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GROW-TREES ने शुरु किया खेतों की मेढ़ पर वृक्ष लगाने का काम

आज दुनिया भर में कम होते वन और वनों के लिए उपलब्ध जमीन एक वैश्विक चिंता का विषय बनी हुई है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा और वनीकरण को एक साथ साधने के कई प्रयास किये जा रहे हैं। मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम और हरदा जिले में भी एक ऐसा ही प्रयोग देखने को मिला है।

By Chandrapratap Tiwari
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आज दुनिया भर में कम होते वन और वनों के लिए उपलब्ध जमीन एक वैश्विक चिंता का विषय बनी हुई है। ऐसे में खाद्य सुरक्षा और वनीकरण को एक साथ साधने के कई प्रयास किये जा रहे हैं। मध्यप्रदेश के नर्मदापुरम और हरदा जिले में भी एक ऐसा ही प्रयोग देखने को मिला है। जहां ग्रो-ट्रीज  (GROW-TREES) नाम की एक संस्था स्थानीय किसानों और पर्यावरणीय संस्थाओं की मदद से खेतों की मेड़ों और अनुपयोगी भूमि में वृक्षारोपण कर रही है। आइये जानते हैं इस पहल के बारे में। 

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बढ़ते खेत, घटते वन  

आज की पर्यावरणीय समस्याओं की बुनियाद तभी पड़ गई थी जब मानव कृषि की शुरुआत हुई थी। आज से लगभग दस हजार वर्ष पहले विकास के क्रम में मानव जाति ने शिकार और खाद्य संग्रहण को छोड़कर खाद्य उत्पादन यानि कृषि की शुरुआत की। उसने बस्तियां बसाईं, आबादी बढ़ाई, और जंगलों को काट कर अपने खेत फैलाता गया। इस घटना को कृषि क्रांति कहा जाता है। कई इतिहासकारों ने इसे मानव इतिहास की सबसे बड़ी छलांग, तो कइयों ने इसे सबसे बड़ी गलती माना है। 

आज आलम ये है कि की दुनिया की 38 फीसदी जमीन कृषि और चरगाहों के लिए इस्तेमाल की जा रही है। भारत के संदर्भ में यह विस्तार 60 फीसदी तक पहुंच जाता है। संयुक्त राष्ट्र की एक एजेंसी एफएओ (Food and Agriculture Organization) के मुताबिक दुनिया भर में 90 प्रतिशत वनों की कटाई की वजह कृषि का विस्तार है। इससे न सिर्फ धरती का कार्बन सिंक घटा है बल्कि अन्य विषम पर्यावरणीय स्थितियां भी सामने आ गई हैं। 

दरअसल कृषि भूमि के विस्तार से प्राकृतिक आवास जैसे जंगल और घास के मैदान नष्ट होते हैं, जो प्रमुख कार्बन सिंक होते हैं। यानी ये मिट्टी में और बायोमास के रुप में कार्बन को स्टोर करके रखते हैं। जब जंगलों की कटाई होती है तो इस क्रम में संग्रहीत कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) वायुमंडल में उत्सर्जित हो जाती है, जिससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन बढ़ता है। इसके अलावा, खेती के दौरान मृदा को प्रभावित करने वाली प्रक्रियाएं मिट्टी में कार्बन भंडारण को कम कर सकती हैं, जिससे भूमि की कार्बन सिंक के रूप में कार्य करने की क्षमता घटती है। इसका परिणाम वायुमंडलीय CO2 स्तरों में वृद्धि होता है, जो जलवायु परिवर्तन को बढ़ावा देता है।

इस स्थिति ने आज मानव समाज को एक दोराहे पर ला खड़ा कर दिया है। जहां एक ओर कम होते वन प्रत्यक्ष समस्या हैं। दूसरी और अगर हम कृषि भूमि की वनों के लिए आंशिक प्रतिस्थापना भी करते हैं तो यह वैश्विक खाद्य संकट ला सकता है। 

नर्मदापुरम और हरदा में लगाए गए हैं कुल 5 लाख वृक्ष 

इस दौरान हमारी बात ग्रो-ट्रीज (GROW-TREES) के नर्मदापुरम के प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर संतोष जी से हुई। संतोष ने बताया की उनकी संस्था ने 2022 से अब तक नर्मदापुरम, और हरदा जिले में 5 लाख से अधिक पौधे रोपे हैं। उन्होंने इसमें दोनों जिले के 7 गांवों के 500 किसान परिवारों को शामिल किया है। इस प्रोजेक्ट में 1 हेक्टेयर में तकरीबन 500 पेड़ लगाए जाते हैं, और प्रति वृक्ष 60 से 70 रुपये का खर्च आता है।  

