सितम्बर 2020 में बिहार विधानसभा चुनाव के ठीक पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मत्स्य सम्पदा योजना (PMMSY) का शुभारम्भ किया था। इस दौरान अपने वर्चुअल संबोधन में उन्होने कहा था कि इस योजना का लक्ष्य यही है कि ज़्यादा से ज़्यादा युवाओं को मछलीपालन के सेक्टर में उत्पादन से लेकर वैल्यू एडिशन के काम में जोड़ा जाए। बेहद सरल शब्दों में समझें तो इस योजना का लक्ष्य मछलीपालकों की आमदनी में बढ़ोतरी करना था।
सरकार ने पांच सालों में (2020-2025) इस योजना के ज़़रिए 20 हज़ार 50 करोड़ रुपए मछुआरों पर खर्च करने का लक्ष्य रखा। सरकार और भाजपा की ओर से इस बात का प्रचार भी ज़ोरों शोरों से हुआ कि मत्स्यपालन क्षेत्र की यह अब तक की सबसे बड़ी योजना है। तत्कालीन केंद्रीय मंत्री गिरीराज सिंह के शब्दों में
“यह योजना विभिन्न हस्तक्षेपों के ज़रिए, मतस्य पालन क्षेत्र की कठिनाइयों को दूर कर मछुआरों की आय दोगुनी करने पर केन्द्रित है.”
योजना के चार वर्ष गुज़र चुके है, लोकसभा चुनावों का ऐलान हो चुका है। तो हमने इस योजना के दावों की ज़मीनी पड़ताल के लिए चुना झीलों के शहर भोपाल के मछुआरों को।
योजना का लब्बोलुआब
कोस्टल एरिया में फिशिंग करने वाले मछुआरों के उत्थान के अलावा यह योजना इन-लैंड फिशिंग (झीलों और तालाबों) में मछली पालन करने वालों की ज़िंदगी में भी चमत्कारी बदलाव के दावों से भरी पड़ी है। इसमें मछलियों के परिवहन, प्रबंधन, जलाशयों के संवर्धन, बाज़ार का निर्माण, पारंपरिक मछुआरों को नेट और नौका प्रदान करने जैसे कई कार्य शामिल हैं। लेकिन भोपाल के मछुआरों से बात कर पता चलता है कि न उन्हें नौका मिली, न राम।
शहर की शाहपुरा झील में 1980 से मछली पालन कर रहे 60 वर्षीय भगवान दास बेहद गुस्से में बताते हैं,
मैं 40 साल से यह कम कर रहा हूँ. तब हमारा भोई समाज जैसा था (आर्थिक दृष्टि से) अब भी वैसा ही है. वो तो मुझे कोई और काम करना आता नहीं है वरना मछलीपालन कब का छोड़ चुका होता.
योजना के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि, हर साल योजनाओं में खूब पैसा आता है मगर हम तक कुछ भी नहीं पहुँचता. हमने उनसे और ज़ोर देकर पूछा कि क्या उनको इस योजना का भी कोई लाभ नहीं मिला? इस पर वह सिर्फ़ इतना कहते हैं,
लाभ मिला होता तो ऐसे बैठे होते?
शाहपुरा इलाके में ही मछलीपालन करने वाले सोनू बाथम (30) कहते हैं कि बीते 5 सालों में उनका काम और ज्यादा कठिन हुआ है, वो मानते हैं कि जलाशय में बढ़ रहे प्रदूषण की वजह से मछलियों की ग्रोथ कम हो रही है।
आपको बता दें, भोपाल में 12 में से 9 वॉटर बॉडीज़ पॉल्यूटेड हैं। एनजीटी ने वॉटर बॉडीज़ में मिल रहे अनट्रीटेड सीवेज वेस्ट और बायमैडिकल वेस्ट के कारण पिछले वर्ष सितंबर भोपाल मुनिसिपल कॉर्पोरेशन पर 121 करोड़ रुपए का जुर्माना लगाया था।
सफाई और गहरीकरण न होना
भोपाल की शाहपुरा झील में सीवेज से दूषित होता पानी एक बड़ी समस्या है. सोनू के अनुसार इसकी गहराई भी पहले की तुलना में कम हुई है. वह कहते हैं कि प्रशासन को इसका गहरीकरण करवाना चाहिए था मगर ऐसा नहीं हुआ है. अभी हर रोज़ यहाँ के मछुआरे ही मज़दूरो की मदद से झील की सफाई करवाते हैं। इस काम का जिम्मा भगवानदास के पास ही है. वह कहते हैं,
“अगर 2 साल हम सफाई न करें तो यह तालाब ख़त्म हो जाएगा.”
