Powered by

Advertisment
Home ग्राउंड रिपोर्ट हिंदी

5 साल बाद चाईनीज़ झालर से मुक्त हुए सारणी जलाशय पर फिर लौटेंगे मछुआरे

बैतूल के सारनी में मछुआरों के लिए मुसीबत बन चुकी चाइनीज झालर अब जलाशय से पूरी तरह खत्म हो चुकी है। इस वजह से अब समुदाय के लोगों में अपने पारंपरिक पेशे से फिर से जुड़ने की उम्मीद जागी है।

By Sanavver Shafi
New Update
Sarani Reservoir

सतपुरा जलाशय चाईनीज़ झालर से मुक्त होने के बाद

Listen to this article
0.75x 1x 1.5x
00:00 / 00:00

"पिछले पांच सालों से चाइनीज झालर की मार झेल रहे हैं, इसकी वजह से जलाशय की मछलियां मर गई, तब ही से अपनी आजीविका के लिए दर-दर भटक रहे हैं। मैं ही जानता हूं किस तरह से परिवार का भरण-पोषण कर रहा हूं। यह बात मनोहर मोरे ने ग्राउंड रिपोर्ट से कही।"

Advertisment

मनोहर मोरे, सारणी जलाशय, सतपुड़ा बांध के समीप मछली कांटा बस्ती में रहते हैं। उनके साथ ही इस बस्ती में रहने वाले 250 से अधिक परिवारों की आजीविका इस डैम से मिलने वाली मछली पर पूर्णतः निर्भर है। लेकिन जलाशय पर विदेशी जलीय खरपतवार साल्विनिया मोलेस्टा (जलकुंभी या चाईनीज़ झालर) के उग जाने से इन परिवारों को पिछले पांच सालों से अपनी आजीविका चलाने के लिए काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। यहां हालात इतने खराब हो चुके थे कि मछुआरे आजीविका के अवसरों के लिए दूसरे शहरों में पलायन कर गए और अधिकांश तो मजदूरी करके परिवार का भरण-पोषण करने के लिए मजबूर हैं। 

मप्र के बैतूल जिले में तवा नदी के मुहाने पर साल 1967 में राज्य की पावर जनरेटिंग कंपनी द्वारा जल से बिजली बनाने के लिए 110 एमसीएम (मिलियन क्यूबिक मीटर) क्षमता के 2900 एकड़ जलग्रहण क्षेत्र वाले एक वृहद् सतपुड़ा जलाशय व बांध का निर्माण किया गया।

सतपुड़ा ताप विद्युत गृह, सारणी के जलाशय से ही नगर पालिका के सभी 36 वार्डों में पेयजल की आपूर्ति भी की जाती है, लेकिन साल 2018 में बेहद आक्रमण विदेशी जलीय खरपतवार (जिसका वैज्ञानिक नाम साल्विनिया मोलेस्टा और स्थानीय भाषा में चाइनीज झालर या जलकुंभी है) ने जलाशय में 60 प्रतिशत तक अपनी पैठ बना ली थी। यह विदेशी जलीय खरपतवार न सिर्फ स्थानीय मछुआरों के लिए काल बनी, बल्कि इसके कहर से जलीय जीव-जंतू भी नहीं बच सके।

 

Salvinia molesta infestation in Satpura reservoir
कुछ इस तरह जलकुंभी से पट गया था सतपुरा जलाशय

मोरे, आगे कहते हैं कि "साल 2018 में जब पहली बार इस जलकुंभी को जलाशय में देखा गया था तो किसी ने भी नहीं सोचा था कि यह जलकुंभी एक साल में ही जलाशय पर 80 फीसदी तक कब्जा कर लेगी।"

उनकी बात का समर्थन करते हुए सारणी, मछुआरा समिति, अध्यक्ष राजू डायरे कहते हैं कि

"साल 2019 तक तो चाइनीज झालर से पूरा जलाशय भर गया था, इसने जलीय जीव-जंतुओं को खत्म कर दिया, जिससे हमारी आजीविका प्रभावित हुई, परिवार का भरण-पोषण करने के लिए हमें दूसरे विकल्पों का सहारा लेना पड़ा।"

