उत्तराखंड (Uttrakhand) के अल्मोड़ा (Almoda) में एक गांव है चनोला खजूरानी। यहाँ निवासी शंकर सिंह बिष्ट अपनी पढ़ाई छोड़ गांव वापस लौट आए और क्षेत्र के पर्यावरण के लिए काम कर रहे हैं। ग्राउंड रिपोर्ट ने शंकर से बात की और जाना उनके प्रयासों और क्षेत्र की समस्याओं के बारे में।
शंकर ने बताया कि वो जयपुर से ग्रेजुएशन करने के बाद कोविड के समय अपने गांव वापस आ गए थे। यहां आकर उन्होने पर्यावरणीय आपदाओं को सामने से देखा और इससे जुड़ते चले गए। हालांकि उनका दाखिला हेमवती नंदन बहुगुणा यूनिवर्सिटी में हो चुका था लेकिन शंकर ने अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी और पर्यावरण के लिए काम करने लगे।
शंकर पिछले 3-4 सालों से इस क्षेत्र में काम कर रहे हैं। पहले शंकर अकेले ही काम करते थे लेकिन 2 साल पहले उन्होने हिमगिरि ग्रीन फाउंडेशन नाम की एक संस्था रजिस्टर की है। अब उनकी एक छोटी सी टीम है और उनके काम का दायरा भी बढ़ गया है।
विदेशी वृक्ष हैं समस्या की जड़
शंकर ने बातचीत के दौरान बताया कि पहाड़ी क्षेत्रों में पहले मिक्स्ड फारेस्ट हुआ करते थे। लेकिन अंग्रेजों ने यहां इमारती लकड़ियों और रेलवे पटरियों में सहूलियत के लिए यहां पाइन और चीड़ का भारी मात्रा में प्लांटेशन किया। ये पेड़ देसी वृक्षों के मुकाबले बहुत तेजी से बढ़ते हैं इसीलिए अंग्रेजों ने इन्हे चुना। शंकर इसे क्षेत्र के 90 फीसद पर्यावरणीय समस्याओं की जड़ मानते हैं।
शंकर ने बताया कि पाइन (Pine) और चीड़ स्वदेशी वृक्ष नहीं हैं। इनमें जीव अपना आवास नहीं बनाते हैं और चिड़िया घोंसला नहीं देती हैं। इस पेड़ की पत्तियां बहुत गिरती है जो सूखी रहती हैं। इनकी पत्तियों में कम नमी के कारण जल्द ही आग पकड़ती है और वनाग्नि (Wildfire) का रूप धारण कर लेती है।
इसके अलावा इस पेड़ के नीचे घास भी नहीं पनप पाती है। पहाड़ी ढाल होने पर बारिश का पानी घास के न होने से सीधा नीचे चला जाता है। इस वजह से क्षेत्र का ग्राउंड वाटर रिचार्ज नहीं हो पाता है और क्षेत्र में जल संकट की स्थिति भी उत्पन्न होती है। शंकर ने बताया आज उनके क्षेत्र के 80 प्रतिशत नौले (छोटी नदी) और धारें या तो सूख चुकी हैं या सूखने की कगार में हैं।
जंगल की आग के लिए की दिल्ली तक की यात्रा
शंकर और उनकी टीम क्षेत्र में जंगल की आग के लिए बड़ा काम करती है। उन्हें जहां भी मालूम पड़ता है की जंगल में आग लगी है वो अपने दस्ते के साथ पहुँच कर आग बुझाने में लग जाते है। शंकर ने बताया की वो कई बार आग बुझाने में सफल होते हैं और कई बार नहीं भी होते हैं।
इसके अलावा शंकर और उनकी टीम गांव के लोगों को जागरूक भी करती है। वो उनसे कहते हैं की छोटी आग को या हल्की चिंगारी को देखने पर उसे अनदेखा करने के बजाय तुरंत बुझाने का प्रयास करें। इसके साथ ही वे क्षेत्र के लोगों को जंगलों के आस पास ऐसे काम करने से भी मना करते है जिससे आग भड़क सकती हो मसलन धूम्रपान।
