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मध्यप्रदेश के धार जिले के किसानों ने कर ली है जलवायु परिवर्तन से निपटने की तैयारी

farmers of dhar fighting climate change

प्रेम विजय गुप्ता, क्लाईमेट कहानी | हर साल, मध्यप्रदेश के धार ज़िले में किसान समुदाय अक्षय तृतीया से ही खेती संबंधी तैयारी में जुट जाते हैं। यह किसान अक्षय तृतीया पर जमीनों के सौदे और खेतों को किराए पर देने से लेकर अन्य व्यवस्थाओं को भी इसी समय तय कर लेते हैं।

मगर यह साल का वो वक़्त भी है जब इन किसानों के मन में बेचैनी पनपने लगती है। लेकिन इस साल बात कुछ अलग है। किसानों के मन में घबराहट कुछ कम है।  

दरअसल साल के इस वक़्त इस ज़िले में बरसात के मौसम में 15 से 20 दिन के ड्राय स्पेल या बरसात के रुक जाने का दौर इन्हें सताता है। ऐसा इसलिए क्योंकि बरसात की इस कमी के चलते इन किसानों की सोयाबीन की फसल के उत्पादन पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है।

इससे निपटने के लिए किसान तमाम टोटके तक करने लगते हैं लेकिन ज़ाहिर है, इन टोटकों का इस बदलती जलवायु पर कोई असर नहीं।

बरसात की अनिश्चितता के इस दौर का सीधा कारण बदलती जलवायु है। जलवायु का बदलना यूं तो एक प्राकृतिक गतिविधि  है, लेकिन मानवीय गतिविधियों ने इस परिवर्तन को गति दे दी। तेज़ी से बदलती इस जलवायु से निपटने के लिए जहां एक ओर हमें अपनी जीवनशैली में बदलाव लाने होंगे, वहीं हमें इसके प्रति अनुकूलन भी करना होगा।

खेती किसानी में भी अनुकूलन का यह नियम प्रासंगिक है और इसी क्रम में कृषि अनुसंधान केंद्र से लेकर कृषि विश्वविद्यालय द्वारा सोयाबीन की नई वैरायटी लाई गई है। सोयाबीन की यह वैरायटी 15 से 20 दिन तक पानी की कमी होने पर भी पनप जाती है और ऐसे विपरीत मौसम से लड़ सकती है।

इस नई वैरायटी के चलते अब किसान परंपरागत बीज को त्यागकर नए बीज को लेकर तैयारियां करने लगे हैं। सोयाबीन की इस सहनशील वैरायटी के साथ ही इस ज़िले में एक नई परंपरा शुरू होने जा रही है। स्थानीय जलवायु कार्यवाही का यह एक अनूठा नमूना है।

गौरतलब है कि धार जिले में सोयाबीन किसानों की आर्थिक स्थिति बदलने वाली फसल है। यह फसल किसान की समृद्धि जुड़ी हुई है। सोयाबीन को लेकर अहम बात यह कि जिला इसके उत्पादन में अग्रणी जिला रहा है। इस बात का प्रमाण है कि जिले में कुल खेती करीब 4 लाख 12 हजार हेक्टेयर है। इसमें से तीन लाख हेक्टेयर में रबी फसल सत्र के दौरान सोयाबीन बोई जाती है। जबकि एक लाख से अधिक हेक्टेयर में मक्का से लेकर अन्य सारी जिंसों की बोवनी की जाती है। इस तरह से स्पष्ट है कि जिले में सबसे अहम सोयाबीन की खेती है। इसीलिए इसे पीला सोना भी कहा जाता है।

क्यों बदल रही है तस्वीर?

स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र के वैज्ञानिक डॉक्टर जीएस गाठिया से हुई चर्चा में पता चला कि हर साल मानसून का ट्रेंड चेंज होता जा रहा है। एक तो मौसम का काल आगे पीछे हो रहा है। साथ ही यह बात भी सामने आ रही कि मानसून के दौरान पहले कभी चार-पांच दिन की ही ड्राय स्पेल हुआ करती थी। उन्होंने कहा कि ड्राय स्पेल से तात्पर्य है कि मानसून सत्र के दौरान 4 से 5 दिन तक पानी नहीं बरसता था। इससे फसलों को बहुत प्रभाव नहीं पड़ता था। अब जबकि मानसून का ट्रेंड बदला है। जलवायु परिवर्तन की स्थिति बन रही है। सूखे के दिन 15 से 20 दिन तक के हो गए हैं। यानी ड्राय सेल की अवधि 15 से 20 दिन तक पहुंच गई है। ऐसे में मानसून में लंबा ड्राय स्पेल हो जाने के कारण सोयाबीन की फसल पर विपरीत असर पड़ता है। कई बार तो सोयाबीन के पौधे सूख जाते हैं और दोबारा बोवनी की स्थिति बन जाती है। मानसून के दौरान कई दिनों तक धूप निकलती रहती है। इस तरह का एहसास होता है मानो भीषण गर्मी का दौर चल रहा हो। यह अपने आप में चिंता का विषय है। वहीं जब फसल पकने वाली होती है तो वर्षा का दौर चलता रहता है। जबकि मानसून की बिदाई मान ली जाती है। इसलिए किसानों को अभी से इस दिशा में भी ध्यान देने की आवश्यकता है।

यह नई वैरायटी कर लेगी जलवायु परिवर्तन का सामना

डाक्टर गाठिया आगे बताते हैं कि सोयाबीन राष्ट्रीय अनुसंधान केंद्र द्वारा एनआरसी 150, एनआरसी 141, एनआरसी 148, एनआरसी 157 वैरायटी की खोज की गई है। जबकि कृषि विश्वविद्यालय ग्वालियर द्वारा आरवीएस-18, 24 और 25 की वैरायटी बाजार में लाई गई है। उन्होंने कहा कि सोयाबीन की वैरायटी में सबसे मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन से लड़ने की क्षमता है। यदि मानसून सत्र के दौरान 15 से 20 दिन तक वर्षा नहीं होती है तो यह फसल संघर्ष करने की स्थिति में रहती है। जबकि परंपरागत सोयाबीन की वैरायटी इस तरह की लड़ाई लड़ने में अक्षम है । उन्होंने बताया कि किसानों को अभी से इस दिशा में ध्यान देना चाहिए। इन वैरायटी ओ में तना मक्खी व सफेद मक्खी से लेकर गडल बीटल आदि कीट से लड़ने की बेहतर क्षमता है।

अधिक उपज भी अपने आप में महत्वपूर्ण

वर्तमान में किसान 4 से 5 क्विंटल प्रति बीघा सोयाबीन का उत्पादन प्राप्त कर रहा है। जबकि यदि नई वैरायटी का उपयोग करता है तो 6 से 7 क्विंटल तक प्रति बीघा उत्पादन प्राप्त कर सकता है। इस तरह से यह एक महत्वपूर्ण कदम अभी से उठाना होगा। किसानों के लिए यह अगली फसल सत्र की तैयारी का है। जिसमें अब बहुत ही कम समय बचा है। 2 महीने बाद मानसून का आगमन हो जाएगा और उस समय बोवनी की स्थिति बन जाएगी। इसलिए अब जबकि किसानों के पास में 2 महीने से भी कम समय बाकी है तो उसे नई वैरायटियों के लिए संपर्क करना चाहिए।

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Author

  • Pallav Jain is co-founder of Ground Report and an independent journalist and visual storyteller based in Madhya Pradesh. He did his PG Diploma in Radio and TV journalism from IIMC 2015-16.