मध्य प्रदेश पाॅवर जनरेटिंग लिमिटेड कंपनी के चीफ इंजीनियर वीके कैथवार भी मानते हैं कि चाइनीज झालर को 2018 में पहली बार जलाशय में देखा गया था, यह इतनी तेजी से जलाशय में फैली कि देखते ही देखते 2800 एकड़ में फैले सारनी जलाशय को पूरी तरह से अपनी ज़द में ले लिया। इस वजह से मछलियां खत्म हो गई और मछुआरों की आजीविका भी समाप्त हो गई। 

राजू, अंगुली से इशारा कर जलाशय की ओर दिखाते हुए कहते हैं कि

 "साल 2018 में ही समिति ने जलाशय से मछली पकड़ने के लिए 10 साल का ठेका लिया था, उस समय हमें अंदाजा ही नहीं था कि आने वाले साल हमारे लिए बद से बदत्तर होने वाले हैं।"

उन्हीं के साथ खड़े मछुआरे असीम ने कहा कि

"साल 2018 में समिति को 10 साल का पट्टा स्वीकृत हुआ था, इससे 250 से ज्यादा मछुआरों के परिवारों की रोजी रोटी चलनी थी, लेकिन चाइनीज झालर की वजह से पिछले पांच सालों से जलाशय में मछली पकड़ना तो दूर की बात है, मछली देखी तक नहीं है। हम ही जानते हैं इन पांच सालों से हम कैसे परिवार का भरण-पोषण कर रहे हैं। हमें सरकार की तरफ से भी किसी प्रकार की कोई मदद नहीं मिली है।" 

आशा की किरण

Satpura Reservoir

मध्य प्रदेश पावर जनरेटिंग लिमिटेड कंपनी के चीफ इंजीनियर वीके कैथवार ने ग्राउंड रिपोर्ट से कहा कि 

"हमने पहले इस खरपतवार को हाथ से हटाने के लिए योजना बनाई थी और इस योजना के लिए 15 करोड़ रू. के टेंडर भी जारी किए गए। इसके सफल होने की संभावनाएं कम थी, क्योंकि खरपतवार के फिर से आने की आशंका थी। इस वजह से इस योजना को बीच में ही छोड़ दिया गया।" 

कैथवार कहते हैं कि "काफी रिसर्च के बाद हमें पता चला कि एक विदेशी कीट सिर्टोबेगस साल्विनी (Cyrtobagous salviniae) बायो-एजेंट की मदद लेकर इस चाइनीज झालर से छुटकारा हासिल किया जा सकता है। इसके बाद हमने जबलपुर स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् से संपर्क किया। वैज्ञानिकों की टीम ने रिसर्च करने के बाद करीब 50 लाख रू. की परामर्श परियोजना सौंपी। 

जर्नल आफ एक्वेटिक प्लांट मैनेजमेंट में साल 2005 में प्रकाशित प्रक्या श्रीराम कुमार, एस रमानी और एसपी सिंह के रिसर्च पेपर नैचुरल सप्रेशन आफ द एक्वेटिक वीड साल्विनिया मोलेस्टा डीएस मिशेल बाय टू प्रीविअस अनरिपोर्टेड फंगल पेथोजंस में सामने आया है कि 1950 के दशक में ब्राजील और अर्जेंटीना मूल की यह खरपतवार सबसे पहले तिरूअनंतपुरम (केरल) की वेली झील में देखी गई और 1964 में इसे पेस्ट का दर्जा हासिल हो गया था।

यह घने वनस्पति मैट बना सकता है जो पानी के प्रवाह को कम करता है और पानी में प्रकाश, आक्सीजन के स्तर को भी कम कर देता है। यह स्थिर अंधेर वातावरण मछली, जलीय पौधों सहित जैव विविधता और जलीय जीव जंतुओं पर बहुतायत में नकारात्मक प्रभाव डालता है।

इसे साल 2013 में दुनिया की 100 सबसे खराब आक्रामण विदेशी प्रजातियों में से एक के रूप में चुना गया। यह जलाशयों पर निर्भर सामाजिक-आर्थिक गतिविधियों के लिए भी एक गंभीर खतरा है, जिसमें जल विद्युत उत्पादन, मछली पकड़ना और जलीय परिवहन शामिल है।

