मार्च के पहले हफ्ते में तमिलनाडु स्थित नीलगिरी के जंगलो में आग लग गई. वहीं नीलगिरी से क़रीब डेढ़ हज़ार किलोमीटर दूर स्थित छत्तीसगढ़ के अलग-अलग जंगलों में इस साल जंगलों में लगने वाली आग (wild fire) की क़रीब 1908 घटनाएँ दर्ज की जा चुकी हैं. गर्मी के दिनों में जंगलों पर लगने वाली यह आग भारत के अलग-अलग हिस्सों में उग्र होती है। यह न सिर्फ़ जानवरों बल्कि स्थानीय समुदाय को भी प्रभावित करती है.
भारत में जंगलों की आग
भारत में नवम्बर से लेकर जून तक के दिन फ़ॉरेस्ट फायर के दिन होते हैं. यानि इन महीनों में जंगल में आग लगने की घटनाएँ आम तौर पर देखी जाती हैं. नवम्बर 2020 से जून 2021 के बीच 52 हज़ार से भी ज़्यादा फ़ॉरेस्ट फायर की घटना दर्ज की गई थीं. भारत के 54.40 प्रतिशत जंगल कभी-कभी आग (occasional fires) का शिकार होते हैं. वहीं 7.49 प्रतिशत जंगलों में अक्सर ही आग लगती है.
जलवायु परिवर्तन के साथ ही भारत सहित पूरी धरती का तापमान बढ़ रहा है. भारतीय मौसम विभाग के अनुसार बीता साल 1901 से लेकर अब तक का दूसरा सबसे गर्म साल रहा है. बढ़ते हुए इस तापमान का भारत के जंगलों पर सीधा असर पड़ेगा. आईआईटी दिल्ली द्वारा किए गए एक शोध के अनुसार इस दशक के अंत तक जलवायु परिवर्तन के चलते मध्य भारत, दक्षिण भारत और हिमालय से सटे जंगलों में आग लगने की घटनाएँ बढ़ जाएंगी. साथ ही आग लगने के दिन 12 से 21 प्रतिशत तक बढ़ जाएँगे.
अभी हम आग नियंत्रण के लिए क्या कर रहे हैं?
भारत में जंगल में लगने वाली आग को नियंत्रित करना मुख्यतः राज्यों का काम है. हालाँकि केंद्र सरकार की ओर से वन अग्नि नियंत्रण एवं प्रबंधन योजना (FPM) संचालित की जाती है जिसमें राज्यों को जंगलों की आग के प्रबंधन के लिए राशि आवंटित की जाती है.
टेबल राज्यों की श्रेणी के अनुसार आवंटित राशि का हिस्सा
Category of States/UTs | Central share | State share |
Union Territories | 100% | 0% |
NE States, Special category sites of Himachal Pradesh, Jammu & Kashmir and Uttarakhand | 90% | 10% |
Rest of the States | 60% | 40% |
Table: Information Source: Loksabha Secretariat
भारत अभी फायर अलर्ट सिस्टम पर ज़्यादा काम करता है. सेवानिवृत्त उपवन संरक्षक रणवीर सिंह भदौरिया कहते हैं,
“पहले आग से सम्बंधित जानकारी के लिए हम नाकेदारों और फायर वाचर्स पर निर्भर थे. मगर अब सेटेलाईट के ज़रिए हमें मैसेज भेजा जाता है जिससे हमें पता चलता है कि कहाँ आग लगी है.”
भारत में राज्यों के वन विभाग को वनों में लगने वाली आग से सम्बंधित सूचना देने के लिए नियर रियल टाइम फ़ॉरेस्ट फायर मॉनीटरिंग का सहारा लिया जाता है. बेहद आसन भाषा में इसे समझें तो सैटेलाइट के ज़रिए यह सिस्टम किसी भी वन क्षेत्र में आग को डिटेक्ट करता है. इससे सम्बंधित मैसेज हर दिन क़रीब 6 बार भेजे जाते हैं. यह आग से सम्बंधित शुरूआती अलर्ट भेजता है. यानि जब आग अपनी आरंभिक अवस्था में होती है या छोटी होती है.
वहीँ बड़ी आग को मॉनीटर करने के लिए लार्ज फ़ॉरेस्ट फायर मॉनीटरिंग सिस्टम का सहारा लिया जाता है. यह सिस्टम आग के बढ़ने को मॉनीटर करता है. इसके ज़रिए ही अन्य विभाग जैसे सेना आदि को आग नियंत्रण के लिए अलर्ट किया जाता है.
