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ज़मीन पर टीबी उन्मूलन में जुटी ASHA कार्यकर्ताओं की परेशानियों से आंख मूंदता सिस्टम

भारत के 2025 तक टीबी मुक्त होने के लक्ष्य में आशा कार्यकर्त्ता महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं. वह मरीज़ और सरकारी अस्पताल के बीच की दूरी को कम करने का काम कर रही हैं.

By Shishir Agrawal
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ASHA worker in India

घर-घर जाकर स्वास्थ्य से सम्बंधित आँकड़ों को जुटातीं आशा कार्यकर्ता

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साल 2021 में भारत में टीबी के चलते 4.94 लाख लोगों की मौत हुई थी. इस दौरान प्रति एक लाख में से 316 लोग टीबी के मरीज़ थे. यदि आयु सीमा 55 वर्ष से अधिक कर दी जाए तो ऐसे एक लाख में से 588 लोग टीबी का शिकार थे. यानि वृद्धों में टीबी का औसत के राष्ट्रिय औसत की तुलना में भी अधिक है. झाबुआ जैसे आदिवासी इलाकों में इस तथ्य का अर्थ है कि यह वृद्ध मरीज़ अपनी दवा लेने के लिए भी सरकारी अस्पताल तक नहीं जा सकते. शारीरिक कमज़ोरी उनके और अस्पताल के बीच की दूरी को बड़ा कर देती है. मगर कंकू गामड़ इस दूरी को कम करने का काम करती हैं. 

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कंकू गामड़ झाबुआ ज़िले के छापरी गाँव में रहती हैं. ख़रीफ़ का सीज़न नज़दीक होने के चलते वह अपने 2 बीघा खेत में कपास और मक्का बोने की तैयारी कर रही हैं. मगर जैसे ही उन्हें अपने गाँव के किसी भी टीबी मरीज़ के अस्वस्थ्य होने की खबर मिलेगी उन्हें सब कुछ छोड़कर उसके घर जाना होना. कंकू एक मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता (ASHA) हैं. यह साल 2006 था जब उन्होंने बतौर आशा काम करना शुरू किया. पहले पाँच साल उनके काम के लिए उन्हें कोई भी मानदेय नहीं मिलता था. मगर वह काम करती रहीं. अब लगभग 18 साल बाद स्वास्थ्य से सम्बंधित मामलों के लिए वह गाँव में प्रमुख व्यक्ति बन गई हैं. 

Kanku ASHA worker
कंकू गामड़ बीते 18 सालों से आशा कार्यकर्ता के रूप में कार्य कर रही हैं

मध्यप्रदेश सरकार के अनुसार झाबुआ के रामा ब्लॉक में कुल 256 आशा कार्यकर्ता हैं. वहीँ ज़िले में इनकी कुल संख्या 1626 है. इनका मुख्य काम आंगनवाड़ी, सब सेंटर और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में मौजूद स्वास्थ्य सुविधाओं तक गाँव वालों की पहुँच को सुनिश्चित करना है. इसमें बच्चे की डिलेवरी करवाना एवं जननी सुरक्षा सुनिश्चित करना प्रमुख है. इसके साथ ही वह टीबी के सही इलाज को लेकर जागरूकता फैलाने का भी काम करती हैं. कंकू इसे और विस्तार देते हुए बताती हैं,

“हमें जब किसी व्यक्ति में टीबी के लक्षण का पता चलता है तो शाम को हम उनको एक डिब्बी दे आते हैं. सुबह वह अपने कफ़ का सैंपल इसमें देते हैं जिसे हम सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र देकर आते हैं.”

यहाँ से यह सैंपल नज़दीकी सरकारी अस्पताल जाता है. जाँच के बाद रिपोर्ट सामुदायिक स्वास्थ्य अधिकारी के ज़रिए आशा कार्यकर्ता को दी जाती है. यानि टीबी के सैम्पल से लेकर इलाज तक सभी चरणों में आशा कार्यकर्त्ता मुख्य भूमिका अदा करती हैं. मगर झाबुआ जैसे आदिवासी इलाके में टीबी के मरीजों के बीच काम करना इनके लिए आसान नहीं है. 