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इस प्रोजेक्ट के लिए नर्मदापुरम और हरदा के गांवों को चुनने के पीछे भी विशेष वजहें हैं। पहली वजह है कि यह पूरा इलाका नर्मदा के किनारों में बसा है, और यहां की काली मिट्टी भी काफी उपजाऊ है। दूसरी वजह है की यहां के किसान काफी समृद्ध हैं। संतोष ने अपने अनुभवों से बताया कि यहां के कई किसानों के पास 200 से 300 एकड़ तक की जमीनें हैं। 

संतोष ने बताया कि उनकी टीम सबसे पहले गांव में किसानों से बात करती है। किसान आम तौर पर इसके लिए तैयार हो जाते हैं क्यूंकि ये वृक्षारोपण खेतों की मेड़ या अनुपयोगी जमीन पर किया जाता है। इसके अलावा इस क्षेत्र में 80 प्रतिशत वृक्षारोपण सागौन (Tectona Grandis) का किया गया है। इसे किसान एक तौर पर भविष्य निधि के रूप में देखते हैं। 

वृक्षारोपण से पहले किसान से एक कंसेंट फॉर्म भरवाया जाता है, जिसमें किसान वृक्षारोपण के बाद पौधे की देखरेख की जिम्मेदारी लेता है। ये कंसेंट फॉर्म प्रति वृक्ष के अनुसार बनाए जाते हैं। 

इसके अलावा वृक्षारोपण से पहले किसानों के भू अभिलेख भी देखे जाते हैं। ऐसी जगह जहां विवाद की गुंजाईश हो उन जमीनों को छोड़ दिया जाता है। 

संतोष ने बताया की आम तौर पर खेत की उन्हीं मेड़ों पर वृक्षारोपण किया जाता है जो किसी दूसरे किसान की खेत की सीमा पर न हों। यदि कोई चौड़ी मेड़ दिखती है जहां वृक्षारोपण की संभावना है, ऐसे में दोनों ओर के किसानों को विश्वास में लेकर कंसेंट भरवाया जाता है और वृक्षारोपण किया जाता है। 

संतोष ने बताया कि नर्मदापुरम और हरदा में वृक्षारोपण का प्रोजेक्ट एचडीएफसी बैंक द्वारा वित्तपोषित है। एक बार वृक्षारोपण के बाद अगले तीन साल तक ग्रो ट्री और रुपाई (Roopai) फाउंडेशन (नर्मदापुरम की स्थानीय संस्था) इसकी देखरेख करते है। 

3 साल तक वृक्षों की देखभाल 

ओम प्रकाश राठौर रुपाई (Roopai) एग्रीफॉरेस्ट के ओर से इस परियोजना में फील्ड ऑफिसर हैं। यह संस्था ग्रो-ट्रीज के साथ मिलकर काम करती है। ओम प्रकाश बताते हैं कि उनके ऊपर तीन गांव के वृक्षारोपण की जिम्मेदारी है। साथ ही उनके सहयोग के लिए 20 जूनियर, और एक विलेज को-ऑर्डिनेटर की व्यवस्था है। ये विलेज को-ऑर्डिनेटर उसी गाँव का एक व्यक्ति होता है, जिसे गांव की बेहतर समझ होती है और वह लगाए गए पौधों की देखरेख करता है। 

ओम प्रकाश ने बताया कि वे एक एकड़ में कम से कम 100 पौधे लगाते हैं। ये वृक्षारोपण बरसात आने से पहले किया जाता है। अगर वृक्षारोपण के बाद अपेक्षित समय पर बारिश न हुई, तो पौधों को बदलकर पुनः वृक्षारोपण किया जाता है। इसके अलावा अधिक बारिश होने पर पौधों के परिवहन में समस्याएं, मसलन खेतों में ट्राली फंसने जैसी समस्याएं भी आती हैं। 

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एक बार वृक्षारोपण के बाद इन पौधों की लगातार निगरानी की जाती है। जो पौधे नहीं पनप पाते हैं उन्हें प्रतिस्थापित किया जाता है। इसके अलावा अन्य तरह की भी समस्याएं आती हैं, मसलन कोई पौधा ट्रैक्टर आदि से कुचल गया, या किसानों द्वारा उसका ध्यान नहीं रखा गया। ऐसे में 3 साल तक, जब तक कि वह पौधा परिपक्व न हो जाए, इनका ध्यान रखा जाता है। ये संस्थाए 80 फीसदी सफल वृक्षारोपण का लक्ष्य लेकर चलती हैं।  

