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मिलिए उत्तराखंड में शीतलाखेत मॉडल से जंगल की आग बुझाने वाली महिलाओं से

वनाग्नि की खबरों के बीच अल्मोड़ा जिले का शीतलाखेट गांव एक मॉडल बन कर उभरा है, जहां समूचे ग्राम समुदाय ने मिलकर अपने वनों को बचाया है। शीतलखेट की सरकारी सेवा में फार्मसिस्ट गजेंद्र पाठक जी इस क्षेत्र में गांव की महिलाओं के साथ लंबे  समय से कार्य कर रहे हैं।

By Chandrapratap Tiwari
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भारत में फैले विशाल पहाड़ अपनी प्राकृतिक सुंदरता और सांस्कृतिक विरासत के लिए जाने जाते हैं। यह दुनिया भर के लोगों के लिए एक आकर्षण का केंद्र रहे हैं। लेकिन काफी लंबे समय से पहाड़ों से लगातर आपदा और त्रासदियों की खबर आती रही हैं। गर्मियों के दौरान उत्तराखंड के जंगलों में आग लगना आम हो गया है, जिनमें भारी मात्रा में  संपदा का ह्रास होता है। लेकिन इन सब के बीच अल्मोड़ा जिले का शीतलाखेट गांव एक मॉडल बन कर उभरा है, जहां समूचे ग्राम समुदाय ने मिलकर अपने वनों को बचाया है। शीतलखेट की सरकारी सेवा में फार्मसिस्ट गजेंद्र पाठक इस क्षेत्र में गांव की महिलाओं के साथ लंबे  समय से कार्य कर रहे हैं। ग्राउंड रिपोर्ट ने भी इस सिलसिले में गजेंद्र जी और उनके दल की महिलाओं से बात की और जाना उनके अनुभवों के बारे में। 

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इंसानी लापरवाही को चीड़ से ढंका जा रहा है 

गजेंद्र जी ने बताया की वे शीतलाखेट में जंगलों के संरक्षण को लेकर वर्ष 2003-2004 से लगातार काम कर रहे हैं। गजेंद्र का कहना कि आमतौर पर इस समस्या को सही तरीके से समझने कि बजाय सारा दोष चीड़ के वृक्षों पर मढ़ दिया जाता है। जबकि इन घटनाओं का मूल कारण मानवीय लापरवाही, और जिम्मेदारी के अभाव में छुपा हुआ है। जो एक प्राकृतिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र में होनी चाहिए।

gajendra pathak
शीतलखेट की सरकारी सेवा में फार्मसिस्ट गजेंद्र पाठक

गजेंद्र जी इस समस्या के 2 मौलिक कारण पाते हैं। पहला पतझड़ के मौसम में ओण (खेत के किनारे की सूखी कंटीली झाड़ियां) का जलना है। इसमें लोग अपने खेत किनारे पड़ी सूखे ओण जलाते है, और हवा के कारण आग फैलने का खतरा बढ़ जाता है। पतझड़ के समय चीड़ के पत्ते बड़ी तादाद में गिरते हैं, जो इस आग के लिए ईंधन का काम करते हैं। 

इस समस्या में दूसरा बड़ा बिंदु है कि जंगल बहुत विशाल है, और उसकी तुलना में वन विभाग का कोर स्टाफ सीमित और अपर्याप्त है। साथ ही पहाड़ी इलाकों में सीमित कनेक्टिविटी इस अड़चन को बढ़ा देती है। अगर आग को शुरुआत के समय जिसे गजेंद्र जी 'गोल्डन ऑवर' कहते हैं, में काबू नहीं किया गया तो यह विकराल रूप ले सकती है। इसके लिए लोगों में जंगल को लेकर ओनरशिप की भावना का होना बेहद जरूरी है, ताकि दुर्घटना की स्थिति में वे खुद ही इसकी रक्षा करने के लिए आगे आएं। 

1 अप्रैल यानी ओण दिवस 

गजेंद्र ने बताया कि उन्होंने शीतलाखेट के आसपास के सभी गांवों में लोगों को जागरुक करने का प्रयास किया है कि वे अपने औंड़ 31 मार्च के पहले ही सावधानीपूर्वक जला लें। दरअसल अप्रैल महीने से ही चीड़ का पतझड़ शुरू हो जाता है, और यह जून तक चलता है। इसलिए गजेंद्र गाँव वालों से अपील करते हैं कि सारा औंड़ 31 मार्च तक जला लिया जाए। इसके बाद 1 अप्रैल को सारा गांव मिलकर ओण दिवस मनाता है, जिसमे जंगलों के संरक्षण और पर्यावरण पर चर्चा की जाती है। इसके बाद भी यदि किसी की लापरवाही से आग लग भी गई तो गजेंद्र अपने टीम के साथ मिलकर गोल्डन ऑवर में ही आग बुझाने प्रयास करते हैं। 