शंकर ने अप्रैल 2022 में वनाग्नि को लेकर देहरादून से दिल्ली पदयात्रा भी निकाली थी। शंकर ने बताया की इसके बाद वे पीएमओ के अधिकारियों से मिले। शंकर ने बताया कि उन्होंने एनटीपीसी की टीम को अल्मोड़ा भेजा। एनटीपीसी ने समाधान निकला था कि पाइन की पत्तियों को साफ़ कर के उनसे चारकोल व अन्य चीजें निकालीं जाएंगी। इससे जंगल साफ़ रहेगा और इसी समय नेटिव पौधों का वृक्षारोपण भी किया जाएगा।
एनटीपीसी की टीम ने अल्मोड़ा में दो जगहें शीतलाखेत और चौखटिया चिन्हित कीं। लेकिन उसके बाद प्रक्रिया आगे नहीं बढ़ी। शंकर बतातें हैं की उनकी टीम अभी इसे लेकर लगातार चिट्ठियां लिख रही हैं लेकिन उन्हें कोई जवाब नहीं मिल रहा है।
क्षेत्र से गायब होता जा रहा है यहां का राजकीय वृक्ष
शंकर ने बताया की उत्तराखंड का राजकीय वृक्ष बुरांश अब 1200 मीटर की ऊंचाई से अब लगभग गायब हो चुका है, जो की पहले पाया जाता था। इसके अलावा इस क्षेत्र से काफर, अयांर और उतीस जैसे स्थानीय वृक्ष भी गायब होते जा रहे हैं। अब इस क्षेत्र में सिर्फ चीड़ के जंगल हैं लेकिन उनकी छाया में कोई जंगली जीव नहीं है, और क्षेत्र के जैव विविधता दिन-ब-दिन संकुचित होती जा रही है।
शंकर ने बताया की जहां देसी वृक्षों की ऐसी स्थिति है, इसके बावजूद सरकार ने जोगेश्वर धाम के पास देवदार के जंगलों को काटने का प्रयास किया। शंकर ने बताया की सरकार विकास परियोजनाओं के नाम पर ऐसे 1000 पेंड़ काटने जा रही थी। देवदार के इन पेड़ों का क्षेत्र में आध्यात्मिक महत्व और लोग यहां की लकड़ी तक नहीं उठाते है। शंकर ने बताया की उन्होंने इस बात को लेकर जनता को इकट्ठा किया, और जागेश्वर बचाओ नाम से अभियान शुरू किया। इसके लिए वे सभी लोगों के साथ जंगल के पेड़ों के साथ खड़े हो गए। बाद में सरकार ने आश्वाशन दिया की वे इन पेड़ों को नहीं काटेंगे। इस मुहीम को शंकर अपनी एक बड़ी सफलता के तौर पर देखते हैं।
जल संकट लिए पहाड़ों पर वाटर ट्रेंच
शंकर अपनी टीम के साथ पहाड़ों में ट्रेंच बनाते हैं जिससे वहां बारिश का पानी रुकता है और ग्राउंड वाटर रिचार्ज होता रहता है। इसके अलावा शंकर बताते हैं की लगातार बढ़ते टूरिज्म के चलते उनके इलाके नदियां प्रभावित हो रहीं है। शंकर बताते हैं की आज रामगंगा नदी में कांच और प्लास्टिक भरा पड़ा है। पर्यटक आते हैं और शराब की बोतलें नदी में छोड़ जाते हैं। इससे अब स्थानीय लोग नदी में घुसने से भी हिचकते हैं और नदी की जैव विविधता भी प्रभावित होती है। शंकर अपनी टीम के साथ नदियों की सफाई के कैंप भी लगाते हैं।
क्षेत्र की आर्थिक सुनिश्चितता के लिए धुरफाट मॉडल
