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NGT (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) क्या है और यह कैसे काम करता है?

पर्यावरण सुरक्षा, वनों एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों को सुनने एवं उसपर निर्णय लेने के लिए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की स्थापना की गई.

By Shishir Agrawal
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What is National Green Tribunal

राष्ट्रिय हरित अधिकरण यानि नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) अलग-अलग कारणों से चर्चा का विषय रहती है. यह कारण हर बार अलग-अलग होते हैं जैसे एनजीटी द्वारा यमुना को दूषित करने के लिए श्री श्री रविशंकर को दोषी बताना हो या फिर उनका पलट कर सारा दोष एनजीटी के सर डाल देना हो. इस लेख में हम समझने की कोशिश करते हैं कि आखिर एनजीटी (National Green Tribunal) है क्या, यह काम कैसे करती है और कौन से ऐसे केस हैं जिस पर इस संस्था ने ऐतिहासिक आदेश दिए. 

एनजीटी (National Green Tribunal) है क्या?

भारत में न्याय हासिल करने के लिए एक तय प्रक्रिया और सेशन से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक अलग-अलग स्तर पर न्यायपालिकाएं हैं. मगर इनकी दिक्कत यह है कि यहाँ पहले से ही बड़ी संख्या में केस पेंडिंग पड़े हुए हैं. लोकसभा में दिए हुए एक जवाब में कानून मंत्री किरण रिजीजू ने बताया कि देश के विभिन्न ज़िला एवं सबऑर्डीनेट कोर्ट में करीब 6 लाख 71 हज़ार 543 मामले पेंडिंग हैं. इसके अलावा विभिन्न हाईकोर्ट्स में इसकी संख्या 2 लाख से भी ज़्यादा है. ऐसे में इन अदालतों में पर्यावरणीय न्याय (environmental justice) हासिल करना कठिन हो जाता है. 

उपरोक्त तथ्य को ध्यान में रखते हुए साल 2010 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एक्ट 2010 के अंतर्गत पर्यावरण सुरक्षा, वनों एवं अन्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण से संबंधित मामलों को सुनने एवं उसपर निर्णय लेने के लिए राष्ट्रिय हरित अधिकरण की स्थापना की गई. सरल शब्दों में कहें तो यह एक ऐसा कोर्ट है जो पर्यावरणीय न्याय दिलाने के लिए बनाया गया है. न्यायाधीशों और वकीलों के अतिरिक्त इसमें ऐसे सदस्य भी होते हैं जो पर्यावरणीय मामलों की जानकारी रखते हैं और विशेषज्ञ कहलाने की क्षमता रखते हैं.

एनजीटी (National Green Tribunal) की सेंट्रल बेंच दिल्ली में स्थित है. इसके अलावा इसकी वेस्ट जोन बेंच पुणे, सेंट्रल जोन बेंच भोपाल, इस्टर्न बेंच कोलकाता और साउदर्न बेंच चेन्नई में स्थित है. 

कुछ प्रमुख केस 

बेट्टा अल्वरेज़ बनाम स्टेट ऑफ़ गोवा

सबसे पहले साल 2012 में यह केस बोम्बे हाईकोर्ट के समक्ष बेट्टा अल्वरेज़ नामक एक विदेशी महिला द्वारा फ़ाइल की गई एक पीआईएल के रूप में आया था. जहाँ से अक्टूबर 2012 में इस रिट पेटीशन को राष्ट्रिय हरित अधिकरण को स्थानांतरित कर दिया गया. पीआईएल में प्रार्थी ने गोवा के कैन्डोलिम के कोस्टल रेगुलेशन ज़ोन में हो रहे अवैध निर्माण की ओर ध्यान दिलाते हुए उसे हटवाने के लिए कोर्ट के हस्तक्षेप की माँग की थी.

बेट्टा के केस को चुनौती देते हुए यह कहा गया कि चूँकि बेट्टा भारतीय नागरिक नहीं है इसलिए संविधान के अनुच्छेद 21 का लाभ उन्हें नहीं दिया जा सकता. इस मामले पर सुनवाई करते हुए ट्रिब्यूनल कोर्ट ने अनुच्छेद 21 में इस्तेमाल किए गए ‘व्यक्ति’ शब्द की संकुचित व्याख्या को मानने से इनकार कर दिया. इस तर्क पर अपना फैसला देते हुए कोर्ट द्वारा एनजीटी एक्ट 2010 के सेक्शन 2(j) की ओर ध्यान दिलाते हुए यह कहा कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह भारतीय नागरिक न भी हो, को पर्यावरण से सम्बंधित मुद्दे को ट्रिब्यूनल के सामने लाने का अधिकार है. 

अल्मित्रा एच पटेल बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया        

अनुच्छेद 32 के तहत अल्मित्र एच पटेल एवं अन्य द्वारा दायर की गई जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए ट्रिब्यूनल ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को ठोस अपशिष्ट प्रबंधन नियम 2016 को सख्ती से लागू करने का आदेश देते हुए ठोस अपशिष्ट को खुले में आग लगाने से रोक लगा दी. इसके साथ ही ट्रिब्यूनल द्वारा कोरियन स्टील निर्माता कंपनी पॉस्को (POSCO) को ओडीशा में 12 मिलियन टन स्टील प्लांट स्थापित करने सम्बन्धी अनुमति को भी ख़ारिज कर दिया. 