इसके अलावा वन अग्नि जियो पोर्टल पर मानचित्र के ज़रिए आग को देखा जा सकता है. इसके ज़रिए कोई भी व्यक्ति यह जान सकता है कि उसके आवास के आस-पास कहाँ आग लगी है. इसके अलावा फ़ॉरेस्ट सर्वे ऑफ़ इंडिया द्वारा साल 2004 से लेकर 2021 तक के आँकड़ों का विश्लेषण करके ऐसे वन क्षेत्रों को चिन्हित किया गया है जहाँ आग लगने की घटना ज़्यादा होती हैं.
आग के प्रबंधन में समुदाय की भूमिका
वनों में लगने वाली आग वन्य जीवों और जैवविविधता को तो प्रभावित करती ही है. इसके अतिरिक्त वह वन क्षेत्रों में रहने वाले समुदाय को भी प्रभावित करती है. पन्ना टाइगर रिज़र्व के माडला वन क्षेत्र में रहने वाले बलवीर सिंह बताते हैं कि आग के कारण महुआ और वनस्पति के पेड़ जल जाते हैं जिनसे उनकी आजीविका पर असर पड़ता है. वह कहते हैं,
“जंगल में आग लगने पर बाँस में सबसे पहले आग लगती है. हम लोग इसका इस्तेमाल घर बनाने में करते हैं. ऐसे में इनके जल जाने पर बारिश में दिक्कत होती है.”
टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2023 में तेलंगाना के जंगलों में लगी 80 प्रतिशत आग का कारण मानवीय लापरवाही थी. राज्य वन्य सेवा के सेवानिवृत्त अधिकारी सुदेश वाघमारे भी बताते हैं कि देश के ज़्यादातर जंगलों में आग मानवीय भूल के चलते ही लगती है. ऐसे में आग के प्रबंधन में समुदाय की भूमिका का महत्त्व बढ़ जाता है.
“जंगलों के संवर्धन से सबसे पहला लाभ समुदाय को होता है और आग से हानि भी सबसे पहले समुदाय को ही होती है. इसलिए समुदाय का पहला कर्तव्य है जंगल की आग को रोकना.”
देवगढ़: जब महिलाओं ने बचाए जंगल
3 हज़ार 484 वर्ग किमी में फैले ओड़िसा के देवगढ़ के जंगल आग के चलते हर साल 40 प्रतिशत तक जल जाते हैं. इसका सीधा असर यहाँ के समुदाय पर पड़ रहा था. सन 1988 में महिलाओं के संगठन अन्नपूर्णा महिला समिति ने गाँव के लोगों को आग के चलते घटते वनोपज और उससे उनकी आजीविका पर पड़ रहे असर के बारे में जागरूक किया. इस पहल के चलते लोग जंगल में लगने वाली आग के प्रति जागरूक हुए. लोगों ने इसके बेहतर परिणाम देखे और आग लगने की घटनाओं में कमी आई.
मध्यप्रदेश में क्या है हाल?
प्रदेश में आग के अलर्ट के लिए भले ही एक केन्द्रीय सिस्टम कम करता हो. मगर आग बुझाने का काम अब भी मैनुअल तरीके से ही किया जाता है. मगर वनों में रहने वाले लोगों के अनुसार वन विभाग और स्थानीय लोगों के बीच चलते संघर्ष के कारण आग के प्रबंधन में समुदाय बढ़-चढ़कर हिस्सा नहीं लेता है.
बलवीर कहते हैं,
“झूठे केस से लेकर जंगलों में जाने तक वन विभाग द्वारा हमें परेशान किया जाता है. इसलिए हम उनके बुलाने पर आग बुझाने नहीं जाते.”
दरअसल वन विभाग आग बुझाने के लिए स्थानीय लोगों को मज़दूरी के आधार पर ले जाता है. मगर बलवीर के अनुसार ‘10 में से 5 लोग ही बुलाने पर जाते हैं.’ वन्यजीव विशेषज्ञ अजय दुबे मानते हैं कि सामुदायिक भूमिका बढ़ाने के लिए वन विभाग द्वारा समुदाय का विश्वास जीतना महत्वपूर्ण है. वह कहते हैं कि इसके लिए प्रशासन को साल भर समुदाय के साथ संवाद करते हुए तालमेल बिठाना होगा यह कुछ दिनों का काम नहीं है.
ईको डेवेलपमेंट समितियों की स्थिति
मध्यप्रदेश में जॉइंट फ़ॉरेस्ट मैनेजमेंट के अंतर्गत ईको डेवेलपमेंट समिति का गठन किया गया था. वन विभाग का काम था कि वह इन समितियों के माध्यम से समुदाय को वन प्रबंधन से जोड़े. खुद बलवीर सिंह अपने गाँव में इसके सचिव हैं. मगर वह कहते हैं कि वन समितियों का पैसा विभाग अक्सर किसी और मद के नाम पर ईशू करवाकर अपने काम के लिए खर्च कर देता है.
