"पिछले 5 वर्षों से हम केसर (saffron) को ट्रायल बेस पर लगा रहे थे और 1 साल पहले पूर्ण रूप से इसकी खेती शुरू कर चुके हैं. आप यकीन मानिए परिणाम इतना अच्छा आया कि हमारी प्रोग्रेस को देखते हुए "स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी - यूनिवर्सिटी ऑफ जम्मू" की ओर से हमें 10 लाख रुपए की धनराशि दी गई है. हमारे यहां केसर की पैदावार को देखते हुए जम्मू विश्वविद्यालय के इस विभाग की प्रोफेसर ज्योति ने हमारी बहुत मदद की है. उन्होंने विश्वविद्यालय के पीएचडी स्कॉलर ताहिल भट्टी और एसडीओ, हॉर्टिकल्चर, पुंछ के मोहम्मद फरीद के मार्गदर्शन में हमें रिसर्च के लिए 10 लाख दिए और कहा कि आप यह खोज करें की पुंछ में केसर उत्पादन की और कहां-कहां संभावनाएं हो सकती हैं? इस रिसर्च में हमने यह पाया कि पुंछ में केसर का उत्पादन सुरनकोट, अढ़ाई, फतेहपुर, बायला, मंडी और मेंढ़र के क्षेत्र में भरपूर मात्रा में किया सकता है. यहां का वातावरण और मिट्टी लगभग वैसी ही है, जैसी जम्मू कश्मीर के उन क्षेत्रों में है जहां केसर का उत्पादन होता है." यह कहना है जम्मू संभाग के सीमावर्ती जिला पुंछ के मंडी तहसील स्थित बायला गांव के 35 वर्षीय किसान एजाज़ अहमद का. जो पिछले कुछ वर्षों से परंपरागत खेती से हटकर पुंछ में केसर का उत्पादन करने वाले किसान के रूप में अपनी पहचान बना चुके हैं.
एजाज़ अहमद कहते हैं कि "यहां के किसानों का अधिकतर रुझान मकई जैसे सीजनल खेती पर ही रहा है. परंतु अब धीरे-धीरे उनकी सोच बदल रही है. अब केसर उत्पादन के प्रति उनमें एक नया जुनून पैदा हुआ है. हमने केसर का बीज कश्मीर के पंपोर और किश्तवाड़ जिले से मंगवाया है. अब मेरी यह ख्वाहिश है कि पंपोर और किश्तवाड़ के बाद पुंछ, जम्मू कश्मीर में केसर उत्पादन का तीसरा सबसे बड़ा केंद्र बने." एजाज़ अहमद का कहना है "सरकार इसके उत्पादन में सब्सिडी देने की जगह हमें सुरक्षा प्रदान करे. केसर का बीज अन्य फसलों और सब्ज़ियों की तुलना में महंगा है, लेकिन फिर भी हम किसान उस खर्च को सहन कर सकते हैं. सरकार केवल जंगली जानवरों से फसलों की सुरक्षा का प्रबंध कर दे क्योंकि आये दिन भालू जंगलों से निकल कर खेतों में तैयार फसल को नष्ट कर देते हैं, जिससे किसानों का बहुत नुकसान होता है. इसके लिए सरकार की ओर से यदि फेंसिंग (तारबंदी) की व्यवस्था कर दी जाए तो तैयार फसल को जंगली जानवरों द्वारा नष्ट होने से बचाया जा सकता है."
दरअसल केसर को दुनिया के सबसे महंगे मसालों में एक माना जाता है. इसे कश्मीरी में कोंग, उर्दू में जाफरान तथा हिंदी में केसर के रूप में जाना जाता है. यह एक सुगंधित फूलों का एक छोटा सा हिस्सा होता है. इसका उत्पादन लंबे समय से इस केंद्र शासित प्रदेश के एक निश्चित भौगोलिक क्षेत्र तक ही सीमित रहा है. किश्तवाड़ के कुछ क्षेत्रों में इसका उत्पादन होता है. लेकिन कश्मीर के पम्पोर क्षेत्र को आमतौर पर केसर के सबसे बड़े उत्पादन के रूप में पहचाना जाता है. यहां के उगने वाले केसर की कीमत बहुत अधिक है. जिसे लगभग 3 लाख प्रति किलोग्राम पर बेचा जाता है. एक ग्राम केसर लगभग 160 से 180 फूलों से प्राप्त होता है. वहीं करीब डेढ़ लाख फूलों से एक किलो केसर का उत्पादन होता है.
