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हम में से कइयों ने किंडर गार्डंस में कोरे मोर (Peacock) के चित्र पर रंग भरे हैं। हम सब ने ये भी सुना ही होगा की मोर हमारा राष्ट्रीय पक्षी है। हमने मोर गीतों में, फिल्मों में देखा है, लेकिन कई लोग हैं जो अभी तक असल जीवन में मोर नहीं देख पाए हैं। इन सब से अलग मध्यप्रदेश के झाबुआ (Jhabua) का एक गांव है करड़ावद जहां बड़ी मात्रा में मोर आते हैं।
करड़ावद के एक किसान हैं नारायण सिंह जिन्होंने अपना जीवन मोरों की सेवा में लगाया है, और अब तक ढाई हजार से अधिक मोरों की जान बचा चुके है। ग्राउंड रिपोर्ट ने उनसे बातचीत की जिसमें उन्होंने मोरों के साथ अपने सफर और इस सफर में आई चुनौतियों को साझा किया। आइये विस्तार से जानते हैं उनके इस सफर के बारे में।
'मोरवाले' के नाम से मशहूर नारायण सिंह
नारायण सिंह जी बताते हैं की वे जब 12 साल के थे तब उन्हें एक घायल मोर मिला था। नारायण ने उनका इलाज कराया और तब से वो लगातार मोरों के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं। नारायण के इस काम में उनका परिवार उन्हें सहयोग देता है।
इसके लिए नारायण को वन विभाग, कलेक्टर, और रेड क्रॉस सोसायटी से कई सम्मान भी मिले हैं। लंबे समय तक नारायण ने मोरों के लिए अकेले संघर्ष किया लेकिन कुछ वर्षों पहले ही उन्होंने पीकॉक वेलफेयर सोसाइटी नाम की संस्था बनाई है।
मोरों के लिए बनाना चाहते हैं शेल्टर हाउस
नारायण का कहना है कि उनके क्षेत्र के 40 से अधिक गांवों में 15,000 से अधिक मोर आते हैं और रहते हैं। लेकिन इस क्षेत्र में मोरों के इलाज के लिए सुविधाएँ इतनी सुलभ नहीं है। ऐसे में नारायण क्षेत्र में मोरों के लिए एक शेल्टर हाउस खोलना चाहते हैं, जहां मोरों के दाना पानी की व्यवस्था होगी और मोरों के लिए एक चिकित्सक भी उपलब्ध होगा।
नारायण बताते हैं की बारिश में अक्सर मोरों को डाला गया दाना बहकर व्यर्थ हो जाता है। इसके लिए वो शेल्टर हाउस में मोरों के दाने के लिए चबूतरे जैसा कुछ बनाना चाहते है। नारायण बताते हैं कि उन्होंने अपनी आधी उम्र इसके लिए खपा दी है, लेकिन अभी तक उन्हें सफलता हाथ नहीं लगी है।
मोरों के लिए दिल्ली भोपाल के कई चक्कर काट चुके हैं नारायण
नारायण बताते हैं कि वे मोरों को लेकर 90 के दशक से लगातार संघर्ष कर रहे हैं। उन्होंने बताया की वे मेनका गांधी (Maneka Gandhi) से 8 बार मिल चुके हैं। बकौल नारायण मेनका गांधी ने उनके प्रयासों की सराहना करते हुए उन्हें इस काम के लिए निजी स्तर पर संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया था। नारायण मोरों के संरक्षण को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री इंद्र कुमार गुजराल और पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (A. P. J. Abdul Kalam) से भी मिल चुके हैं। नारायण ने दिल्ली और भोपाल के कई चक्कर काटे लेकिन उनका काम नहीं हुआ।
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मांगी मदद, मिला आश्वाशन
नारायण सिंह ने बताया की उन्होंने एमपीलैड के तहत मोरों के लिए शेल्टर हाउस की मांग की, जिस पर हामी तो भरी गई लेकिन राशि मंजूर नहीं हुई। नारायण ने बताया की उन्हें 2005 में प्रदेश के मुख्यमंत्री से साढ़े 10 लाख की राशि स्वीकृत हुई थी जो की उन्हें नहीं मिली।
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इसके बाद नारायण को प्रशासन की ओर से ढाई बीघा जमीन मिली। इसके साथ ही प्रशासन ने 13 लाख की धनराशि भी मुहैय्या कराई, जिसमें 3 लाख 39 हजार रुपये नारायण ने अपनी जेब से लगाए। इस पैसे से नारायण ने एक बॉउंड्री वाल और पानी भरने के कई हौदे और कुछ कमरे बनवाए।
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इन सब के बाद भी नारायण को कुछ कमरे और कई व्यवस्थाओं की कमी लगती है, मसलन मोरों के लिए इलाज की सुविधा। नारायण ने इस बावत प्रशासन से से क्षेत्र में मोर अभ्यारण्य बनाने की मांग की। इसके लिए नारायण को वे इलाके चिन्हित करने को कहा गया जहां मोर बड़ी संख्या में आते हैं।
नारायण ने 40 गांव का इलाका चिन्हित करके रिपोर्ट पेश की लेकिन उसके बाद इस पर बात आगे नहीं बढ़ी। नारायण कहते हैं की वे कई अधिकारियों से मिल चुके हैं। हर कोई पहले उन्हें आश्वाशन देता है, फिर उनके काम को लेकर टालमटोल शुरू कर देता है।
अपने खर्च से करते आ रहे हैं मोरों की देखभाल
नारायण बताते हैं की वो खुद ही इतने सारे मोरों के दाना पानी की व्यवस्था करते हैं। नारायण मोरों को मक्का, गेंहूं और चावल दाने में डालते हैं। हर महीने नारायण को 3 से 4 क्विंटल दाने की जरूरत लगती है जिसके लिए उन्हें हर महीने ढाई से तीन हजार के बीच खर्च आता है। इसके अलावा मोरों के इलाज दवा और अन्य खर्च अलग हैं।
अंत में नारायण ने कहा कि, "मुझे मोरों से प्यार है, और मैं मोरों की सेवा को भगवान की सेवा मानता हूं। मेरे जीवन का एक ही सपना है की मेरी मृत्यु से पहले इन मोरों का संरक्षण सुनिश्चित हो जाए।"
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