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बल बहादुर प्रसाद कुशवाह अपने मशरूम खेती सेटअप में
Read in English | बिहार के मुजफ्फरपुर में, कांटी थर्मल पावर प्लांट से 15 मिनट की दूरी पर, बाल बहादुर प्रसाद कुशवाहा अपने घर के पीछे बने एक खिड़की वाले शेड का दरवाज़ा खोलते हैं। अंदर, ज़मीन पर, गेंहूं के भूसे से भरी पॉलीथीन की थैलियों की तीन-चार कतारें लगी हैं। इनमें से कुछ थैलियों की दरारों से बर्फ़ जैसे सफ़ेद ऑयस्टर मशरूम बाहर निकल रहे हैं।
इस सदी के दो दशकों में, भारत में मशरूम उत्पादन में बिहार अग्रणी राज्य बना है, जिसका उत्पादन 2023-24 में 41,000 टन से ज़्यादा रहा। इस 'क्रांति' के केंद्र में डॉ. दयाराम हैं। उन्होंने बिहार में मशरूम की खेती को बढ़ावा दिया है, और कुशवाहा ने भी इसमें योगदान दिया है। कुशवाहा ने 2012 में डॉ. राजेंद्र प्रसाद केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय (PUCA), समस्तीपुर में माइकोलॉजिस्ट डॉ. दयाराम के मार्गदर्शन में एक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम के बाद मशरूम के साथ प्रयोग करना शुरू किया था। वह उन एक दर्जन प्रशिक्षुओं में से एक थे।
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2012 में प्रशिक्षण के बाद, उन्होंने अपना मशरूम उत्पादन केंद्र बनाने के अलावा, दूसरे किसानों को भी सिखाना शुरू कर दिया। वो याद कर बताते हैं, "धीरे-धीरे, सीवान, गोपालगंज और यहाँ तक कि दूर-दराज़ के इलाकों से भी लोग प्रशिक्षण लेने आने लगे।" आज वे नए लोगों के लिए कार्यशालाएँ चलाने के लिए ₹1,000 और बस का किराया लेते हैं, क्योंकि, वे कहते हैं, "रोज़ मुफ़्त में ऐसा करने से मेरे परिवार का पेट नहीं भरता।"
लेकिन यह कहानी मुजफ्फरपुर के कांटी गाँव के मशरूम किसानों की है। दशकों तक, मुजफ्फरपुर—भारत की लीची राजधानी के तौर पर जाना जाता रहा। लेकिन कांटी के कोयला आधारित बिजली संयंत्र से निकलने वाली फ्लाई ऐश अब जिले के बागों पर काली स्याही की तरह जम गई है। एक छोटे किसान राम प्रवेश पांडे कहते हैं, "जिन फलों से पहले प्रति बाग 40,000-35,000 रुपये मिलते थे, अब उनकी कीमत 10,000 रुपये भी नहीं मिल रही है।" वे बताते हैं कि पावर प्लांट की राख नाज़ुक मोजर—फूलों की गुच्छों—से चिपक जाती है—और फल लगने से पहले ही उन्हें बौना बना देती है। "कीटनाशकों के छिड़काव के बिना और कई बार अच्छी तरह धोया ना जाए तो कलियाँ जलकर राख हो जाती हैं।"
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धुलाई के लिए ₹200-220 प्रति घंटे की दर से डीज़ल जनरेटर से भूजल पंप करना पड़ता है। यह निवेश किसानों के लिए ज्यादा नहीं है, लेकिन लीची की गुणवत्ता में बदलाव के कारण उनके प्रॉफिट मार्जिन को ज़रूर कम कर देता है। पांडे कहते हैं कि प्लांट से कोई मुआवज़ा, सड़क सुधार या स्वास्थ्य सेवाएँ न मिलने के कारण, "हमें बस परेशानी ही मिलती है।"
हम एक अलग लेख में लीची के खेतों और कांटी के जीवन पर फ्लाई ऐश के प्रभाव पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
कुशवाह की 'ट्रिक'
कुशवाहा मशरुम की जिस किस्म को पसंद करते हैं वह है ग्रे ऑयस्टर (प्लुरोटस ऑस्ट्रीटस), जिसे स्थानीय भाषा में डिंगरी के नाम से जाना जाता है। अन्य मशरूम प्रजाति के विपरीत, ऑयस्टर 20°C और 32°C के बीच पनपते हैं। मशरुम उगाने की जगह पर इतना तापमान बनाए रखने पर कुशवाह ज़ोर देते हैं। उनका एक सरल नियम है: मशरुम के लिए आदर्श तामपान वही है, जिसमें आप आराम से सो सकें, गर्मी में आप सो नहीं सकते। उन्होंने आगे कहा कि कमरे के लिए दो चीज़ों की ज़रूरत होती है: अंधेरा और स्थिर हवा। इसके साथ ही कमरे में नमी नहीं होनी चाहिए।
