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जैविक खेती को बढ़ावा देने के सरकारी दावे में कितनी हकीकत कितना फ़साना

जलवायु परिवर्तन के दौर में किसी किसान के लिए जैविक खेती की ओर रुख करना कितना कठिन है. भारत में जैविक खेती से सम्बंधित योजना का कितने किसानों को लाभ मिल रहा है? क्या किसान को कोई सरकारी सहयोग मिल भी रहा है?

By Shishir Agrawal
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organic farmer vidisha

ओबेदुल्लागंज के परंपरागत कृषि किसान पवन परेशान, फोटो ग्राउंड रिपोर्ट

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Read in English | 15 अगस्त 2022, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले से देश को संबोधित कर रहे थे. इस दौरान उन्होंने कहा कि जैविक खेती हमारा कर्तव्य है. इससे पहले भी जैविक खेती (organic farming) को बढ़ावा देने का आग्रह करते हुए उन्होंने कहा था,

“एक किसान और धरतीपुत्र होने के नाते मुझे कोई हक नहीं है कि मैं धरती की सेहत से खिलवाड़ करूँ….ना ही मुझे इस मिट्टी को बीमार करने का कोई हक है.”

वर्तमान में कुल कृषि क्षेत्र (net sown area) का 2.7 प्रतिशत हिस्सा यानि करीब 3.8 मिलियन हेक्टेयर में जैविक खेती होती है. हालाँकि इसमें 0.41 मिलियन हेक्टेयर प्राकृतिक खेती भी शामिल है. साल 2020 में भारत जैविक किसानों की संख्या के लिहाज़ से विश्व में पहले स्थान पर था.

मगर यह देखना ज़रूरी है कि भारत में जैविक खेती से सम्बंधित योजना का कितने किसानों को लाभ मिल रहा है? क्या किसान को कोई सरकारी सहयोग मिल भी रहा है? या फिर मिट्टी को बीमार होने से बचाने के लिए किसान को ‘आत्मनिर्भर’ होकर ही काम चलाना पड़ रहा है.

जैविक खेती के लिए परंपरागत कृषि विकास योजना

देश में जैविक खेती (organic farming) को बढ़ावा देने के लिए साल 2015 में परंपरागत कृषि विकास योजना (PKVY) लॉन्च की गई थी. यह योजना केंद्र सरकार के ‘सतत कृषि हेतु राष्ट्रिय मिशन’ (National Mission on Sustainable Agriculture) का हिस्सा थी. योजना के तहत देशभर में 11.85 लाख हेक्टेयर में जैविक खेती होने का ‘सरकारी दावा’ भी किया गया. इसके अलावा सरकार ने 2022 से 2025 के बीच इसमें और 6 लाख हेक्टेयर भूमि शामिल करने का लक्ष्य रखा था. 

मध्यप्रदेश के रायसेन ज़िला के अंतर्गत आने वाले औबेदुल्लागंज में पवन परेशान 2017 से ही पूर्णतः जैविक खेती कर रहे हैं. वह 4.5 एकड़ में खेती करते हैं और कई तरह की सब्ज़ियाँ और अन्य खाद्यान्न फ़सलें उगाते हैं. पवन परंपरागत कृषि विकास योजना के बारे में जानते तो हैं मगर उन्हें इसका कोई भी लाभ नहीं मिला.

farmer in vidisha
बीते 6 सालों से जैविक खेती कर रहे पवन को आज तक किसी भी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला

मॉडल जैविक क्लस्टर्स का हाल

इस योजना के अंतर्गत देशभर में 10 हज़ार क्लस्टर बनाए जाने थे. इसमें एक क्लस्टर 20 हेक्टेयर या 50 एकड़ का होगा. प्रत्येक क्लस्टर को इसके किसान सदस्यों के लिए कुल 10 लाख रूपए का सहयोग दिया जाना था. इसमें से 31 हज़ार रूपए प्रति हेक्टेयर एक किसान को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर के ज़रिए दिया जाना था.

इस योजना की पहली गतिविधि आदर्श जैविक क्लस्टर्स प्रदर्शन थी. इसमें कृषि विज्ञान केंद्र सहित कई सरकारी एजेन्सियों और किसान उत्पादक संगठन (FPO) को हर साल एक गाँव में एक आदर्श क्लस्टर प्रदर्शन करना था. इस प्रदर्शन में एक्स्पोज़र विज़िट सहित जैविक मेले का आयोजन, जैविक प्रमाणीकरण, और ट्रेनिंग जैसी कई गतिविधियाँ शामिल थीं.

