अजय कुमार सेन लॉकडाउन के पहले सीहोर-भोपाल के बीच टैक्सी चलाया करते थे। 25 साल तक उन्होंने यह काम किया, उनकी ज़िंदगी अच्छी चल रही थी। वो एक दिन में 2-3 ट्रिप लगा देते थे। कोरोना के बाद उनके अच्छे दिन खत्म हो गए। लॉकडाउन खत्म होने के बाद जब दोबारा सार्वजनिक वाहन शुरू हुए तो, महंगाई की ज़ंजीरों ने उनकी टैक्सी के पहिये बांध दिए। डीज़ल महंगा हुआ, किराया बढ़ा तो यात्री मिलना मुश्किल हो गया। अब अजय की टैक्सी घर खड़ी है। घर चलाने के लिए उन्होंने दीवाली पर रंगोली बेची तो कभी ठेला लगाया। उन्होंने सोचा नहीं था, 25 साल तक एक काम करने के बाद उन्हें अपना रोज़गार बदलना पड़ेगा।
अजय कहते हैं "मैं अपनी टैक्सी को बहुत मिस करता हूँ, दूसरा कोई काम करने में मन भी नहीं लगता। लेकिन हालात खराब हैं, मुझे नहीं लगता कि दोबारा मेरी गाड़ी सड़क पर लौटेगी।"
अजय की तरह ही सभी टैक्सी चालक परेशानियों का सामना कर रहे हैं।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 35 किलोमीटर की दूरी पर है सीहोर शहर। सीहोर से हर दिन हज़ारों लोग नौकरी और पढ़ाई के सिलसिले में भोपाल जाते हैं, कई लोग रोज़ाना अप-डाउन भी करते हैं।
भोपाल जाने के लिए यात्री, प्राइवेट बस और टैक्सी पर ही निर्भर हैं। बस से जहां 35 किलोमीटर का सफर 1 घंटे में पूरा होता है तो वहीं टैक्सी से महज़ 30 मिनट में यह सफर पूरा किया जा सकता है। हालांकि बस की तुलना में टैक्सी का किराया अधिक है। लेकिन यह भोपाल जाने के लिए सबसे तेज़ माध्यम है। समय के पाबंद लोगों के लिए टैक्सी पहली पसंद हुआ करती थी। 100 पार करती डीज़ल की कीमतों ने जहां वाहन चालकों को किराया बढ़ाने पर मजबूर किया है, तो वहीं यात्रियों का बजट भी गड़बड़ा गया।
सीहोर-भोपाल : ग्राउंड रिपोर्ट ने सीहोर टैक्सी संघ के प्रमुख अतीक मियां से बात की और जाना कि आखिर बरसों से दो शहरों को जोड़ने वाली टैक्सी के पहिये थमने क्यों लगे हैं? उन्होंने बताया कि "पहले की तुलना में अब ज़्यादा बसें भोपाल के नादरा बस स्टैंड से संचालित हो रही हैं। बस में किराया टैक्सी से थोड़ा कम है। अभी हम 6 सवारी एक टैक्सी में बैठाते हैं, किराया 100 रुपए प्रति यात्री है। किराया बढ़ाना मजबूरी है क्योंकि डीज़ल के दाम भी आसमान छू रहे हैं। सवारी न मिलने से अब एक ही ट्रिप एक ड्राइवर लगा पता है, जिसमें उसे मुश्किल से 300 रुपए दिन के बचते हैं। इससे ज़्यादा तो मज़दूरी करके व्यक्ति कमा सकता है। कई लोगों ने टैक्सी चलाना छोड़ दिया है। पहले 105 टैक्सियां सड़क पर थी अब केवल 80 टैक्सी ही चल रही हैं, बाकि के पहिये थम चुके हैं। कोई ठेला लगा रहा है, तो कोई ऑटो चला रहा है। लॉकडाउन में तो भूखा मरने तक की नौबत आ गई थी। समाजसेवी समूह 'सत्याग्रह' ने भोजन का प्रबंध किया। प्रशासन की तरफ से आज तक कोई हमारी सुध लेने नहीं आया, न कोई मदद इस दौरान मिली। अभी भी हालात बेहतर नहीं है, अगर ऐसे ही चलता रहा तो आने वाले समय में और टैक्सियों के पहिये थम जाएंगे।
टैक्सी यूनियन अध्यक्ष ने बताया कि पूर्व कलेक्टर ने उन्हें आश्वासन दिया था कि वो टैक्सी चालकों के उत्थान के लिए प्लान बनाएंगे। बाद में उनका तबादला हो गया और फाइल ठंडे बस्ते में चली गई। हमने कई बार कई जगह गुहार लगाई लेकिन हर जगह से निराशा ही हाथ लगी।
17 साल से टैक्सी चला रहे शफ़ीक़ कहते हैं कि लोगों ने निजी वाहन खरीद लिए हैं, अब वो टैक्सी में नहीं चलते। गाड़ी भी पुराना मॉडल है। अगर सरकार मदद करे तो कुछ हो सकता है। प्रशासन की तरफ से आसान ब्याज़ पर नई गाड़ी के लिए कर्ज मिले तो ज़िन्दगी दोबारा पटरी पर लौट आएगी। लेकिन सरकार है की हमारी सुध लेना ही नहीं चाहती।
एक राज्य की राजधानी से महज़ 35 किलोमीटर दूर बसा शहर, जो मुख्यमंत्री का गृह जिला भी है, तमाम समस्याओं का सामना कर रहा है। बरसों से यहां विधायक, नगर पालिका अध्यक्ष सिर्फ रोज़गार दिलाने के वादे पर चुनाव जीतते आए हैं। हालात यह है कि नया तो रोज़गार कोई मिला नहीं, जो था वो भी बर्बाद हो रहा है।
यह कहानी सिर्फ एक शहर की नहीं है, उन तमाम शहरों की है जिन्हें स्मार्ट बनाने की होड़ लगी है। वो कैसे स्मार्ट शहर है जहां सार्वजनिक परिवहन की व्यवस्था ही नहीं है। निजीकरण के दौर में सरकारी परिवहन का आना तो दूर की कौड़ी है, निजी परिवहन के साधन भी तो बर्बादी की कगार पर हैं। अगर सरकार कोई योजना लाकर इस काम में लगे लोगों की आर्थिक मदद करे और नवीन परिवहन प्रणाली से जोड़े तो शहर को सही मायने में स्मार्ट बनाया जा सकता है। यह काम तमाम सरकारों ने दूसरे शहरों में किया भी है। बढ़ते प्रदूषण के बीच ऐसी परिवहन व्यवस्था स्थापित करने की ज़रूरत है जो यात्रियों के लिए सुगम और सस्ती हो, चालकों के लिए फायदेमंद और शहर के लिए आधुनिक और सुरक्षित हो। छोटे शहरों में अभी से पर्यावरण के लिहाज़ से ध्यान देने की ज़रूरत है।
न्यू इंडिया और स्किल इंडिया का सपना संजो रहे भारत के लिए इससे शर्मसार करने वाली कोई बात नहीं होगी कि एक स्किल्ड ड्राइवर को जीविका के लिए ठेला धकाना पड़े।
रिपोर्ट: पल्लव जैन
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