उन्होंने शुरुआत में मशरूम की खेती पारंपरिक तरीके से भूसे को उबालकर की थी। अब वह भूसे को चूने और घरेलू ब्लीचिंग पाउडर से कीटाणुरहित करते हैं—जो सस्ते और स्थानीय रूप से उपलब्ध हैं। उन्होंने इसे 'ट्रिक' कहा।
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भिगोने के बाद, भूसे को छानकर, स्पॉन (मशरूम के बीज का दाना) में मिलाकर 10 किलो के बैग में पैक कर दिया जाता है। दस दिन बाद वह हर बैग को खिड़कीनुमा आकार में काट देते हैं; एक और दो हफ़्ते के अंदर, छोटे मशरूम निकल आते हैं। गर्मियों में, पहली फ़सल 22-25 दिनों में आ जाती है; सर्दियों में, लगभग एक महीने का समय लगता है।
वह गेहूँ और अन्य फसलें भी उगाते हैं। उनकी पत्नी दो गायों की देखभाल करती हैं। गेहूँ की फसल के बचे हुए अवशेषों से वह गायों को चारा खिलाते हैं और इस अवशेष का कुछ हिस्सा मशरूम उगाने में इस्तेमाल करते हैं।
कुशवाहा बहुत ही गरीब परिवार से हैं। उनके पास अपने बच्चों की शिक्षा या स्वास्थ्य संबंधी आपात स्थितियों पर खर्च करने के लिए पर्याप्त धन नहीं था। एक छोटे से घर में उन्होंने तीन अतिरिक्त कमरे और एक शेड बनवाया है। अब वह अपने घर को 'ताजमहल' कहते हैं, जो अपार सुंदरता और भव्यता का प्रतीक है। एक तरह से, यह उनके संघर्ष की कहानी कहता है।
कुशवाहा कहते हैं, "एक किसान सिर्फ़ एक किलो बीज—₹250—और घर के भूसे से मशरुम उगाने की शुरुआत कर सकता है। एक महीने के अंदर ₹250 का निवेश लगभग ₹1,000 हो जाता है।"
अब हालात बेहतर हो गए हैं। हालाँकि, शुरुआत में लोग उनकी समृद्धि को संदेह और अविश्वास की नज़र से देखते थे। उनके काम में ईमानदारी है। इसलिए, जब उन्होंने गाँव और आस-पास के अन्य किसानों को प्रशिक्षण देना शुरू किया, तो उन्हें बदलाव नज़र आया। उनकी मासिक आय भी बढ़ गई। उन्हें विश्वास होने लगा कि मशरूम की खेती उनके जीवन में स्थायी बदलाव ला सकती है।
स्थिर आय ने उन्हें आगे बढ़ने का आत्मविश्वास दिया है। उन्होंने अगरबत्ती बनाने के लिए दो मशीनें लगाई हैं और अपनी कमाई को फिर से निवेश करने की योजना बना रहे हैं। वे कहते हैं, "एक बार जब ये अगरबत्ती बिकने लगेंगी, तो मैं कुछ और मशीनें खरीदूँगा—मेरे पास ढेरों आइडियाज़ हैं।"
पांडे का पोल्ट्री फार्म अब मशरूम फार्म
पीली कमीज़ और पारंपरिक बिहारी गमछा—जो एक हल्का और नमी सोखने वाला सूती तौलिया है—अपने कंधों पर डाले, राम प्रवेश पांडे ने 2016 में कुशवाहा से मशरुम की खेती सीखी थी। आज वे 50-200 बैग वाला एक छोटा मशरूम फार्म चलाते हैं और अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं।
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कोविड-19 के दौरान पांडे का पोल्ट्री व्यवसाय चौपट हो गया। उन्हें याद आया कि उन्होंने अपने मुर्गे बहुत कम कीमत पर या लगभग मुफ़्त में बेचे थे। उन्होंने कहा, "मैंने 2,23,000 मुर्गे मुफ़्त में बाँट दिए थे।" लेकिन उससे पहले भी, फ्लाई ऐश ने उनके लीची के खेतों को प्रभावित किया था।
कुशवाहा के विपरीत, पांडे की मासिक आय मशरूम की नियमित कटाई पर निर्भर करती है। उन्होंने हमें बताया कि लीची के विपरीत, मशरूम की उपज ज़्यादा स्थिर होती है। जब पैसे की उपलब्धता होती है, तो वह ₹10,000-15,000 का निवेश करते हैं। वह स्वीकार करते हैं, "यह लीची से होने वाली आय की भरपाई नहीं करता।"