“डिपार्टमेंट के लोगों की वर्दी और ऑफ़िस में लगे हैण्डपम्प को बनवाने के लिए भी हमसे (समिति) ही पैसा लिया जाता है.”
वहीँ अजय दुबे कहते हैं कि यह ट्रेंड प्रदेश के हर वन क्षेत्र में देखने को मिलता है. उनके अनुसार इन समितियों का कभी भी ऑडिट नहीं होता जिससे वन विभाग को इनके शोषण की खुली छूट मिल जाती है. वह मानते हैं कि यदि वन विभाग पारदर्शिता लाए तो वन समितियाँ भी उड़ीसा के उपरोक्त उदाहरण की तरह काम कर सकती हैं.
महुआ नेट क्या सफल प्रयोग है?
मध्यप्रदेश के वनों में यह महुआ इकठ्ठा करने के भी दिन हैं. इन्हें ज़मीन से इकठ्ठा करने के लिए स्थानीय आदिवासियों द्वारा पत्तों में आग लगा दी जाती है. यह बाद में जंगल में फ़ैल कर विशाल आग का रूप ले लेती है. इसके उपाय के रूप में प्रशासन द्वारा ‘महुआ नेट’ वितरित किए गए थे. मगर खुद वाघमारे इसे सफल प्रयोग नहीं मानते हैं. वह कहते हैं कि स्थानीय लोग इसके प्रति बहुत आकर्षित नहीं हैं. उन्हें पारंपरिक तरीके से महुआ चुनना ज़्यादा सुगम लगता है.
वहीँ अजय दुबे इसे चुनावी शगूफा कहते हैं और मानते हैं कि ज़्यादातर नेट केवल ‘कागज़ों’ में बाँटे गए हैं. इस बारे में जब हमने बलवीर से बात की तो वो कहते हैं कि उन्हें इस बारे में कोई भी जानकारी नहीं है.
वन विभाग को क्या करना चाहिए?
वनों में लगने वाली आग एक बड़ी आपदा है. यह जलवायु और जैवविविधता के लिए तो संकट है ही साथ ही इससे समुदाय सबसे पहले प्रभावित होता है. समुदाय के हस्तक्षेप से वनों में लगनी वाली आग की मोनिटरिंग को और बेहतर किया जा सकता है. सुदेश वाघमारे कहते हैं,
“पहले आग के अलर्ट केवल फ़ॉरेस्ट ऑफिसर्स तक पहुँचते थे. अब तो आम नागरिक भी इसे प्राप्त कर सकता है. इसके लिए उसे बस रजिस्ट्रेशन करवाना पड़ेगा.”
वह आगे कहते हैं कि वन विभाग को ज़्यादा से ज़्यादा लोगों का पंजीयन करवाकर इस पहल से जोड़ना चाहिए. वहीँ अजय दुबे सुझाव देते हुए कहते हैं,
“हर वन क्षेत्र के पास 12 महीने के लिए एक ख़ास फ़ॉरेस्ट फायर यूनिट होनी चाहिए. इसमें स्थानीय लोग भी शामिल हों. आग लगने पर यह आग बुझाएँ और बाकी समय समुदाय और वन विभाग के बीच के अंतर को ख़त्म करने के लिए जागरूकता फैलाएँ.”
वन विभाग और समुदाय के बीच का अंतर फ़ॉरेस्ट फायर प्रबंधन में सामुदायिक भूमिका के लिए एक निर्णायक कारक है. जंगलों की आग को फैलने से रोकना और जल्दी इस पर नियंत्रण पाना प्रबंधन का महत्वपूर्ण पहलु है. ऐसे में सतत मोनिटरिंग और तुरंत मदद पहुँचाना महत्वपूर्ण हो जाता है. ज़ाहिर है वनों तक समुदाय की पहुँच और निर्भरता अधिक है ऐसे में उनका विश्वास जीतते हुए सामुदायिक पहल करना असंभव नहीं है.
यह भी पढ़ें
- देसी बीजों को बचाने वाली पुणे की वैष्णवी पाटिल
- Madhya Pradesh: मध्यप्रदेश लीडरशिप समिट में सरकारी पैसे से भाजपा का कार्यक्रम आयोजित किया गया?
- Loksabha Election 2024: अधूरे पड़े विकास कार्यों के बीच किसका होगा जबलपुर
- प्लास्टिक प्रदूषण से लड़ने वाले क्लाइमेट वॉरियर कानजी मेवाड़ा
पर्यावरण से जुड़ी खबरों के लिए आप ग्राउंड रिपोर्ट को फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम, यूट्यूब और वॉट्सएप पर फॉलो कर सकते हैं। अगर आप हमारा साप्ताहिक न्यूज़लेटर अपने ईमेल पर पाना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें।
पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी जटिल शब्दावली सरल भाषा में समझने के लिए पढ़िए हमारी क्लाईमेट ग्लॉसरी