बीता शुक्रवार पर्यावरण के लिहाज़ से महत्वपूर्ण या कहें कि एक मुश्किल दिन था. इस दिन ग्लोबल एवरेज टेम्प्रेचर प्री इंडस्ट्रियल टाइम के मुकाबले 2 डिग्री से भी अधिक था. इसे आसन भाषा में समझें तो ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए ग्लोबल टेम्प्रेचर को जितना होना चाहिए (1.5 डिग्री से कम) तापमान उससे ज़्यादा था. हालाँकि इसका मतलब यह नहीं हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के लिए तय तापमान की सीमा टूट गई है. क्योंकि यह सिर्फ एक दिन का तापमान है. लेकिन यह आँकड़ा आने वाले दिनों में क्लाइमेट क्राइसिस के और भी भयानक होने की ओर इशारा ज़रूर करता है. ऐसे में यह देखना ज़रूरी है कि क्लाइमेट क्राइसिस से निपटने में हम कहाँ खड़े हैं?
कार्बन उत्सर्जन के लिए अमीर ज़्यादा ज़िम्मेदार
ऑक्सफेम की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2019 में विश्व के 1 प्रतिशत अमीर लोग दुनिया के 2 तिहाई ग़रीबों की तुलना में अधिक कार्बन उत्सर्जित कर रहे हैं. क्लाइमेट क्राइसिस से पूरी दुनिया प्रभावित है मगर ग़रीब सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं. रिपोर्ट के अनुसार ग्लोबल साउथ में स्थित देश, गरीब और हाशिए के तबके के लोग क्लाइमेट क्राइसिस से उपजी समस्याओं से सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं. दुनिया के 2.5 बिलियन छोटे किसान अपनी फसलों को बचाने का संघर्ष कर रहे हैं. इसके अलावा अफगानिस्तान में आने वाला भूकंप और बढ़ती भुखमरी इसका एक और उदाहरण है.
बढ़ते तापमान की आँच झेलते मज़दूर
साल 2030 तक दुनिया भर के मज़दूर जितने घंटे काम करेंगे उसका 2% समय (working hour) हर साल कम हो रहा है. ऐसा गर्म हवा यानी हीट स्ट्रेक्स के चलते हो रहा होगा. एक अन्य अनुमान के मुताबिक साल 2030 तक भारत में 34 मिलियन लोग गर्म हवा (heatwaves) के चलते अपना रोज़गार खो चुके होंगे. वहीँ करीब 200 मिलियन लोग सीधे तौर पर लू और गर्म हवा का सामना कर रहे होंगे. इन परिस्थितियों के चलते साल 2037 तक वर्तमान की तुलना में एयर कंडिशनर की आवश्यकता 8 गुना बढ़ जाएगी. ज़ाहिर है भारत सहित दुनिया का ग़रीब तबका एसी के ज़रिए इस आवश्यकता को पूरा नहीं कर पाएगा. ऐसे में बढ़ते तापमान का सबसे ज़्यादा असर इस तबके पर ही पड़ेगा.
कितना तैयार हैं हम क्लाइमेट क्राइसिस के लिए?
पैरिस समझौते के अनुसार वैश्विक तापमान को औद्योगिक एरा से पहले के तापमान से 2 डिग्री से अधिक होने से रोकना आवश्यक है. मगर यूनाइटेड नेशन्स इन्वायरमेंट प्रोग्राम (UNEP) की एक रिपोर्ट के अनुसार क्लाइमेट एक्शन के वर्तमान प्रोजेक्टस की सफलता के बाद भी तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोकने की मात्र 14 प्रतिशत सम्भावना ही है. बीता सितम्बर अब तक का सबसे गर्म महीना रहा है. क्लाइमेट क्राइसिस के इस दौर में साल 2022 में जी-20 देशों ने जैव ईधन में 1.4 ट्रिलियन डॉलर खर्च किए हैं. ऐसे में यह निश्चित है कि क्लाइमेट क्राइसिस से निपटने के लिए हम तैयार नहीं हैं.
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