ऐसे में आसानी से समझा जा सकता है कि इसके लिए किस प्रकार व्यापक परिश्रम की आवश्यकता होती होगी? बात की जाए केसर की खेती की, तो भारत में केसर की खेती जून तथा जुलाई जबकि कुछ क्षेत्रों में अगस्त व सितंबर में शुरू की जाती है. अक्टूबर माह से इसमें फूल आना शुरू हो जाते हैं. भारत के अलावा इसकी खेती मुख्य रूप से स्पेन, इटली, ग्रीस, तुर्की, ईरान और चीन में की जाती है. विश्व के कुल केसर उत्पादन का 80 प्रतिशत अकेले स्पेन और ईरान में होता है. इसका उत्पादन करने वाले किसानों के लिए यह किसी वरदान से कम नहीं है क्योंकि बाजार में इसकी कीमत 3 से 3.5 लाख रुपये प्रति किलोग्राम होती है.
केसर उत्पादन में पुरुषों के साथ साथ महिला किसान भी बढ़ चढ़ कर हिस्सा ले रही हैं. बायला की रहने वाली 35 वर्षीय किसान शमीम अख्तर कहती हैं कि मैं पिछले कुछ वर्षों से केसर की खेती रही हूं, जिसका परिणाम भी मुझे बहुत अच्छा मिल रहा था. परंतु हमारी जमीन से सड़क निकाली गई जिससे मेरी फसल बर्बाद हो गई. परंतु मैं अभी केसर का उत्पादन करना चाहती हूं. मुझे इससे बहुत लगाव हो गया है. लेकिन मेरे पास इतना सामर्थ्य नहीं है कि मैं इसका बीज खरीद सकूं, इसके लिए मैं यह चाहती हूं कि मुझे सरकार की ओर से थोड़ी बहुत आर्थिक सहायता मिल जाए जिससे मुझे इसे उगाने में मदद मिल सके. मंडी तहसील स्थित बायला गांव के ही किसान अब्दुस समद और अब्दुल गनी कहते हैं कि "मंडी में हम इसे मध्य जुलाई में लगा देते हैं और नवंबर के मध्य तक यह पूरी तरह से तैयार हो जाती है." वह बताते हैं कि केसर को अलग-अलग प्रकार की मिट्टी में उगाया जा सकता है. वह मिट्टी जिसमें प्रचुर मात्रा में कैल्शियम कार्बोनेट होता हो वह केसर उत्पादन के लिए एक अति उत्तम मृदा मानी गई है.
हालांकि अब्दुस समद बदलते पर्यावरण से प्रभावित होती कृषि से चिंतित भी नज़र आते हैं. वह बताते हैं कि क्लाइमेट चेंज की वजह से पिछले वर्ष कश्मीर के केसर उत्पादन में कमी आई है. इसके लिए 1000 से 1500 मिमी वर्षा की जरूरत होती है. जो कम हुई है और बर्फ़बारी में असमय हुई है, जिससे मिट्टी पर बुरा प्रभाव पड़ा है और इसका परिणाम है कि केसर का कम उत्पादन हुआ है. हर साल जम्मू कश्मीर में 15 टन तक केसर का उत्पादन होता था, जो अब घटकर 8 से 9 टन ही रह गई है. यह काफी चिंता का विषय है. वह बताते हैं कि कम उत्पादन के बावजूद कश्मीरी केसर बेहद फायदेमंद है. जैसे यह रक्तचाप को कम करने तथा माइग्रेन का इलाज करने आदि में औषधि गुण माना जाता है. वहीं सौंदर्य उत्पाद बनाने में भी इसका प्रयोग किया जाता है. इसीलिए कश्मीर के केसर की बहुत डिमांड होती है.
केंद्र सरकार भी कश्मीरी केसर को लेकर अत्यधिक सतर्क है. इसके लिए 2010-11 में चार वर्षों के लिए राष्ट्रीय कृषि विकास योजना के एक भाग के रूप में राष्ट्रीय केसर मिशन (NSM) शुरू किया गया था. इसका उद्देश्य केसर के अधिक से अधिक उत्पादन को बढ़ावा देकर कश्मीर में रहने वाले लोगों की सामाजिक आर्थिक स्थिति में सुधार लाना था. इससे केसर उत्पादन करने वाले किसानों को बहुत फायदा पहुंचा था. ऐसी और भी कई सरकारी योजनाएं हैं जो केसर उत्पादन का समर्थन करती हैं. परंतु इन योजनाओं का अगर किसानों को तुरंत लाभ मिले तो इसे बड़े पैमाने पर पहुंचाया जा सकता है क्योंकि लोग अब केसर की खेती को लेकर जागरूक भी हो रहे हैं और उत्साहित भी हैं. ऐसे में इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि यदि सरकार, प्रशासन और संबंधित विभाग मिलकर किसानों का हर तरह से सहयोग करें, उन्हें इसके उत्पादन के लिए प्रोत्साहित करे तो पुंछ में भी केसर उत्पादन की असीम संभावनाएं उभर कर सामने आ सकती हैं.
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