सीहोर ज़िले के कोलास कलां में कृपाल सिंह वर्मा 15 एकड़ में जैविक खेती करते हैं. मगर उनकी जानकारी में ऐसी कोई भी गतिविधि उनके आस-पास नहीं आयोजित की गई. गौरतलब है कि इन गतिविधियों का उद्देश्य ज़्यादा से ज़्यादा किसानों को जैविक कृषि के लिए प्रेरित करना था. मगर वर्मा कहते हैं,

“जो भी किसान जैविक खेती कर रहा है वह खुद की प्रेरणा से कर रहा है. सरकारी योजनाएँ तो आती हैं और चली जाती हैं.”

हालाँकि सरकार के दावे के अनुसार 2019 से 2021 तक देश के 411 कृषि विज्ञान केंद्र इस गतिविधि के माध्यम से कुल 8 हज़ार 220 हेक्टेयर क्षेत्र कवर कर चुके हैं. 

इसके अलावा इस योजना की दूसरी गतिविधि आदर्श जैविक फ़ार्म की स्थापना थी. इसमें सरकारी कृषि संस्थानों में रासायनिक से जैविक फ़ार्म में परिवर्तन को दिखाने के लिए कम से कम 3 आदर्श जैविक फ़ार्म विकसित करने थे.

desi cotton seed
पवन के खेत में कपास के देसी बीज के कुछ पौधे मौजूद हैं, यह मध्यप्रदेश में काफी दुर्लभ है 

जैविक खेती की चुनौतियाँ

मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से लगभग 38 किमी दूर स्थित अपने खेत में घुमाते हुए पवन हमें जैविक खेती की चुनौतियों के बारे में बताते हैं. पवन के लिए जैविक खेती के लिए अपने परिजनों को मानना एक कठिन कार्य था. वह अपने पिता के खेत पर खेती तो करते हैं मगर इसके लिए वह साल भर में 25 हज़ार रूपए किराया अपने पिता को देते हैं.

“मेरे पिता को ढेर सारा उत्पादन चाहिए मगर मैं जैविक तरीके से कई तरह की फ़सल उगाता हूँ. ऐसे में हर फ़सल का थोड़ा-थोड़ा ही उत्पादन हो पाता है.”

पवन इस उत्पादन को अपनी जान-पहचान के ज़रिए भोपाल और नर्मदापुरम जैसे आस-पास के इलाके में बेचते हैं. यानि बीज बोने के लिए खेत तैयार करने से लेकर उत्पादन को बाज़ार में बेंचने तक सब कुछ पवन खुद से ही करते हैं. योजनाओं का लाभ मिलने के बारे में पूछने पर वो कहते हैं,

“मैं कई बार सरकारी दफ्तर गया हूँ मगर मुझे किसी भी योजना का कोई भी लाभ नहीं मिला.”

muniya marskole dindori
मुनिया मर्सकोले डिंडौरी में कई तरह के देसी बीजों को संरक्षित कर रही हैं

काम हमारे, यश सरकार का

मुनिया मर्सकोले डिंडौरी ज़िले के बैगाचक में जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही हैं. वह ना सिर्फ खेती करती हैं बल्कि देसी बीज बैंक बनाने में लोगों की मदद भी करती हैं. 9 फरवरी 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने एक्स अकाउंट से डीडी न्यूज़ की एक स्टोरी रीट्वीट की. यह स्टोरी डिंडौरी की ही एक महिला लहरीबाई के बारे में थी. 

इस दौरान पीएम मोदी ने लिखा,

“लहरीबाई पर गर्व है. उन्होंने श्री अन्न को लेकर गज़ब का उत्साह दिखाया है. यह दूसरों को प्रेरित करेगा.”

मगर मुनिया बताती हैं कि पीएम जिस बीज बैंक की बात कर रहे हैं वह पूरे गाँव ने मिलकर बनाया है. गौर करने वाली बात यह है कि मुनिया के अनुसार ऐसे बीज बैंक स्थापित करने में सरकार कोई भी सहयोग नहीं देती है. 

“सारा काम करें हम और सरकार नाम करे खुद का.”

कृषि उत्पादक संगठन: किसानों का नाम भर है?

