दिन शुक्रवार दिनांक 14 जुलाई, विदिशा के परासीख़ुर्द गाँव में खेतों के बीच स्थित एक घर में नन्नूलाल अहिरवार (80) को सीने में तेज़ दर्द होना शुरू हुआ. हालात बिगड़ते देख उनके पोते प्रीतम सहित गाँव के कुछ लोग उन्हें खटिया पर ही उठाकर अस्पताल की ओर दौड़ते हैं. गाँव के बाहर एम्बुलेंस भी खड़ी हुई है. मगर घर से एम्बुलेंस तक की दूरी नन्नूलाल के लिए लम्बी पड़ जाती है.
विदिशा से लगभग 30 किलोमीटर दूर स्थित परासीख़ुर्द गाँव में बीते शुक्रवार नन्नूलाल अहिरवार को अपनी जान गँवानी पड़ी. दरअसल परासीखुर्द में मुख्य रूप से 2 बस्तियां हैं. पहली मुख्य सड़क से लगी हुई सवर्ण बस्ती है जहाँ मुख्यतः राजपूत समुदाय के लोग रहते हैं. इसके अलावा दलित बस्ती में 10-12 परिवार रहते हैं. यह बस्ती खेतों के बीच स्थित है. इसलिए यहाँ से मुख्य सड़क तक जाने का कोई भी पक्का रास्ता नहीं है. दलित बस्ती से थोड़ी सी दूर खेतों के बीच ही श्मशान बना हुआ है. यहाँ जाने के लिए एक सरकारी कच्चा रास्ता है. यही रास्ता आगे जाकर दलित बस्ती को मुख्य सड़क से जोड़ता है. मगर बारिश के दिनों में कीचड़ और अवैध कब्ज़े के चलते यह रास्ता भी बंद हो जाता है.
इस कच्चे रास्ते पर मुख्य तौर पर राजपूत समुदाय के लोगों का कब्ज़ा है. जानकारी के मुताबिक उन्होंने श्मशान की भूमि पर भी कब्ज़ा कर रखा है. हालाँकि चूँकि कच्चा रास्ता पूरी तरह बंद था इसलिए हम श्मशान जाकर इस जानकारी की पुष्टि नहीं कर पाए.
सरकारी अस्पताल हो या दूसरा कोई गाँव, किसी भी जगह जाने के लिए दलित बस्ती के लोगों को इस कच्चे रास्ते से होकर ही मुख्य सड़क पर आना पड़ता है. मगर नन्नूलाल जब बीमार हुए तो बारिश के चलते मुख्य सड़क तक पहुँचना नामुमकिन हो गया. यही हाल उनके मरने के बाद अंतिम संस्कार के लिए श्मशान ले जाते हुए भी हुआ. अतः नन्नूलाल को जीते हुए न तो अस्पताल नसीब हुआ ना ही मरने के बाद श्मशान.
“एक से डेढ़ घंटा लगा था उनको (घर से एम्बुलेंस तक) लाने में. हम 4 लोग खटिया में पकड़ कर उनकों कीचड़ के बीच खेतों से होते हुए ले जा रहे थे. इसी में देर हो गई और हम उनको बचा नहीं पाए.” घटना के बारे में नन्नूलाल के पोते प्रीतम अहिरवार (23) बताते हैं. वह आगे कहते हैं,
“एम्बुलेंस भी सड़क तक ही आती है. कोई बीमार हो जाए तो उसको ऐसे ही ले जाना पड़ता है. पक्के रास्ता के लिए हमने ज्ञापन भी सौंपे मगर कोई सुनवाई नहीं होती”.
एक खेत में मृतक के पुत्र लखन अहिरवार खेतिहर मज़दूर के रूप में काम कर रहे हैं. यहीं इस खेत के मालिक शंकर सिंह राजपूत मौजूद हैं. घटनाक्रम और गाँव के बारे में पूछने पर शंकर हमें बार-बार लखन का इंतज़ार करने और उनके मुँह से ही सब सुनने को कहते हैं. हालाँकि शंकर सिंह की उपस्थिति में लखन हमसे ज़्यादा बात नहीं करते हैं. यह पूछने पर कि श्मसान का रास्ता किसने रोका हुआ है वह बेहद दबी आवाज़ में जवाब देते हैं, “गाँव के पटेलों ने.”
अतिक्रमण की बात शंकर भी स्वीकार करते हैं मगर यह कब्ज़ा राजपूतों द्वारा किया गया है, इस बात से वह साफ़ इनकार कर देते हैं. वह कहते हैं कि इस गाँव में क़रीब 80 प्रतिशत लोग अपने खेतों में ही अंतिम संस्कार करते हैं. हालाँकि आगे जोड़ते हुए वह यह भी कहते हैं कि राजपूत समाज के लोग बीते 2-3 साल से अपने परिजनों को दूसरे श्मशान ले जाकर उनका अंतिम संस्कार करते हैं.
लखन के पुत्र प्रीतम हमें उनके घर चलने और खुद रास्ता देखने के लिए कहते हैं. इस पर शंकर प्रीतम से कहते हैं, “वो जा कैसे पाएँगे, ये तो शाम तक भी नहीं पहुँच पाएँगे”. प्रीतम हमसे बताते हैं कि यदि कोई भी व्यक्ति बाहर से आता है तो उसे यह बाहर से ही लौटाने का प्रयास करते हैं.