रोग और अन्धविश्वास दोनों से पार पाने की ‘आशा’

कंकू अपने गाँव के एक मरीज़ के बारे में बताती हैं. वह कहती हैं कि 2 महीने दवा खाने के बाद जब उनके शरीर में गर्मी बढ़ी तो मरीज़ ने दोबारा बड़वा का रुख किया. कंकू कहती हैं,

“बड़वा से मरीज़ को छुड़ाकर दवा खिलाना बहुत बड़ी चुनौती है. मरीज़ जब दवा खाने लगता है तो बड़वा कहते हैं कि मैं तुमको जंगली दवा दे दूंगा तुम यह दवा मत खाओ.”

यहाँ मरीज़ को दवा खाने के लिए मनाना एक बड़ी चुनौती है. कंकू बताती हैं कि उन्हें मरीजों को लगातार इस बारे में समझाना पड़ता है और बीच-बीच में यह भी देखना पड़ता है कि वह दवा खाना न छोड़ दे. इतने जतन के बाद भी कभी-कभी मरीज़ के परिजन उनसे ही उलझ पड़ते हैं.

“तू बुलावा आवेली ता से लुँगा 5 लाख रुपिया”

कंकू और टीबी मरीजों के बीच होने वाली बातचीत के बारे में बताते हुए वह भीली भाषा में यह कहती हैं. इसका अर्थ है कि यदि किसी महिला का पति सरकारी अस्पताल में टीबी के इलाज के दौरान मर जाता है तो वह महिला कंकू से हर्जाने के रूप में 5 लाख रूपए की मांग करेगी. ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने मरीज़ को सरकारी अस्पताल में इलाज करवाने के लिए कहा है. 

Also Read: दवाओं की कमी, कुपोषण और ग़रीबी, क्या 2025 तक भारत हो पाएगा टीबी मुक्त?

इस प्रकार किसी भी मरीज़ का कोर्स पूरा करवाना एक बड़ी चुनौती है. स्वास्थ्य विभाग से केवल आशा कार्यकर्त्ता ही इसे सुनिश्चित करने के लिए रोज़ कार्य करती हैं. संशोधित राष्ट्रिय टीबी नियंत्रण कार्यक्रम (RNTCP) के तहत टीबी मरीज़ों के इलाज के पूर्ण होने पर आशा कार्यकर्ताओं को 100 से 5000 रूपए तक मानदेय राशि मिलती है.

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गाँव के उपस्वास्थ्य केंद्र से मिलने वाली दवाओं के साथ ही अन्य जानकारियों को टीबी मरीजों तक पहुँचाने का ज़िम्मा भी आशाओं का ही होता है

झाबुआ के टीबी उन्मूलन कार्यक्रम के प्रमुख डॉ. फैसल पटेल ने बताया कि एक मरीज़ के पॉजिटिव पाए जाने पर आशा को 500 रूपए मिलते हैं एवं उसका कोर्स पूरा हो जाने पर 500 रूपए और मिलते हैं. इस तरह एक मरीज़ का पूरा इलाज होने की दशा में ही कंकू को 1000 रूपए का मानदेय मिलता है. मगर कंकू के अनुसार टीबी मरीज़ के इलाज की कुल कोर्स अवधि में जो भाग-दौड़ वह करती हैं उस लिहाज़ से यह मानदेय ऊंट के मुंह में जीरा जैसा है. 

गौरतलब है कि टीबी के नए मरीज़ों (category 1) के 6 से 7 महीने के कोर्स के दौरान आशा कार्यकर्ताओं को कुल 42 बार मरीज़ के घर जाकर संपर्क करना होता है. इसके बाद ही उन्हें 1000 रूपए बतौर मानदेय मिलते हैं.