मगर यह सफाई इन मछुआरों पर आर्थिक बोझ भी डालती है. हर रोज़ सफाई का काम करने वाले 10 से 20 मजदूरों का भुगतान उन्हें अपनी जेब से ही करना पड़ता है. वह कहते हैं कि बारिश के दौरान यह खर्च 20 हज़ार तक बढ़ जाता है क्योंकि उस दौरान बारिश में बहकर आए कचरे की सफाई के लिए ज़्यादा मज़दूरों की ज़रुरत पड़ती है।
बाज़ार की दिक्कत
सरकारी आँकड़ों के अनुसार मतस्या संपदा योजना के तहत देश भर में अब तक 6 हज़ार 733 मछली बाज़ार निर्मित किए जा चुके हैं. मगर भोपाल के मछुआरों के लिए बेहतर बाज़ार न होना एक बड़ा मसला है. यहाँ जो मछली बाज़ार हैं वहां छोटे मछुआरों को उचित दाम नहीं मिलता. सोनू कहते हैं कि
“बड़े व्यापारी हमसे जो मछली 60 से 70 रूपए में लेते हैं उसे बाज़ार में 150 से 200 रूपए में बेंच देते हैं. किसानों की तरह हमको भी हमारी मेहनत का कोई भी भाव नहीं मिलता.”
भोजपाल मत्स्य सोसाइटी (सहकारी समिति) के सदस्य और भोपाल के बड़ा तालाब में मछलीपालन और नौका संचालन करने वाले अजय कीर (37) भी इस समस्या को दोहराते हैं. उनका मानना है कि यदि सरकार ऐसा बाज़ार विकसित करे जिसके ज़रिए वो लोग भी अंतराज्यीय बाज़ार में अपना माल बेच पाएँ तो छोटे मछुआरों को होने वाले घाटे को ख़त्म किया जा सकता है. वो कहते हैं
“यह बहुत बड़ी गलत फ़हमी है कि मछली पालन में बहुत फायदा होता है. हमारे हिस्से का लाभ बड़े व्यापारी ले जाते हैं.”
मछली उत्पादन बढ़ा मगर मछुआरों को लाभ नहीं मिला
वित्त वर्ष 2021-22 में देश में मछली उत्पादन 161.87 लाख टन था. यह 2019-20 के 141.64 लाख टन के मुक़ाबले ज़्यादा था. इन आँकड़ों में समुद्री मछलियाँ भी शामिल हैं. वहीँ केवल मध्यप्रदेश के मछली उत्पादन की बात करें तो यहाँ 2019-20 में 2 लाख टन मछलियाँ उत्पादित होती थीं. जो 2021-22 में बढ़कर 2.93 लाख टन हो गईं.
आंकड़ों में भले ही मछलियां बढ़ी हों सोनू बाथम के जाल में कम मछलियां ही फंस रही हैं, जो फंस रही हैं उनका भाव ज्यादा नहीं है। जिनका भाव ज्यादा होता है, उसे तलापिया मछली खा जाती है। सोनू कहते हैं,
“रोहू, कतला, और नरेन प्रजाति की मछली के ज़्यादा भाव मिलते हैं मगर शाहपुरा में तलापिया मछली की संख्या बढ़ रही है जो छोटी मछलियों को खा जाती है जिससे उन्हें नुकसान होता है.”