हमारे जोर देने पर प्रीतम हमें अपने घर ले जाते हुए बताते हैं कि उनके पिता इसलिए ज़्यादा नहीं बोलते हैं ताकि किसी भी तरह की लड़ाई न हो. विवाद के डर से ही वह किसी का नाम लेकर कोई भी आरोप लगाने से बचते हैं. प्रीतम हमें श्मशान जाने वाला सरकारी रास्ता दिखाते हैं. यह रास्ता इस दिन कीचड़ से इस क़दर पटा हुआ है कि उस पर चलना भी ना मुमकिन लगता है. इसलिए फ़ोटो लेने के बाद हम आगे बढ़ जाते हैं.
प्रीतम के साथ खेतों के बीच से होते हुए हम दलित बस्ती की और बढ़ रहे है. घटना के दिन इसी रास्ते से लेकर जाते हुए नन्नूलाल की मौत हुई थी. जिन खेतों से होकर हम बस्ती की ओर जा रहे हैं वह भी राजपूत समुदाय के लोगों के ही हैं.
प्रीतम बताते हैं, “यह रास्ता भी ये लोग (सवर्ण ज़मीदार) बार-बार काँटे वगैरह रख कर बंद कर देते हैं और कहते हैं कि इधर से मत जाओ.”
गाँव की दलित बस्ती के रहने वाले दयाल सिंह जाटव कहते हैं, “यदि किसी महिला के डिलेवरी का समय आता है तो कच्चे रास्ते से ही ले जाना पड़ता है ऐसे मे बहुत बार मिसकैरेज भी हो जाता है.” वह बताते हैं कि हाल ही में 2 ऐसे मामले हो चुके हैं. यह दोनों घटनाएँ ब्राम्हण समुदाय से ताल्लुक रखने वाले परिवारों में हुई हैं. हमारे यह पूछने पर कि क्या उनके द्वारा सड़क बनवाने के लिए कोई दबाव बनाया गया है? वह कहते हैं,
“रास्ते में ज़्यादातर उनके परिवारवालों की ज़मीन है. वो उनसे बुराई नहीं लेना चाहते हैं इसलिए वो कुछ नहीं बोलते हैं.”
दलित बस्ती में रहने वाले लोग बताते हैं कि साल 1965 में इस क्षेत्र में नदी का बहाव तेज़ होने से बाढ़ आई थी. जिससे इस बस्ती में रहने वाले ज़्यादातर लोगों को अपने स्थान से विस्थापित होना पड़ा था. इसके बाद उन्हें मौजूदा जगह पर पट्टे दिए गए थे. अपनी भूमि का कुछ हिस्सा वे खेती के लिए इस्तेमाल करते हैं और शेष हिस्से में उन्होंने घर बना रखे हैं. बस्ती के मुख्य सड़क से कटे रहने के चलते यहाँ के लोगों को प्रतिदिन समस्या का सामना करना पड़ता है. जाटव बताते हैं कि रास्ता ख़राब होने के कारण बच्चे अक्सर स्कूल नहीं जा पाते हैं. इसी तरह प्रीतम की बहन बबिता बताती हैं कि उनकी शादी के दौरान भी आधे मेहमान केवल रास्ता ख़राब होने के कारण शामिल नहीं हो पाए थे.
ग्राम पंचायत के सरपंच हिम्मत सिंह राजपूत ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए कहते हैं,
“रास्ता बनाने के लिए आम सहमती बनाने के प्रयास किए गए थे. 4 से 5 महीने पहले पक्की सड़क की स्वीकृति के लिए एसडीएम के पास भी आवेदन किया था. अभी बारिश का मौसम है, इस मौसम के बाद ही सड़क का काम शुरू किया जाएगा.”
हमने उनसे पूछा कि यदि यह सड़क बरसों से नहीं बनी है तो इस पर पहले विचार क्यों नहीं किया गया. इस पर वह कहते हैं, “मेरे से पहले जो सरपंच थे उन्होंने इसपर ध्यान नहीं दिया. मैने अपने कार्यकाल में 150 मीटर लम्बी आरसीसी वाली सड़क बनवाई है.” पटवारी मनीष साहू भी एसडीएम कार्यालय वाली बात दोहराते हैं. कब्ज़े के प्रश्न पर वह कहते हैं, “हमें कब्ज़े की खबर मिली थी जिसे छुड़वाकर हमने फेंसिंग करवा दी थी. अब केवल गाय को चराने के लिए ही उसका उपयोग होता है.”
यह पूरी घटना और समस्या ऊपर-ऊपर से देखने पर ज़मीन से जुड़ा हुआ मुद्दा लगती है. मगर इसके केंद्र में जातिवाद है. बस्ती के लोगों से बात करके लौटने पर गाँव के बाहर शंकर सिंह सहित 3-4 राजपूत समुदाय के लोग खड़े मिलते हैं. इस दौरान हमसे बात करते हुए शंकर पीड़ित समुदाय को गालियाँ देते हुए कहते हैं, “ये लोग जूते खाने वाले काम करते ही हैं.”
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