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मध्यप्रदेश का आदिवासी बहुल ज़िला झाबुआ सूखे और इसके कारण होने वाली बदहाली के लिए जाना जाता है. पश्चमी मध्यप्रदेश में आने वाले इस ज़िले के ज़्यादातर किसान पानी की कमी के चलते सिर्फ़ एक फसल ही ले पाते हैं. यहाँ के किसानों के पास ज़मीन कम है जिससे एक फसल के सहारे पूरे साल का खर्च निकालना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में यहाँ कुपोषण, बेरोज़गारी, पलायन और अशिक्षा का दुश्चक्र जन्म लेता है जिसका शिकार यहाँ के जन, जानवर और ज़मीन सभी होते हैं.
झाबुआ का बावड़ी बड़ी गांव
उदय सिंह कालिया बावड़ी बड़ी गाँव में अपने कच्चे मकान में रहते हैं. उनके 3 भाई हैं और परिवार के पास कुल 12 बीघा (7.42 एकड़) ज़मीन है. इसमें से केवल 3 बीघा (1.85 एकड़) ज़मीन ही उदय के हिस्से में आती है. मगर यह ज़मीन अभी उनके किसी काम की नहीं है. “मेरा खेत सूखा पड़ा हुआ है. हमारे पास पानी नहीं है इसलिए मैं केवल बारिश की फसल ही ले पाता हूँ.” निराशा पूर्वक खेत दिखाते हुए उदय कहते हैं. बारिश के सीज़न में उदय अपने खेत में केवल मक्का और तुअर दाल ही बो पाते हैं. इसका भी उत्पादन इतना कम होता है कि सारा आनाज परिवार का पेट भरने में खप जाता है.
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उदय और उनके परिवार के लिए पानी की अनुपलब्धता जीवन का सबसे बड़ा कष्ट है. वो बताते हैं कि उनके गाँव में सिंचाई विभाग का एक सरकारी तालाब तो है फिर भी उन्हें खेती के लिए पानी नहीं मिल रहा है. “सरकार ने तालाब बनाकर छोड़ दिया है. पाईपलाइन के ज़रिये गाँव वालों को पानी पहुँचना था. मगर अब तक ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.” 40 वर्षीय यह आदिवासी किसान कहते हैं.
झाबुआ का जल संकट
झाबुआ में बारिश का हाल ऐसे समझिए कि साल 2021 के मानसून के समय झाबुआ मध्यप्रदेश के प्रतिदिन सबसे कम बारिश होने वाले ज़िलों में शामिल रहा. इस दौरान प्रतिदिन औसतन 10 से 20 मी.मी. बारिश (ग्राउंड वाटर इयर बुक 2021-22, pg. 15) ही दर्ज़ की गई. पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के एक आँकड़ें के अनुसार साल 2021 में जिले में कुल 912.8 मिली मीटर वर्षा ही हुई थी.
केंद्र सरकार द्वारा संचालित जल जीवन मिशन के अंतर्गत हर घर तक पानी पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया था. उदय सिंह बताते हैं कि उनके गाँव में 3 साल पहले नल-जल योजना के अंतर्गत लगी पानी की टंकी और पाइप लगभग 2-3 महीने पानी देने के बाद अब सूखे पड़े हुए हैं. जल शक्ति मंत्रालय की वेबसाईट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार झाबुआ जिले के ग्रामीण इलाकों में कुल 2,08,646 घर हैं जिनमें से अब तक केवल 36.39% (69,739) घरों में ही नलों के कनेक्शन पहुँच पाए हैं.
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देश के अधिकतर ग्रामीण इलाकों की तरह झाबुआ के लोग भी पानी की आपूर्ति के लिए तालाबों पर निर्भर हैं. मगर प्रदेश के इस क्षेत्र में मार्च के महीने से ही तालाबों का पानी गायब होना शुरू हो जाता है. गर्मी का मौसम अपने साथ सूखा, क़र्ज और पलायन का दुष्चक्र साथ-साथ लाता है. हमसे बात करते हुए उदय इस स्थिति की गंभीरता को विस्तार से बताते हैं,
“अभी हमारे यहाँ 70 प्रतिशत लोग बाहर मजदूरी करने गए हुए हैं. यदि घर में 10 लोग हैं तो 2 लोग ही घर में रुकते हैं बाकी सभी को पलायन करके बाहर कमाने जाना पड़ता है.”