शंकर इस क्षेत्र में पलायन को बड़ी समस्या मानते हैं। शंकर बताते हैं की लोग यहां से अपनी आजीविका के लिए बाहर के शहरों में जाते हैं। इससे न सिर्फ पारिवारिक, सामजिक बल्कि क्षेत्र का आर्थिक ढांचा भी प्रभावित होता है। शंकर का कहना है कि जो क्षेत्र पहले आत्मनिर्भर हुआ करता था, अब वो शहरों से आए अनाज पर निर्भर होता जा रहा है।
इस समस्या के इलाज के तौर पर शंकर ने एक धुरफाट मॉडल सोचा है। शंकर बताते हैं कि पुराने दौर में एक व्यक्ति के जीविका के सभी साधन उसके घर के एक निश्चित दायरे में उपलब्ध कराये जाते थे, जिनमें अनाज, दूध मछली इत्यादि होता था। शंकर इसे क्षेत्र में आज की दौर के जरूरतों के अनुसार ट्रांसफॉर्म करके अपने क्षेत्र में लागू कर रहे हैं। इससे क्षेत्र के लोगों को काम मिलेगा, उनकी जरूरतें पूरी होंगी और पलायन थमेगा। शंकर ने बताया की उन्होंने इस मॉडल को एक छोटे क्षेत्र में इम्प्लीमेंट करना चालू भी कर दिया है। शंकर का विश्वास है कि उनका ये प्रयोग सफल रहेगा।
स्कूली बच्चों का दस्ता ग्रीन वारियर
शंकर अपनी टीम के साथ के साथ गांव जाकर देशी वृक्षों का भारी मात्रा में वृक्षारोपण करते हैं। पहाड़ों में ट्रेंच बनाते हैं, नदियां साफ़ करते हैं। शंकर हर रविवार ‘संडे फॉर मदर नेचर’ नाम की मुहीम चलाते हैं। इसमें वो लोगों को जागरूक करते हैं और पर्यावरण से जुड़ी गतिविधियां करते हैं। शंकर ने छोटे स्कूली बच्चों का एक दस्ता 'ग्रीन वारियर' बनाया है जो कि वृक्षारोपण, पौधों की देखभाल, प्लास्टिक और सफाई के काम में उनकी मदद करता है।
हमने जब शंकर से उनके कामों की फंडिंग के बारे में पूछा तो उन्होंने ने बताया की वो श्रम दान पर निर्भर करते हैं। वो लोगों से पर्यावरण के काम के लिए श्रम करने के लिए आग्रह करते हैं। शंकर ने बताया की उन्हें कुछ इक्विपमेंट्स के लिए पैसों की जरूरत पड़ती है तो उसकी व्यवस्था उनकी टीम मिलकर करती है। हालांकि उन्हें फंडिंग की जरूरत पड़ती है, उनके कई कार्यक्रम और कैंप को संसाधनों की कमी से स्थगित भी करना पड़ता है।
शंकर मानते हैं कि पहाड़ के बचे रहने के लिए पहाड़ की संस्कृति और सभ्यता का बचा रहना बहुत जरूरी है। उनके अनुसार हिमालय के सभी घटक हिमालयी सभ्यता में निहित हैं। वह कहते हैं कि उत्तराखंड का पर्यटन ऐसा होना चाहिए जो यहां के पर्यावरण और संस्कृति को दूषित न करे।
भारत के पहाड़ी इलाके अपने साथ बहुत ही खूबसूरत कहानियां और जटिल चुनौतियाँ लेकर चलते हैं। लेकिन उनकी चुनौतियाँ मुख्यधारा की नजरों से नदारद रह जातीं है। जहां एक ओर विकास और पर्यावरण के बीच बैलेंस जरूरी है, वहीं हर पर्यटक के लिए यह समझ भी उतनी ही जरूरी है कि हमारा 'एडवेंचर' पर्यावरण की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
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