होशंगाबाद के सेठानी घाट के बगल में करबला घाट है. यह घाट सेठानी घाट से खड़े होकर देखने पर शायद ही आपको नज़र आए. इसके लिए आपको शहर की सीमा से सटे बीटीआई की ओर जाना पड़ेगा. होशंगाबाद का यह घाट अवैध रेत खनन के लिए जाना जाता है. साल 2013 में देशभर में स्थित अवैध रेत खदानों पर फैसला सुनाते हुए एनजीटी द्वारा ऐसी सभी रेत खदानों को बंद करने के आदेश दे दिए गए थे जिनके द्वारा ‘एनवायरमेंट क्लियरेंस’ नहीं लिया गया है. करबला घाट की रेत खदान भी इसी में शामिल थी. इसके बाद भी नर्मदा से अवैध रेत खनन तो नहीं रुका मगर महेश माँझी जैसे 300 से भी अधिक मज़दूरों की आजीविका पर संकट ज़रूर आ गया.
2013 के बाद से बंद है ठेका
मध्य प्रदेश में रेत खदानों का आवंटन ठेके (contract) के ज़रिए होता है. मगर होशंगाबाद के भीलपुरा के निवासी महेश माँझी बताते हैं कि साल 2013 के बाद से कोई भी ठेका करबला की खदान के लिए नहीं हुआ. माँझी इस खदान में मज़दूरी का काम करते थे. मगर वैध खदानों के बंद होने के बाद उनकी एक व्यवस्थित आजीविका तहस-नहस हो गई. वह आगे कहते हैं,
“जब भी कोई ठेकेदार वैध तरीके से इस खदान को लेने के लिए आवेदन करता है उसे कोई न कोई कारण बताकर मना कर दिया जाता है.”
अवैध रेत खदान अब भी चालू है
करबला घाट को भले ही वैध रूप से रेत खनन के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया हो मगर यहाँ अब भी रेत का अवैध खनन जारी है. महेश बताते हैं,
“माफियाओं द्वारा मशीनें लगाकर उत्खनन करवाया जा रहा है. ऐसे में घाट की खदान को अवैध करने का कोई मतलब नहीं है.”
खदान को अवैध करने के बाद यहाँ से बेरोजगार हुए मजदूरों को सरकार की ओर से कोई भी पुनर्वास नहीं करवाया गया. यह मज़दूर अब घरों में रंग करने, ईंट उठाने और अन्य मज़दूरी के काम करते हैं.
मज़दूरी अब मजबूरी बन गई है
कैमरे के सामने आने और अपना नाम न बताने की शर्त पर सुरेश (बदला हुआ नाम) कहते हैं, “मज़दूरी अब मजबूरी बन गई है.” इसे समझाते हुए वह बताते हैं,
“12 महीने कोई बंधा हुआ काम हमारे पास नहीं है. शहर में मज़दूरी करने भर से परिवार का पेट तो पाल नहीं सकते. फिर मजबूरी में अवैध रेत ट्रालियों को भरने का काम करना पड़ता है.”
खदान में पहले काम करने वाले अधिकतर मज़दूर अब भी अवैध खादानों में रेत की ट्रालियों को भरने का काम करते हैं. फ़र्क सिर्फ इतना है कि पहले उन्हें जितनी मज़दूरी मिलती थी अब उसकी आधी ही मिल रही है. वहीँ सोहनलाल माँझी कहते हैं कि उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं सोचा था कि
"ऐसे दिन भी आ जाएँगे जब खदान बंद हो जाएगी और हमें काम के लिए भटकना पड़ेगा."
आधी मज़दूरी
वैध और अवैध खदानों के गणित को समझाते हुए महेश कहते हैं, “पहले (खदान के वैध होने पे) भोपाल से टेनव्हीलर आते थे. जिनकी भराई 2500 से 3000 तक होती थी…अब ट्रालियों की भराई 500 से 600 तक ही मिलती है.” दरअसल इन मजदूरों का 10 लोगों का एक दल होता है. पहले ढाई हज़ार इन दस लोगों में बंटता था. अब 600 रूपए 10 लोगों में बाँटने पड़ते हैं. इसके अलावा यहाँ काम करने वाले मज़दूर बताते हैं कि पहले कई टेनव्हीलर आते थे जिससे पूरे दिन में ज़्यादा कमाई हो जाती थी. मगर अब पूरे दिन में कुछेक ट्रालियां ही आती हैं.
“दो टाइम का गुज़ारा मुश्किल हो गया है”
सोहनलाल माँझी बदली हुई परिस्थिती के उन पर हुए प्रभाव को बताते हुए कहते हैं, “पहले हमारा खाना-खर्चा अच्छे से चलता था. अब 2 टाइम का गुज़ारा भी मुश्किल से हो पा रहा है.” वह बताते हैं कि खनन से मिलने वाली मौजूदा मज़दूरी न सिर्फ कम है बल्कि अनिश्चित भी है.
“अगर ट्रॉली नहीं पकड़ाती (ज़ब्त नहीं होती) है तो रेत बिकने के बाद दूसरे दिन मज़दूरी मिलती है. अगर प्रशासन ट्रॉली पकड़ लेता है तो कोई भी मज़दूरी नहीं मिलती है.”
यहाँ रहने वाली ललिता संतोरे का मानना है कि उनके भाइयों को तत्काल नौकरी दिलवाई जानी चाहिए. "हमारे भाई जब काम करते हैं तो घर चलता है, अगर उनके पास काम नहीं होगा तो हमें भी दिक्कत जाएगी ही."
सरकार के पास नहीं है कोई रोडमैप
इस क्षेत्र से बीजेपी के वर्तमान विधायक सीताशरण शर्मा रिपोर्ट से बात करते हुए कहते हैं,
“मैने हमेशा यहाँ के ठेकेदारों पर यह दबाव बनाया है कि यहाँ के मज़दूरों को मज़दूरी मिले.”
हालाँकि सरकार द्वारा इनके पुनर्वास के लिए कोई भी कदम कभी भी नहीं उठाये गए हैं. महेश शर्मा कहते हैं कि उनके द्वारा स्थानीय विधायक और मुख्यमंत्री से इस समस्या के समाधान के लिए बार-बार निवेदन किया गया है. मगर अब तक सरकार के पास इसको लेकर कोई रोडमैप नहीं है.
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