पोषण और जागरूकता सुनिश्चित करतीं 'आशा'

कुपोषण भारत में 55 प्रतिशत टीबी मरीजों के लिए समस्या है. यानि पोषण पूर्ण न होने के कारण इस रोग के शिकार होने की सम्भावना बढ़ जाती है. विकास संवाद नामक समाज सेवी संस्था मध्यप्रदेश के शिवपुरी ज़िले में पोषण सुनिश्चित करने का काम कर रही है. विकास संवाद की आरती बताती हैं,

"हम यहाँ पोषण के ज़रिए टीबी उन्मूलन पर कार्य कर रहे हैं."

इस प्रयास के तहत वह टीबी मरीजों को पोषण वाटिका और मुर्गी पालन करने के लिए प्रेरित करती हैं. आरती बताती हैं कि उनके इस कार्य में आशा कार्यकर्ता उनका सहयोग करती हैं,    

"आशा कार्यकर्ता टीबी मरीजों को मुर्गी पालन और पोषण वाटिका लगाने में मदद करती हैं. जो उनके पोषण को पूर्ण करने में मदद करता है."

आरती के अनुसार टीबी के लिए गाँव में जागरूकता कैम्प आयोजित करने में भी आशा महती भूमिका निभाती हैं. चूँकि यह कार्यकर्ता गाँव के लोगों से लगातार संपर्क में होती हैं अतः ऐसे कैंप में ज़्यादा लोगों को भागेदारी भी आशाओं के प्रयास से हो पाती है.     

बिना बीमा की स्वास्थ्य कार्यकर्ता 

कंकू की ही तरह काशू परमार रुपारेल गाँव में आशा कार्यकर्त्ता (ASHA workers) हैं. वह बीते 10 सालों से यह काम कर रही हैं. उनके कार्यक्षेत्र में 3 फलिये शामिल हैं. फलिया इस आदिवासी क्षेत्र में बसाहट का एक हिस्सा होता है जिसमें 50 से 60 घर आते हैं. इस तरह ग्राम पंचायत के क़रीब 150 से भी ज़्यादा परिवारों को स्वास्थ्य सुविधाएँ मुहैय्या करवाना उनकी ज़िम्मेदारी है. मगर खुद उनके पास ही किसी भी तरह का कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है.

“बच्चे से लेकर बूढ़ों तक का ख्याल हम रखते हैं मगर हमारा ख्याल किसी को नहीं आता. सरकार ने हमारा आज तक कोई बीमा भी नहीं करवाया.”        

ASHA worker in tribal india
काशू परमार कहती हैं कि टीबी मरीजों के लगातार संपर्क में रहने के चलते आशाओं के संक्रमित होने की सम्भावना बढ़ जाती है

हालाँकि भारत सरकार द्वारा सितम्बर 2018 में आशा बेनिफिट पैकेज को मंज़ूरी दी गई थी. इस पैकेज के तहत इन्हें प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना और प्रधानमंत्री जीवन ज्योति बीमा योजना में शामिल किए जाने की बात कही गई थी. सरकार के अनुसार प्रधानमंत्री सुरक्षा बीमा योजना के तहत 9 लाख 57 हज़ार 303 आशा एवं आशा फैसिलिटेटर्स तक लाभ पहुंचाने का अनुमान था. वहीँ प्रधानमंत्री जीवन ज्योति योजना के लिए यह अनुमान 10 लाख 63 हज़ार 670 था. 

मगर काशू ने आज तक आशा बेनिफिट पैकेज का नाम नहीं सुना. जबकि उनका मानना है कि टीबी के मरीज़ से लगातार संपर्क करने के कारण उनके भी संक्रमित होने की सम्भावना होती है. ऐसे में आशाओं के लिए स्वास्थ्य बीमा और भी ज़रूरी हो जाता है. 

दिसंबर 2023 में भी संसद में दिए एक जवाब में सरकार ने आशाओं को मिलने वाले लाभों में इस योजना को दोहराया था. मगर अब तक कितनी आशाओं को इसका लाभ मिल चुका है इसका कोई भी आँकड़ा सार्वजानिक नहीं है.  