आपको बता दें तलापिया एक इंवेज़िव प्रजाति की मछली है जो स्थानीय मछलियों को खत्म कर अपना परिवार तेज़ी से बढ़ाती है।
कोल्ड स्टोरेज की स्थिति और काँटे का न लग पाना
किसानों की तरह ही इन मछुआरों के लिए भी अपने उत्पादन को अधिक समय तक स्टोर करके रखना मुश्किल है. अजय कीर बताते हैं कि उन्हें सरकार की ओर से कोई भी कोल्ड स्टोरेज जैसी सुविधा नहीं मिली है. जबकि सरकार के दिए आँकड़ों के अनुसार 581 कोल्ड स्टोरेज/आईस प्लांट स्थापित किए गए हैं. लेकिन अजय की ही तरह सोनू और भगवानदास भी इसके बारे में नहीं जानते हैं. हालाँकि सोनू मानते हैं कि ऐसी किसी व्यवस्था से वह अपनी मछलियों को उचित भाव मिलने तक संगृहीत करके रख सकते हैं.
मगर भगवानदास का मानना है कि जब तक बाज़ार में उनके काँटे नहीं होंगे मछली रोक कर रखने का भी कोई फायदा नहीं मिलेगा. वह इसे समझाते हुए कहते हैं कि मछली बाज़ार में बड़े व्यापारियों के काँटे होते हैं इनके ज़रिए ही माल तुलवाना पड़ता है. वह कहते हैं,
“हमने एक-दो बार अपना काँटा रखने के लिए नगर निगम में बात की थी. इसकी फ़ाइल भी आगे बढ़ी. मगर ये व्यापारी लोग अपनी ददागिरी करते हुए सारा काम रुकवा देते हैं.”
बारिश के दिनों का संकट
अजय कीर बताते हैं कि 16 जून से 15 अगस्त तक बारिश के दिनों में मछली पकड़ने पर रोक लगा दी जाती है. इस दौरान इन मछुआरों के पास काम न होने की वजह से सरकार ने आर्थिक मदद देने का प्रावधान भी मत्स्य संपदा योजना में किया गया है. योजना के लाभार्थियों को हर साल 3 हज़ार रूपए केंद्र सरकार की ओर से दिए जाते हैं. लाभार्थी इसमें 1500 रूपए का योगदान देता है. इस तरह कुल 4500 रूपए 1500 रूपए प्रति माह की दर से इन तीन महीनों में दिए जाते हैं.
संसद में दिए एक जवाब के अनुसार मध्यप्रदेश में कुल 59 हज़ार 435 लोगों को इसका लाभ दिया गया है. इसके लिए केंद्र सरकार ने 891.54 लाख रूपए खर्चे भी हैं. मगर भगवानदास को ऐसा कोई भी लाभ नहीं मिलता है. अलबत्ता बारिश के दिनों में शाहपुरा झील में आस-पास के नालों से कचरा बहकर आता है. इसे यहाँ के मछुआरे ही साफ़ करते हैं. भगवानदास हमें अपने पैरों के निशान दिखाते हुए कहते हैं कि सफाई के दौरान अक्सर उनके पैरों में काँच या सीरिंज चुभ जाती है.
मत्स्य सम्पदा योजना इस क्षेत्र की भले ही अब तक की सबसे बड़ी योजना हो. मगर मध्य प्रदेश की राजधानी में मछली पालन के ज़रिए अपनी आजीविका चलाने वालों के लिए इसका कोई अर्थ नहीं है. हम शाहपुरा और बड़ा तालाब के जितने मछुआरों से मिले उनको इस योजना के बारे में न के बराबर ही जानकारी थी. यह योजना नील क्रांति (blue revolution) लाने के उद्देश्य से शुरू की गई थी. मगर आँकड़ों के पार का सच यही है कि भोपाल पहुँचते-पहुँचते यह क्रांति थक जाती है.
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