कई किसान अतिरिक्त मासिक आय के लिए मशरूम की ओर रुख करते हैं, और यह बात बिहार में सबसे ज़्यादा देखने को मिलती है, जो अब मशरूम उत्पादन में भारत में अग्रणी राज्य है।
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पांडे हमें एक शेड में ले गए जहाँ कभी मुर्गी पालन होता था, लेकिन अब वह उनका मशरूम फार्म है। नीले रंग के तिरपाल और बाँस की आकृति से बना एक आयताकार शेड। नीचे मिट्टी भरी हुई है, और मशरूम की कई थैलियाँ लटकी हुई हैं। उन्होंने याद किया कि जब पहली बार डिंगरी उगाई गई और गाँव वालों को बेची गई, तो उन्होंने इसे गोबर छत्ता (कुकुर मुत्ता) समझकर खारिज कर दिया। उन्होंने आगे बताया कि दो साल तक यह काम मुश्किल रहा।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यह उत्पाद पूरी तरह से शाकाहारी और जैविक है, और गाँव वाले अब मशरूम को 'पनीर' के बराबर मानते हैं, जो एक शानदार भोजन है। साथ ही, यह मधुमेह, उच्च रक्तचाप और गठिया के लिए भी फायदेमंद है—ऐसे स्वास्थ्य संबंधी दावे अक्सर व्हाट्सएप और यूट्यूब पर प्रसारित होते रहते हैं। आज माँग आपूर्ति से ज़्यादा है: "ताज़ी फसल का अचार या खीर लोग खूब पसंद करते हैं।"
कुशवाहा ने एक बार शहर जाते हुए सड़क किनारे एक ठेले पर ताज़े मशरूम रखे हुए देखे। "वे बटन मशरूम थे... गोल वाले,"। उन्होंने सोचा घर लौटते हुए वह इसे खरीदेंगे, लेकिन जब वह लौटे, तो स्टॉल खाली था—और आखिरी खेप बिकने से पहले ही दाम बढ़ गए थे। इससे उन्हें समझ आया कि मशरुम कितना डिमांड में है, लेकिन उन्हें यह भी आशंका थी कि अगर बड़ी कंपनियाँ बाज़ार में आ गईं, तो उनके जैसे छोटे उत्पादक कैसे काम चलाएँगे।
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हालाँकि अब मशरुम की खेती की पहुँच कांटी ब्लॉक से भी आगे बढ़ गई है। पड़ोसी ज़िलों और यहाँ तक कि झारखंड में भी मशरुम उगाया जा रहा है। हालाँकि यह काम करने वालों में अभी भी ज़्यादातर हिस्सा सीमांत किसानों का है। कुछ स्कूल छोड़ चुके और स्वयं सहायता समूह के सदस्य मशरूम को एक सूक्ष्म उद्यम मानते हैं जिसके लिए बहुत कम ज़मीन की ज़रूरत होती है—ऐसे क्षेत्र में जहाँ औसत जोत एक हेक्टेयर से भी कम हो गई है, यह एक अच्छा रोज़गार विकल्प है।
कुशवाह का काम जो एक सुरक्षित अतिरिक्त आय की रणनीति के रूप में शुरू हुआ था, वह आज 200 सदस्यों वाले उत्पादकों के नेटवर्क में विकसित हो गया है। यहां केवल एक एग्रीगेटर ही उत्पादकों से मशरूम इकट्ठा करता है और मुज़फ़्फ़रपुर भर में पहुँचाता है, जिससे परिवहन घाटा कम होता है और बाज़ार की गारंटी मिलती है। कुशवाहा ने बताया कि अगर हर दूसरा किसान मशरूम उगाना शुरू कर दे, तो भी कीमतें "50 रुपये किलो" तक बनी रहेगी। इसलिए, तब मशरूम शायद एक लाभदायक उद्यम नहीं होगा, लेकिन घाटे वाला भी नहीं होगा। यह एक स्थिर मासिक आय का स्रोत बने रहेंगे।
बिहार में मशरूम की खेती के बढ़ते चलन पर कई रिपोर्टें हैं। आय के स्रोत के रूप में कृषि अक्सर आर्थिक विकास का मार्ग प्रशस्त नहीं करती। खासकर बिहार जैसे राज्यों में, इसमें कई और बाधाएँ हैं। और, बिहार के कांटी में, लड़ाई शक्तिशाली ताप विद्युत संयंत्रों के खिलाफ है। लेकिन एक और बाधा है: जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ता तापमान। बढ़ते तापमान के साथ, मशरूम के लिए कमरे का उपयुक्त तापमान बनाए रखना मुश्किल होगा। इससे उत्पादक को अतिरिक्त लागत आएगी।
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