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ग्राउंड रिपोर्ट की बात हरदा के शिवपुर गांव के एक किसान शुभम यादव से हुई। शुभम की जमीन में 2 साल पहले 1500 सागौन का वृक्षारोपण हुआ है। अपनी जमीन में लगे सागौन से शुभम काफी आशान्वित हैं। इन पेड़ों की देखरेख को लेकर अपने अनुभवों को साझा करते हुए शुभम ने कहा कि, 

"हमें बस पेड़ के नीचे घास-झाड़ की सफाई करनी पड़ती है, जिसके लिए हमे एक मजदूर लगता है। बांकी गर्मी और सर्दी में हम नोजल से पौधों में पानी छोड़ देते हैं।"

सागौन ही क्यूं 

सागौन के वृक्षारोपण के कई कारण हैं। इसका प्राथमिक कारण है कि यह क्षेत्र की स्थानीय प्रजाति है। इसके अलावा सागौन के वृक्षारोपण किसानों की खेती प्रभावित नहीं होती है। क्योंकि सागौन की कैनोपी फैली हुई न होकर एकदम सीधी होती है। साथ ही सागौन सर्दियों से ही अपने पत्ते गिराने लगता है। इससे वृक्ष की छाया खेत की फसलों को प्रभावित नहीं करती है। 

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इसके अलावा सागौन की जड़ें गहरी होती हैं जो मिट्टी के कटाव को रोकती हैं। लेकिन सबसे बड़ी वजह सागौन की मार्केट वैल्यू है, जिससे अधिकांश किसान आकर्षित होते हैं। सागौन का पौधा लगभग 3 साल के बाद परिपक्व हो जाता है, जिसके बाद उसे सीमित देखरेख की ही आवश्यकता होती है। 15 सालों बाद सागौन का व्यास यदि 80 से 90 सेंटीमीटर का हो जाता है, तब इसका मूल्य 40 से 45 हजार का होता है। किसानों को ये निवेश का आकर्षक विकल्प लगता है। 

पेड़ के कटने के बाद क्या होगा विकल्प 

हमने संतोष से सवाल किया कि अगर 15 साल बाद एक पेड़ काट दिया जाता है, उसके बाद जमीन एक बार फिर पहले जैसी स्थिति में आ जाएगी। इस पर संतोष ने कहा कि सागौन की जड़ें लगभग 7 से 10 फीट गहरी होती हैं। ऐसी स्थिति में वहां दूसरे पौधे का वृक्षारोपण करना उचित विकल्प नहीं होता, क्यूंकि ये पौधे आपस में प्रर्तिस्पर्धी हो जाते हैं और ये प्रक्रिया बेनतीजा रह जाती है। 

बल्कि अगर सागौन के तने को काट दिया गया है तो भी वह ANR (Assisted Natural Regeneration) के द्वारा खुद को पुनर्जीवित कर लेता है। ANR एक वन प्रबंधन विधि है जो प्राकृतिक पुनर्जीवन की प्रक्रियाओं को तेज करने और संरक्षण में मदद के लिए मानवीय हस्तक्षेप का सहारा लेती है। सागौन की गहरी जड़ें इसे वापस उगने में मदद करती हैं। हालांकि इस में पौधे को पेड़ बनने में पुनः 6-7  साल के चक्र से गुजरना पड़ता है।

वर्तमान समय में दुनिया भर में वनों के रूप में कार्बन सिंक घटता जा रहा है। वहीं दूसरी ओर दुनिया की बढ़ती आबादी से खाद्य संकट की समस्या भी गहराती जा रही है। ऐसे में इन दोनों समस्याओं को साधने में कृषि-वानिकी एक उपयुक्त विकल्प माना जाता है। जहां कृषि वानिकी एक ओर जैव विविधता को बढ़ाती है, मृदा स्वास्थ्य में सुधार करती है, वहीं दूसरी ओर किसानों को आर्थिक लाभ भी प्रदान करती है।

नर्मदापुरम और हरदा में किसानों की सक्रिय भागीदारी और समुचित वित्तीय समर्थन से बड़े पैमाने पर कृषि-वानिकी की गई है। हालांकि इसके दीर्घकालिक प्रभाव और स्थिरता का उचित मूल्यांकन लंबे समय के बाद ही संभव हो पाएगा।

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