शीतलाखेट मॉडल की मुख्यपात्र हैं यहां की महिलाएं 

गजेंद्र ने बताया कि आमतौर पर गांव के पुरुष अपने रोजगार के सिलसिले में बाहर चले जाते हैं, और इस तरह की घटनाओं में उनकी मदद मिल पाना मुश्किल हो जाता है। ऐसी स्थिति में घरों में महिलाऐं ही बचती हैं। महिलाऐं अपने जीवन में जंगल का सीधा महत्व समझती हैं, चाहे वो लकड़ी हो, घांस हो, या साफ हवा हो। इन्ही बातों को केंद्र में रखकर गजेंद्र ने गांव की महिलाओं से संवाद स्थापित किया। 

आज की स्थिति यह है कि गजेंद्र का संगठन 'जंगल के दोस्त' में आसपास के गांवों की 350 से अधिक महिलाऐं जुड़ी हुई हैं। हर गांव का एक पृथक महिला मंगल दल है। और एक गांव के दल में हर घर से कोई न कोई महिला जरूर होती है। 

जैसे ही वनाग्नि की सूचना मिलती है, गजेंद्र नजदीकी गाँव के मंगल दल को खबर कर देते हैं। व्हाट्सअप ग्रुप व अन्य प्लेटफॉर्म के जरिये ये खबर पाते ही महिलाऐं खुद-ब-खुद घरों का काम छोड़ कर निकलती हैं और आग बुझाने में लग जाती हैं।

गजेंद्र बताते हैं कि कई महिलाऐं ऐसी हैं जो मोबाइल फोन और तकनीक को लेकर सहज नहीं हैं, लेकिन जैसे ही उन तक सूचना मिलती है वो भी दल के साथ शामिल होकर चल देतीं हैं। इन ऑपरेशन्स में हमें लगभग हर पीढ़ी की महिलाऐं देखने को मिलती हैं। 

गजेंद्र बताते हैं कि वनाग्नि लगने पर अक्सर महिलाओं की टीम वन विभाग से पहले पहुंच जाती हैं। इस साल अब तक यहां 5 बड़ी और 30 से अधिक छोटी आग लग चुकीं हैं, कुछ अवसरों पर ये दल आग बुझाने में नाकाम भी हुए हैं।

हालांकि वन विभाग के लोग गजेंद्र के संपर्क में रहते हैं और उनकी यथा संभव मदद भी करते हैं। लेकिन इस पूरी प्रक्रिया में महिलाऐं मुख्य भूमिका में होती हैं, वन विभाग का अमला सहयोगी भूमिका में।

हाल की एक घटना का उदाहरण देते हुए गजेंद्र ने बताया कि दोपहर 12 बजे की गर्मी में 70 से अधिक महिलाओं की टीम ने मिलकर आग को बुझाया है। जब चारों तरफ से वनाग्नि की खबरें आ रहीं हैं तब शीतलाखेट की महिलाओं ने उनके जंगल के कोर क्षेत्र को पूरी तरह सुरक्षित रखा है। 

जंगल की आग बुझाने वाली रौशनी

रिपोर्टिंग के दौरान हमारी बात स्याही देवी गांव के मंगल दल की सदस्य रौशनी फिरमान जी से हुई। रौशनी जी गजेंद्र के साथ साथ 2003-2004 से ही काम कर रही हैं। जब ऐसी घटनाएं होती हैं तो रौशनी अपने पूरे परिवार के साथ जंगल बचाने के लिए निकल पड़ती हैं। हमसे अपना अनुभव बताते हुए रौशनी जी ने कहा कि,  

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रौशनी फिरमाल (बीच में)

हमें रात के 11-12 बजे भी खबर मिलती है तो पूरे परिवार को लेकर निकल जाते हैं। जंगल से हमें हवा, पत्ती, लकड़ी सब कुछ मिलता है। इसके लिए हमें जब भी सूचना मिलती है कि यहां आग लगी है तो गांव की सभी महिलाएं एक दूसरे से संपर्क करते हुए आगे बढ़ती हैं। हम कभी आग से जंगल को बचाते है कभी खुद को। 