सेव मून रीजन फ़ेडरेशन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया

सेव मून रीजन फ़ेडरेशन नामक संस्था ने ब्लैक नेक्ड क्रेन के संरक्षण के लिए अरुणांचल प्रदेश की न्यामजांग चू नदी पर 6400 करोड़ की लागत के हाइड्रो प्रोजेक्ट के ख़िलाफ़ ट्रिब्यूनल का दरवाज़ा खटखटाया. मामले पर सुनवाई करते हुए ट्रिब्यूनल (National Green Tribunal) ने कहा, “यह सच है कि जलविद्युत परियोजनाएँ पर्यावरण के अनुकूल उर्जा के नवीकरणीय स्त्रोत प्रदान करती है. मगर ऐसे विकास ‘सतत विकास’ होने चाहिए जहाँ पर्यावरण को कोई नुकसान न पहुंचे.” 

मामले पर अपना फैसला देते हुए कोर्ट द्वारा इस प्रोजेक्ट के पर्यावरणीय अनुमति को ख़ारिज कर दिया और सम्बंधित कंपनी को पुनः नया प्रस्ताव बनाने एवं उससे सम्बंधित अध्ययन को सार्वजनिक करने का आदेश दिया.       

सांभर साल्ट लेक केस 

आम तौर पर राष्ट्रिय हरित अधिकरण (National Green Tribunal) किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा मामला ट्रिब्यूनल के सामने लाये जाने पर सुनवाई करता है. मगर अन्य कोर्ट की तरह ही एनजीटी स्वतः संज्ञान भी लेती है. साल 2019 का सांभर साल्ट लेक केस भी ऐसा ही एक वाकया है. नवम्बर 2019 में हिन्दुस्तान टाइम्स में छपे एक लेख पर संज्ञान लेते हुए एनजीटी ने राजस्थान के मुख्य सचिव को आवश्यक कार्यवाही की मॉनीटरिंग करने के लिए आदेशित किया था. 

दरअसल नवम्वर 2019 को राजस्थान के जयपुर के अंतर्गत आने वाली सांभर झील में 18 हज़ार प्रवासी पक्षी मृत पाए गए थे. इस मामले पर स्वतः संज्ञान लेते हुए एनजीटी ने मुख्य सचिव को आगे उठाए जाने वाले उपचारात्मक कदम की मॉनीटरिंग करने और इस मॉनीटरिंग की रिपोर्ट 22 जनवरी 2021 से पहले सौंपने का आदेश दिया था.    

श्री श्री रविशंकर एवं यमुना प्रदुषण केस 

साल 2016 में धर्म गुरु श्री श्री रविशंकर की संस्था आर्ट ऑफ़ लीविंग द्वारा वर्ल्ड कल्चरल फेस्टिवल आयोजित किया गया. यह कार्यक्रम दिल्ली में यमुना नदी के किनारे आयोजित किया गया. इस कार्यक्रम के बाद यमुना किनारे स्थित मैदानों (floodplains) को भारी नुकसान पहुँचा था. इस मामले में सुनवाई करते हुए अधिकरण द्वारा श्री श्री रविशंकर पर 5 करोड़ का जुर्माना लगाया था. मामले पर टिप्पणी करते हुए बेंच ने कहा था कि दिल्ली विकास प्राधिकरण परिस्थिति को बनाए रखने के अपने वैधानिक कार्य को करने में विफल रहा है. प्राधिकरण नुकसान का आकलन करके उसकी भरपाई के लिए पारिस्थिक बहाली पर काम करेगा.      

कुछ ज़रुरी सवाल जो आपके मन में होंगे?

एनजीटी के वर्तमान अध्यक्ष कौन है?

6 जुलाई 2018 से जस्टिस आदर्श कुमार गोयल इसके अध्यक्ष हैं. उन्हें 5 वर्ष के लिए इस पद के लिए चुना गया है। जस्टिस गोयल सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड न्यायाधीश हैं।

एनजीटी के अध्यक्ष का चयन कौन करता है?

केंद्र सरकार की अनुशंसा पर चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया एनजीटी के अध्यक्ष को चुनते हैं।

एनजीटी में और कितने सदस्य होते हैं इन्हें कौन चुनता है?

एनजीटी में अध्यक्ष के अलावा न्यायिक सदस्य और विशेषज्ञ सदस्य होते हैं, इनकी संख्या न्यूनतम 10 और अधिकतम 20 हो सकती है। इनका चुनाव केंद्र सरकार द्वारा गठित एक कमीटी करती हैं। किसी भी सदस्य को एक से ज्यादा कार्यकाल नहीं मिलता।

क्या एनजीटी के फैसले को चुनौती दी जा सकती है?

हां, एनजीटी के पास सिविल कोर्ट के समान शक्तियां होती हैं, सुप्रीम कोर्ट में एनजीटी के फैसले को चुनौती दी जा सकती है।

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