किसान उत्पादक संगठन (Farmer Producer Organisation) या एफ़पीओ के रूप में किसान खुद की सहकारी समिति बनाते हैं. इस समिति के माध्यम से किसान रियायती दरों पर बीज, क़र्ज़ सहित अन्य लाभ उठा सकता है. साथ ही यह फसलों की बिक्री के लिए एक कंपनी की तरह कार्य करते हैं.

मगर मुनिया बताती हैं कि किसान उत्पादक संगठन किसानों के नाम से बन तो जाते हैं मगर इन्हें चलाता कोई और ही है. खुद औबेदुल्लागंज के पवन भी नहीं जानते कि उनके आस-पास कौन से एफ़पीओ कार्यरत हैं. वह कहते हैं कि इस बारे में कृषि विभाग से पूछने पर भी उनको कोई स्पष्ट जवाब नहीं मिला.

ध्यान देने योग्य बात है कि साल 2020 में केंद्र सरकार द्वारा ही देशभर में 10 हज़ार एफ़पीओ बनाने के लिए एक योजना लाई गई थी. इसके लिए सरकार द्वारा 6 हज़ार 865 करोड़ रूपए का बजट भी आवंटित किया गया था. दिसंबर 2023 को संसद में दी गई जानकारी के अनुसार 10 हज़ार में से तब तक 7 हज़ार 597 एफपीओ स्थापित किए जा चुके हैं.

बाज़ार उपलब्ध करवाए सरकार

लगभग सभी जैविक किसानों का मानना है कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार द्वारा बाज़ार में और अधिक मौके उपलब्ध करवाना बेहद ज़रूरी है. मुनिया अपनी अपेक्षा बताते हुए कहती हैं,

“जैसे सरकार गेहूं-धान में एमएसपी देती है ऐसे ही सभी मोटे आनाज (millets) में एमएसपी दे. साथ ही अन्तराष्ट्रीय बाज़ार से किसानों को सीधे जोड़ने के प्रयास विज्ञापनों के बाहर भी किए जाने चाहिए.”

हालाँकि देश में मोटे आनाज बोए जाने का क्षेत्रफल (area under cultivation) बढ़ा है. 2013-14 के दौरान यह 12.29 मिलियन हेक्टेयर था. जो 2021-22 में बढ़कर 15.48 मिलियन हेक्टेयर हो गया. मगर कितने किसानों को अन्तराष्ट्रीय बाज़ार से सीधे तौर पर जोड़ा गया इसका आँकड़ा सार्वजानिक जानकारी में नहीं है.

desi seed
मुनिया कहती हैं कि देसी बीजों के संरक्षण के बिना जैविक खेती संभव नहीं है

जैविक खेती पोर्टल के बारे में नहीं जानते किसान

जैविक पदार्थों के विक्रय के लिए सरकार द्वारा जैविक खेती पोर्टल भी लॉन्च किया गया था. यह एक ई-कॉमर्स प्लेटफ़ॉर्म है जिसका उद्देश्य जैविक किसानों को बाज़ार उपलब्ध करवाना है. फरवरी 2022 तक इस पोर्टल पर 5.56 लाख कृषकों ने पंजीकरण किया था. हमने मध्यप्रदेश के लगभग 10 किसानों (organic farmers) से इस पोर्टल के बारे में बात की जिनमें से किसी को भी इसके बारे में पता नहीं था. उनके अनुसार सभी जैविक किसान अपनी मेहनत से बनाए संपर्कों अथवा सोशल मीडिया के ज़रिए ही ग्राहक बनाता है. इसमें सरकार का कोई सहयोग नहीं मिलता.

क्षेत्रफल की दृष्टि से मध्यप्रदेश में 2 लाख 15 हज़ार 626.65 हेक्टेयर में जैविक खेती होती है. मगर प्रदेश में परंपरागत कृषि विकास योजना का हाल ऐसे समझिए कि वित्त वर्ष 2022-23 में इस योजना के तहत 5925.51 लाख रूपए तो आवंटित हुए मगर इसमें से एक रूपए भी केंद्र सरकार की ओर से रिलीज़ नहीं किए गए. इसका कारण जानने के लिए हमने मध्यप्रदेश के कृषि विभाग में संपर्क किया. मगर हमने अब तक कोई जवाब नहीं मिला है.

ऐसे में जलवायु परिवर्तन के दौर में जैविक खेती भले ही एक अनिवार्यता हो मगर इसके लिए सरकार केवल घोषणाओं में ही गंभीर है. योजना के लाभ से लेकर बाज़ार की उपलब्धता तक कई ऐसे सवाल हैं जो अब तक अनुत्तरित हैं.

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