Satpura Reservoir

मप्र, जबलपुर स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद् के खरपतवार अनुसंधान निदेशालय (आईसीएआर-डीडब्ल्यूआर) के निदेशक जेएस मिश्र ने कहा कि

"केरल में साल्विनिया मोलेस्टा खरपतवार को नष्ट करने के लिए एक प्रभावी जैव एजेंट के तौर पर ब्राजील के ही सिर्टोबेगस साल्विनी कीट को जाना जाता है। इस कीट को केरल से ही जैव-प्रभावकारिता और आगे के गुण के परीक्षण के लिए आईसीएआर-डीडब्ल्यूआर, मप्र में लाया गया था। इस अध्ययन में सामने आया कि  मध्य भारत की जलवायु परिस्थितियों में निम्म और उच्च तापमान भिन्नता के बावजूद यह कीट खरपतवार को नियंत्रित करने के लिए प्रभावी हो सकता है।" 

वे आगे कहते हैं कि "इस तकनीक को समझने के लिए कटनी जिले के पडुआ गांव में 53 एकड़ में फैले तालाब में प्रयोग किया गया, यहां 20 हेक्टेयर में साल्विनिया खरपतवार ने अपनी पैठ बना ली थी। साल 2019 के दिसबंर माह में ग्रामीणों और सरपंच की मदद लेकर तालाब में सिर्टोबैगस साल्विनिया के 2000 वयस्क बायो एजेंट कीट छोड़े गए।"

पडुआ गांव के पूर्व सरपंच राजेश पटेल के मुताबिक उनके गांव का तालाब पिछले कुछ सालों से इस खरपतवार से गंभीर रूप से संक्रमित था। सभी गांव वासियों ने मिलकर हाथ से इसे हटाने के काफी प्रयास किए, जोकि व्यर्थ साबित हुए। इस चाइनीज झालर को वे जितना हटाते थे यह उतनी तेजी से फैलती। इस वजह से उनकी आजीविका भी काफी प्रभावित हुई।

पडुआ गांव की निवासी चंदाबाई कहती हैं कि

"साल 2016 में देसी दवाई (ज्वालामुखी) समझकर गांव के ही किसी व्यक्ति ने इसे तालाब में डाल दिया था। यह हालात थे कि इसने साल 2019 तक पूरे तालाब के कमल और मछलियों को खत्म कर दिया था। परेशान होकर हमने खरपतवार अनुसंधान निदेशालय,जबलपुर से संपर्क किया।"

जेएस मिश्र  के मुताबिक बायो-एजेंट तालाब में छोड़ने के बाद यह धीरे-धीरे गुणित यानी अपनी आबादी बढ़ाने लगे। शुरूआत के 6 माह तक कोई असर दिखाई नहीं दिया, लेकिन धीरे-धीरे कीड़ों की आबादी में वृद्धि दर्ज की गई और 11 महीनों में बायो-एजेंट की आबादी नगण्य से बढ़कर 125.5 वयस्क प्रति वर्गमीटर हो गई। अब खरपतवार के जनसंख्या घनत्व में कमी के साथ नियत समय में गिरावट देखी जाने लगी।

वे कहते हैं कि "बायो-एजेंट आबादी में वृद्धि के साथ, साल्विनिया मोलेस्टा का 50 प्रतिशत, 80 प्रतिशत और 100 प्रतिशत नियंत्रत क्रमशः 8,11 और 18 माह में हासिल किया गया। कीट अंतिम कलियों और नई वृद्धि को खाकर खरपतवार को मार देता है, जबकि इसके लार्वा कलियों व प्रंकदों के माध्यम से सुरंग बनाते हैं। टर्मिनल कलियों की हत्या खरपतवार के पुनः विकास की जांच करती है। इस कीट से जल और जलीय जैव-विविधता पर किसी तरह का प्रभाव नहीं पड़ता है।"