कर्ज़ तले दबता किसान
सुनील डामोर (21) अभी कुछ दिनों पहले ही गुजरात के राजकोट से लौटे हैं. वो वहां भवन निर्माण के काम में मज़दूरी कर रहे थे. हमसे बात करते हुए वो कहते हैं, “मजदूरी करने तो जाना ही पड़ता है. यहाँ पानी है नहीं तो घर पर बैठकर भी क्या करेंगे?” इसी तरह उदय की पत्नी कान्ता डामोर (35) ने बताया कि उनके परिवार पर अभी क़रीब 5 लाख का क़र्ज़ है.
“बाकी जगहों में लोग फसल उगाकर अपना क़र्ज़ चुका देते हैं मगर हम ऐसा नहीं कर सकते. फ़सल इतनी कम होती है कि क़र्ज़ चुकाने के लिए पलायन करना ही पड़ता है.” अपनी परेशानियाँ बताते हुए कान्ता कहती हैं.
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उदय के घर से लगभग 700 मीटर की दूरी पर एक हैंडपंप लगा हुआ है. परिवार के सदस्यों और पशुओं की जल आपूर्ति के लिए यही एक मात्र स्रोत है. मगर इस ज़रूरत को पूरा करने के लिए कान्ता को काफी संघर्ष करना पड़ता है. “दिन भर में मुझे 10-12 बार पानी भरने के लिए जाना पड़ता है. जानवरों के लिए भी पानी वहीं से भर कर लाना पड़ता है. इससे मेरे पूरे शरीर में दर्द होने लगता है. अभी डॉक्टर से मैंने दर्द का इंजेक्शन लगवाया है जिसके लिए उसे 300 रूपए देने पड़े.” कान्ता के शरीर का दर्द अब नियमित हो चुका है जिसके चलते महीने या 2 महीने में एक बार इंजेक्शन लगवाना पड़ता है. इसमें जाने वाली रक़म उनके लिए बड़ी है.
सूखे खेत होने के चलते पशुओं के चारे की आपूर्ति भी बाज़ार से खरीद कर करनी पड़ती है. यह यहाँ के आदिवासी किसानों पर अतिरिक्त आर्थिक दबाव डालता है. अपनी गायों को चारा डालते हुए कान्ता कहती हैं, “अभी 2 दिन पहले ही 700 रूपए क्विंटल के हिसाब से 5 क्विंटल भूसा लेकर आए थे. अब ये कल खत्म हो जाएगा. फिर 5% के हिसाब से 10 से 15 हज़ार क़र्ज़ लेना पड़ेगा तब तो भूसा आएगा.” कान्ता का मानना है कि यदि गाँव में पानी पर्याप्त मात्रा में होता तो उनका जीवन बेहतर होता.
“मैं सोचती हूँ कि यदि पानी होता तो मैं सब्ज़ी उगा लेती, जानवरों के लिए चारा उगा लेती और घर आने वाले मेहमानों के लिए भी कुछ उगा लेती”
पानी के लिए जतन
पानी की कमी और समस्या पर सरकारी उपेक्षा ने जहाँ एक ओर निराशा का सामान्यीकरण किया है वहीं दूसरी ओर खुद जतन करके इस समस्या से निकलने का हौसला भी ग्रामीणों को दिया है. बावड़ी बड़ी के लोगों ने साल 2018 में खुद श्रमदान करके एक तालाब का निर्माण किया था. यह श्रमदान आदिवासियों की प्राचीन परम्परा ‘हलमा’ का हिस्सा है.
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हलमा भील आदिवासियों की एक परंपरा है जिसका इस्तेमाल वो किसी समस्या से निपटने के लिए करते हैं. शिवगंगा से जुड़े हुए राजाराम कटारा हमें उदाहरण देकर बताते हैं, “यदि किसी व्यक्ति का घर क्षतिग्रस्त हो जाता है तो वह नोतरा (न्योता) देकर हलमा बुलाता. उसके गाँव के लोग घर बनाने का सारा सामान लेकर आते हैं. वे लोग अपना श्रमदान करके उसका घर बनाते हैं. इसके बदले में कोई भी न तो कोई मज़दूरी लेता है ना ही कुछ और.” स्थानीय संगठन ‘शिवगंगा’ की प्रेरणा से आदिवासी हलमा का इस्तेमाल ‘धरती माता की प्यास बुझाने’ के लिए कर रहे हैं.