बदलते मौसम का प्रभाव

बीता अप्रैल साल 1940 के बाद सबसे ज़्यादा गर्म अप्रैल था. मई को लेकर यह आशंका लगाईं गई थी कि इस महीने में 8 से 11 दिन हीटवेव्स चल सकती हैं. मौसम के लगातार गर्म होने का सीधा असर इन आशा कार्यकर्ताओं पर पड़ता है. कंकू आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता से अपनी तुलना करते हुए कहती हैं,

“आंगनवाड़ी कार्यकर्त्ता को एक जगह बैठना होता है. हमें पूरा दिन दौड़ना पड़ता है.” 

कंकू की ही तरह काशू भी मानती हैं कि उनके लिए इन महीनों में काम करना साल दर साल मुश्किल होता जा रहा है. काशू लगभग 5 बीघा ज़मीन पर खेती करती हैं. मार्च के महीने में जब ख़रीफ़ की फ़सल कटने लगती है तब उनके लिए आशा कार्यकर्त्ता का काम करना मुश्किल हो जाता है. 

“अब मार्च में भी तेज़ धूप होने लगी है. इस दौरान कटाई के बाद 10 बजे भी काम के लिए निकले तो 1 से 2 घंटे ही काम हो पाता है.”

मगर काशू तो शाम में भी रोगियों के घर जाकर उनका हाल जान सकती हैं और बाकी कम कर सकती हैं? मगर उनकी लैंगिक पहचान इसके आड़े आ जाती है. वह बताती हैं कि शाम होते ही घरेलू काम बढ़ जाते हैं जिनके चलते उन्हें दोपहर में ही आशा कार्यकर्त्ता का काम करना पड़ता है. 

कंकू के अनुसार तबियत ख़राब होने पर भी वह काम करती हैं. एक टीबी मरीज़ की कहानी बताते हुए वह कहती हैं,

“एक मरीज़ ने दवा खाने से मना कर दिया. मैं जब उसके घर जाती तो वह अपने खेत में छुप जाता था. बीते साल इसी महीने (मई) मुझे बुखार था फिर भी मैं रोज़ उसके घर गई और उसको मनाया.”

लम्बे समय से चल रही स्थाईकरण की माँग

कंकू जैसी आशा कार्यकर्ता ग्रामीण भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था की रीढ़ हैं. एक अनुमान के मुताबिक कोरोना महामारी के दौरान क़रीब एक मिलियन आशा कार्यकर्ताओं ने बतौर ‘कोविड वारियर’ अपना योगदान दिया था. कंकू अपने गाँव को टीबी मुक्त करने के लिए लगातार प्रयासरत हैं. वह कहती हैं,

“हम खुद चाहते हैं कि हमारा गाँव टीबी मुक्त हो जाए. इससे मरीज़ के परिवार पर बहुत असर पड़ता है.”

आशा बेनिफिट के तहत ही केंद्र सरकार ने आशा कार्यकर्ताओं को मिलने वाला मासिक मानदेय 1000 से बढ़ाकर 2000 रूपए कर दिया था. कंकू को अप्रैल 2023 से लेकर मार्च 2024 तक कुल 2 लाख 9 हज़ार 730 रूपए बतौर मानदेय मिल चुके हैं. इसमें मासिक मानदेय सहित विभिन्न गत्विधियों को पूरा करने पर मिलने वला मानदेय भी शामिल है. यह आँकड़ा भले ही बड़ा लगे मगर इस साल मार्च के महीने में उन्हें केवल 8035 रूपए ही मिले हैं. यानि कंकू की मासिक आमदनी निश्चित नहीं है. कंकू चाहती हैं कि उन्हें सरकार द्वारा एक स्थाई नौकरी दे दी जाए. साथ ही उनको सरकार द्वारा स्वास्थ्य से सम्बंधित बीमा भी दिया जाना चाहिए.  

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