हमने जब पूछा कि आप खुद को कैसे बचातीं है, क्या आप के पास सुरक्षा के लिए किसी तरह के प्रोटेक्टिव गियर्स हैं? इस पर रौशनी जी ने जवाब दिया कि 

जिस पल आग की लपट तेज होती है हम पीछे आ जाते हैं, और जैसे ही लपट थोड़ी कम होती हम उसे वापस बुझाने का प्रयास करते हैं। हम अपनी जान जोखिम में डाल कर जंगल बचाते हैं। सरकार को हमारा बीमा कराना चाहिए। इसके अलावा सरकार को हमारी सुरक्षा के लिए उपकरण और रेत भी देनी चाहिए। लेकिन अभी तक सरकार की ओर से हमें कोई मदद नहीं मिली है। 

भाखड़ा महिला मंगल दल की अध्यक्ष प्रभा परिहार बतातीं हैं कि पहले उनकी सास आग बुझाने जाया करती थीं। पिछले 2-3 सालों से प्रभा भी सक्रिय रूप से इसमें हिस्सा ले रही हैं। इस काम की चुनौतियों का जिक्र करते हुए प्रभा कहतीं हैं कि,

हमें अपने बच्चों को और अपने घर को छोड़ कर जंगल जाना पड़ता है। जिन घरों में एक ही महिला है उन् घरों में समस्याएं बढ़ जातीं हैं। कई बार जानवर आ कर हमारा अनाज खा जातें हैं। लेकिन हम समझते हैं कि अगर यह जंगल नहीं बचा तो शायद कुछ  नहीं बचेगा इसलिए हम अपनी जान पर खेल कर आग बुझाने जाते हैं। लेकिन हम जब बाद में हरे-भरे जंगल को देखते हैं तो हमें ख़ुशी मिलती हैं कि हमारी मेहनत सफल रही है, और हमारे जंगल सुरक्षित हैं।  

हमने जब गजेंद्र जी से जानना चाहा कि उन्हें इसकी प्रेरणा कहां से मिली तो गजेंद्र ने कहा कि,

हमने लंबे समय तक जंगलों को बचाया था और इसे अपनी कुल देवी स्याही देवी को समर्पित किया था। लेकिन 2012 की वनाग्नि में हमारे जंगल जल गए थे। इससे मुझे निराशा हुई कि हमारी पूरी मेहनत एक झटके में ही बर्बाद हो गई। लेकिन मैंने एक दिन एक जले हुए ठूंठ पर कुछ नई कोपलें देखीं। बाद में मैंने जब रिसर्च किया तो पता लगा कि इसे ANR (Assisted natural regeneration) कहते हैं, जिसका तात्पर्य है कि अगर पेड़ की देखभाल की जाए तो वह खुद को वापस जीवित कर सकता है। इससे मुझे अंदाजा लगा कि प्रकृति में अपार क्षमता है। इसके बाद मैंने ANR मॉडल से जंगल पर काम किया और अब पूरा गांव इसकी आग से देखभाल करता है। 

गजेंद्र जी ने बताया की उन्हें सरकार से कोई मदद और अर्थिक सहयोग नहीं मिला है। एक बार सरकार ने इस मॉडल का जिक्र कर के इसे ठंडे बस्ते में छोड़ दिया है। लोगों की सरकार से अपेक्षा है कि सरकार शीतलाखेट की महिलाओं को प्रोत्त्साहन देने के साथ बीमा कराए ताकि इन महिलाओं और उनके परिवार को थोड़ी सुरक्षा मिल सके।

हालांकि दिल्ली की एक संस्था प्लस एप्रोच ने गांव की महिलाओं की शादी, स्वास्थ्य, शिक्षा, कई तरह से मदद की है। प्लस अप्रोच ने इन महिलाओं को प्रोत्साहित और सम्मानित भी किया है।  

पिछले दिनों ही बिनसर जंगलों के पास आग बुझाते वक्त 4 लोग जल गए थे। मई महीने में अल्मोड़ा के जंगल में एक व्यक्ति की जल कर मृत्यु हो गई थी। ऐसे जब कि यह समस्या मुद्द्तों से जस की तस बनी हुई है, तो क्या सरकार शीतलाखेत में भी कुछ अप्रत्याशित घटने के बाद ही ठोस कदम उठाएगी। इसके अलावा उत्तराखंड की वनाग्नि का विमर्श पिरूल और चीड़ के दायरे में ही सीमित रह जाएगा। 

 

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