“हमने केवल उनके खाने का इंतज़ाम किया था. लगभग 20 दिन के अन्दर हमने तालाब बना लिया था.” तोल्या बाबेरिया (40) हलमा से बने हुए तालाब को दिखाते हुए हमें बताते हैं. गाँव के लोगों के अनुसार बारिश के दौरान इस तालाब में 1 करोड़ लीटर पानी इकठ्ठा हो जाता है. हालाँकि जब हम इस तालाब को देखने गए थे तब वह सूखा हुआ था.
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खेड़ा गाँव के रहने वाले दरियाव सिंह भाभोर (35) ने कक्षा 10 की पढ़ाई भी पूरी नहीं की है. मगर वो ‘ग्राम इंजिनियर’ हैं. भाभोर बताते हैं, “मैंने इंदौर में एक 5 दिवसीय प्रशिक्षण में भाग लिया था. इसमें हमें तालाब, स्टॉप डैम और कंटूर ट्रेंच बनाने का प्रशिक्षण दिया गया था.” इस प्रशिक्षण के बाद ही उन्हें ग्राम इंजिनियर का तमगा दिया गया. दरियाव कहते हैं,
“हमने जो तालाब बनाया उसका पूरा नक्शा मैंने ही बनाया था. नींव कैसी होगी तालाब कैसे बाँधेंगे इन सबकी जानकारी मुझे है.”.
हलमा से बने तालाब
खेड़ा के लोगों ने भी पानी की समस्या से निपटने के लिए साल 2017 में तालाब का निर्माण हलमा के ज़रिए ही किया था. लगभग 35 दिनों तक चले तालाब निर्माण के कार्य में करीब 12 लाख का खर्च आया था. “ये तालाब हमने इतने सस्ते में बना लिया जबकि यही सरकार बनाती तो 1 करोड़ रूपया लगा देती और साल भर में भी तालाब नहीं बनता.” दरियाव सिंह कहते हैं. वो हमें बताते हैं कि जब गाँव के लोगों ने वन विभाग की ज़मीन पर तालाब बनाने का निर्णय लिया था तब वन विभाग ने ऐतराज़ जताया था. “मगर अब वन विभाग के लोग भी कहते हैं कि आप लोग साथ देंगे तभी पानी भी बचेगा और पेड़ भी बचेंगे.”
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गाँव वालों द्वारा बनाए गए इस तालाब में लगभग 24 हज़ार करोड़ लीटर पानी का संचय किया जाता है. मगर दरियाव का मानना है कि यह तालाब भी पानी की समस्या को ख़त्म नहीं कर पाया है. “हमारे गाँव में केवल 2 तालाब हैं. ऐसे कम से कम 10-12 तालाब पूरे गाँव में और होना चाहिए तब तो पानी की समस्या खत्म होगी.” दरियाव कहते हैं कि समय के साथ बोरिंग (ट्यूबवेल) करवाने का चलन बढ़ा है जिससे ग्राउंड वाटर लेवल काफी कम हो गया है. “अब 400 फ़ीट खुदाई करने पर पानी आता है. पहले इतना नहीं करना पड़ता था.” गौरतलब है कि केंद्र सरकार की अमृत सरोवर योजना के अंतर्गत झाबुआ में 137 साइट्स निर्धारित की गई थीं जिनमें से केवल 121 जगहों पर ही काम शुरू हो पाया था. इसमें से भी केवल आधी (60) जगहों पर काम पूरा हो पाया है.
घटता भूमि-जल
झाबुआ में भूमिगत जल स्तर लगातार कम हुआ है. अलीराजपुर में जल एवं जंगल के संरक्षण के लिए कार्य करने वाले राहुल बैनर्जी कहते हैं, “जंगलों में वाटर होल्डिंग की क्षमता होती है जिससे भूमिगत जल स्तर बढ़ता रहता है. मगर इस क्षेत्र में जंगल कट चुके हैं जिसके कारण भूमिगत जल स्तर भी घट गया है.” राहुल बताते हैं कि ब्रिटिश राज के दौरान लकड़ी को कोयले के रूप में इस्तेमाल करने के लिए अंग्रेज़ों ने यहाँ जंगल की कटाई शुरू की थी. आज़ादी के बाद जब झाबुआ आज़ाद भारत का हिस्सा बना तब भी यह कटाई चलती रही जिससे यहाँ के जंगल साफ़ हो गए. राहुल का मनना है कि जल संकट को दूर करने के लिए सरकार गंभीर नहीं हैं यही कारण है कि यह स्थिति अब तक जस की तस बनी हुई है.
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