंद्र बताते हैं कि इन अवालों में रोज का एक टैंकर यानी 5000 लीटर पानी खपता है। एक पानी का टैंकर 400 रुपये का पड़ता है। आमतौर पर कोई न कोई स्थानीय परिवार इन टैंकर का खर्च उठाता है। उसे सत्येंद्र की टीम भामाशाह की पदवी से सम्मानित करती है।
सत्येंद्र का काम पानी भरने तक ही सीमित नहीं रहता है। सत्येंद्र हर 3-4 दिन में अवाला और उसमें भरे पानी की साफ सफाई का ध्यान रखते हैं। सत्येंद्र ने बताया कि इन अवालों के पास वृक्षरोपण किया जाता है, तथा अवाले की ढाल कुछ इस तरह बनाई जाती है कि इससे पानी बह कर व्यर्थ न हो बल्कि पेड़ों में ही जाए।
चींटी से लेकर चिड़िया तक के आहार का रखा जाता है ध्यान
सत्येंद्र ने बताया कि उनकी टीम चींटी से लेकर चिड़िया और पशुओं तक के आहार का ध्यान रखती है। इस पूरे क्षेत्र में कम से कम 250 लावारिस गाय और 70-80 भैंस हैं। इनके लिए रोज की लगभग 4 टन हरी घास लगती है। अप्रैल से जुलाई तक 4 महीनों के बीच ही 8 से 10 लाख का खर्च चारे का आता है।
चिड़ियों के लिए दाने छतों और चबूतरों पर डाले जाते हैं। सत्येंद्र ने बताया कि पक्षी आमतौर पर सर्दी के महीनों में ज्यादा दाना चुगती हैं, उस वक्त चिड़ियों के दानों पर तकरीबन 5 से 6 लाख का खर्च आता है। गर्मियों के दौरान सत्येंद्र पक्षियों के लिए रोज 15 से 20 किलो दाने की व्यवस्था करते हैं।
इन सब के अलावा जीव दया सेवा समिति चींटी के आटे से लेकर कुत्तों की रोटी तक का ध्यान रखती है। समिति का प्रयास रहता है की एक एक जीव को पूरा आहार मिले। इसकी मिसाल के तौर पर सत्येंद्र बताते हैं कि वे बंदरों को मूंगफली, गाजर इत्यादि खिलाते हैं। इनमें से ही एक बंदर है जिसके हाथ नहीं है, लेकिन समिति उसे अपने हाथों से खाना खिलाते हैं।
जानवरों के उपचार की भी है व्यवस्था
सत्येंद्र बताते हैं कि उनकी टीम जानवरों के उपचार का भी ध्यान रखते हैं। अगर कोई जानवर बीमार हुआ तो वे पशु चिकित्सक को ले जा कर उनका इलाज करवाते हैं। कई बार जानवर बुरी तरह घायल हो जाते हैं तब टीम उन्हें गाड़ी में रखकर वेटनरी हॉस्पिटल तक ले जाती है। सत्येंद्र ने बताया कि पिछले वर्ष जब लंपी वायरस फैला हुआ था तब उनकी टीम ने 45 से अधिक गायों की जान बचाई थी। लेकिन इसके बाद भी गाय नहीं बच सकीं थीं, बाद में उनका विधिवत अंतिम संस्कार किया गया था।
पूरा गांव मिलकर सहयोग करता है
सत्येंद्र ने बताया की उनकी संस्था पंजीकृत है, जिसका हर साल ऑडिट होता है। हालिया समय में सत्येंद्र को फण्ड की अधिक समस्या नहीं होती है। उनके क्षेत्र में कई भामाशाह परिवार हैं जो खुद-ब-खुद इसका ध्यान रखते हैं। इसके अलावा सत्येंद्र की संस्था के अध्यक्ष, सचिव, व अन्य कई लोग बंगलौर, सूरत जैसे शहरों में काम करते हैं जो उन्हें आर्थिक सहायता उपलब्ध कराते रहते हैं।
सरकार से अब तक कोई सहयोग नहीं
सत्येंद्र ने बताया कि उन्हें कई बार सरकारी मदद के लिए दरवाजे खटखटाए लेकिन उन्हें मदद नहीं मिली। उन्हें एक बार ट्रेक्टर और टैंकर देने का प्रस्ताव किया गया था, लेकिन उसे रखने के लिए पर्याप्त जमीन उपलब्ध न होने के कारण यह बात अधूरी रह गई। अपने अनुभवों को लेकर सत्येंद्र ने कहा कि,
हमें कई कामों के लिए जमीन की आवश्यकता पड़ती है। खास तौर पर बरसात में पशुओं का चारा और दाना खराब होने से बचाने के लिए एक शेड की जरूरत पड़ती है। हमने इसे लेकर प्रशासन के पास आवेदन दिया है लेकिन काम में कोई प्रगति नहीं हुई। इसके अलावा पूरे क्षेत्र में सिर्फ 1-2 ही पशु चिकित्सक हैं, और उसके मुकाबले पशु बहुत अधिक हैं। कई बार पशु गंभीर रूप से पीड़ित रहता है, लेकिन समय पर चिकित्सा न उपलब्ध होने के कारण कई बार इनकी मृत्यु हो जाती है। लेकिन इन सभी समस्याओं को लेकर सरकार से कोई मदद नहीं मिली है। लेकिन पूरा गांव इस सेवा कार्य में सहयोग करता है।
सरकार से हमारी अपेक्षा है कि हर गांव में एक थोड़ी सी जमीन लावारिस जानवरों के लिए रखी जाएँ। जहां उनके रहने, खाने, और इलाज की उचित व्यवस्था हो, वरना ये जानवर सड़क में घुमते फिरते परेशान होते रहेंगे।
सत्येंद्र ने कहा कि हालांकि इस बार की गर्मी काफी भीषण और अप्रत्याशित थी, लेकिन उनके क्षेत्र का एक भी पशु गर्मी से आहत नहीं हुआ। इसे सत्येंद्र अपने काम की एक सफलता के तौर पर देखते हैं। सत्येंद्र और उनके 8-10 साथी पिछले 4 सालों से इस काम को कर रहे हैं। सत्येंद्र ने जिक्र किया कि संगठन की शुरुआत में उनके पास एक टैंकर के पैसे नहीं थे और उनका सफर यहां तक आ गया है। बीसलपुर मॉडल पूरे देश के लिए जानवरों को लेकर एक बड़ा उदाहरण हो सकता है। यह बताता है कि बिना किसी सरकारी मदद के भी एक ग्राम समुदाय अपने पर्यावरण को सहेज कर रख सकता है।
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