इस तरह मिली सफलता

Satpura Reservoir

निदेशालय के पूर्व प्रधान वैज्ञानिक और इस कीट पर गहन अध्ययन करने वाले सुशील कुमार ने साल 2015 में इस कीट पर अध्ययन किया था, जोकि इंडियन जर्नल आफ वीड साइंस में हिस्टी प्रोग्रेस एंड प्रोस्पेक्ट्स आफ क्लासिकल बायोलाजिकल कंटोल इन इंडिया नाम से प्रकाशित किया गया था। इस अध्ययन में सामने आया था कि साल्विनिया मोलेस्टा को जैविक नियंत्रण से करागर तरीके से खत्म किया जा सकता है। इसके जैविक नियंत्रण के लिए इसके बायो-एजेंट को 1982 में ऑस्ट्रेलिया से बैंगलुरू स्थित भारतीय बागवानी अनुसंधान संस्थान में लाया गया था और 1983-84 में इसे बैंगलुरू छोड़ा, इसने मात्र 11 माह में खरपतवार को खत्म कर दिया था। बाद में कीट को केरल के अलग-अलग हिस्सों में छोड़ा, जिसके तीन साल के अंदर ही केरल की अधिकांश नहरे जो चोक हो चुकी थी, वे साफ हो गई।

सुशील कुमार कहते हैं कि

 "काफी रिसर्च के बाद ही दिसंबर 2022 में सारणी के जलाशय में पहली बार 1.5 लाख सिर्टोबैगस साल्विनी नामक कीट छोड़ा गया, फिर कई चरणों में अक्टूबर-नवबंर माह में जलाशय के अलग-अलग क्षेत्रों में छोड़ा। 

सुशील कुमार सहित निदेशालय के वैज्ञानिक पूरी तरह से आश्वस्त थे कि यह कीट साल्विनिया मोलेस्टा को 15 से 18 माह में पूरी तरह खत्म कर देगा, क्योंकि पहले निदेशालय परिसर व कटनी जिले के पडुआ गांव के तालाब में इसका सफल परीक्षण कर चुके थे। 

पुरानी रंगत में कमाई का साधन लौटने की उम्मीद

वहीं राजू डायरे, कहते हैं कि "मछुआरों के लिए मुसीबत बन चुकी चाइनीज झालर अब जलाशय से पूरी तरह खत्म हो चुकी है। इस वजह से अब समुदाय के लोगों में अपने पारंपरिक पेशे से फिर से जुड़ने की उम्मीद जागी है।"

हालांकि सतपुड़ा बायोडायवर्सिटी कंज़र्वेशन सोसायटी के अध्यक्ष आदिल खान के मुताबिक जलाशय में कुछ स्थानों पर जलकुंभी दोबारा दिखने लगी है, वो कहते हैं कि

"मेरे माध्यम से न्यायालय में सतपुड़ा जलाशय की सफाई के लिए याचिका लगाई गई थी, जिसके बाद जलाशय की सफाई संभव हो पाई। अभी कुछ स्थानों पर पुनः साल्विनिया मॉलेस्टा पनप रहा है, जिसपर हम नज़र बनाएं हुए हैं, मामला अभी‌ न्यायालय में चल रहा है। जलाशय पहले से बहुत बेहतर स्थिति में है।" 

मनोहर मोरे मानते हैं कि

"अब हालात बदल चुके हैं और करीब छह माह पहले बेहर खतरनाक जलीय खरपतवार का खात्मा हो गया है। अब जलाशय में मछलियों के बीज डालने की तैयार समिति द्वारा की जा रही है और उम्मीद है कि छह माह के भीतर इतनी मछलियां पनप जाएंगी कि हमारे समुदाय की कमाई का साधन अपनी पुरानी रंगत में लौट आएगा।"  

यह भी पढ़ें

कूड़े की यात्रा: घरों के फर्श से लैंडफिल के अर्श तक 

मध्य प्रदेश के सोयाबीन किसानों पर आफतों की बाढ़

खरमोर के संरक्षण में कहां रह गई कमी, मध्य प्रदेश में विलुप्त!

भारत में स्वतंत्र पर्यावरण पत्रकारिता को जारी रखने के लिए ग्राउंड रिपोर्ट का आर्थिक सहयोग करें। 

पर्यावरण से जुड़ी खबरों के लिए आप ग्राउंड रिपोर्ट को फेसबुकट्विटरइंस्टाग्रामयूट्यूब और वॉट्सएप पर फॉलो कर सकते हैं। अगर आप हमारा साप्ताहिक न्यूज़लेटर अपने ईमेल पर पाना चाहते हैं तो यहां क्लिक करें।

पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी जटिल शब्दावली सरल भाषा में समझने के लिए पढ़िए हमारी क्लाईमेट ग्लॉसरी