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भारत को एलपीजी से नहीं सौर आधारित रसोई से हासिल होगा नेट ज़ीरो लक्ष्य 

अगर 58 सालों के अथक प्रयासों के बाद भी दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में लगभग आधी आबादी बायोमास जलाकर खाना बना रही है तो ज़रुरत है कि हम अपनी एलपीजी आधारित रसोई ईंधन नीति पर दोबारा विचार करें।

By Pallav Jain
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LPG is not clean cooking fuel

Read in English: ग्लासगो में आयोजित हुई COP26 में भारत ने वर्ष 2070 तक नेट ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने का वादा दुनिया से किया है, यह जलवायु वैज्ञानिकों द्वारा तय की गई 2050 तक की समयसीमा से 20 वर्ष अधिक है। भारत जैसा देश जिसकी 70 फीसदी उर्जा निर्भरता आज भी कोयले पर हो उसके लिए समय पर यह लक्ष्य हासिल करना किसी चुनौती से कम नहीं है। 

भारत विश्व के सबसे ज्यादा कार्बन उत्सर्जित करने वाले देशों में से एक है। हालांकि भारत में  प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की बात करें तो यह वैश्विक औसत से काफी कम है। भारत नेट ज़ीरो लक्ष्य हासिल करने के लिए दो रास्तों पर चल रहा है, पहला कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए 50 फीसदी ऊर्जा नवीकरणीय स्त्रोतों से प्राप्त करना और दूसरा वन आवरण में बढ़ोतरी कर उत्सर्जित कार्बन को अवशोषित करना। 

तरलीकृत पेट्रोलियम गैस (एलपीजी): स्वच्छ ईंधन की तरह प्रचारित

22 अक्टूबर 1965 में पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय के सार्वजनिक उपक्रम, इंडियन ऑयल ने भारत में पहला एलपीजी कनेक्शन जारी किया था, उद्देश्य था लोगों को लकड़ी-कंडे और कैरोसीन से चलने वाले चूल्हे के धुंए से आज़ादी दिलाना और हर घर को स्वच्छ रसोई ईंधन से जोड़ना। एक रिपोर्ट के मुताबिक वातावरण में मौजूद प्रदूषण में 20-50 फीसदी प्रदूषक कण ठोस ईंधन को जलाने की वजह से पैदा होते हैं। घर के अंदर होने वाले प्रदूषण से मुख्यत: महिलाओं को कई तरह की स्वास्थ्य संबंधी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। एलपीजी बायोमास की तुलना में एक बेहतर और स्वच्छ विकल्प है। विश्व एलपीजी असोसिएशन की रिपोर्ट के मुताबिक लकड़ी से एलपीजी की तुलना में 5 गुना ज्यादा कार्बन उत्सर्जित होता है। एन अन्य रिपोर्ट के मुताबिक एलपीजी कोयले के मुकाबले 50 फीसदी और हीटिंग ऑयल के मुकाबले 20 फीसदी कम कार्बन उत्सर्जित करता है। 

केंद्र और राज्य सरकारों ने घर-घर स्वच्छ रसोई गैस पहुंचाने के लिए  अब तक कई योजनाएं चलाई हैं। 

Empty gas cylinder resting in the corner of the under-construction segment of the house Village Samasgarh, district Bhopal, Madhya Pradesh | Photo: Rajeev Tyagi
मध्यप्रदेश के भोपाल जिले के अंतर्गत आने वाले समसगढ़ गांव में घर के एक कोने में खाली पड़ा गैस सिलिंडर | फोटो राजीव त्यागी

प्रधानमंत्री उज्जवला योजना

एलपीजी कनेक्शन के सवाल पर बुगलीवाली गांव के राशिद कहते हैं

“मुझे उज्जवला योजना के तहत एलपीजी कनेक्शन मिला था लेकिन मैने अपना सिलिंडर शहर में रहने वाले रिश्तेदार को दे दिया। मज़दूरी करके दिन में 200 से 300 रुपए ही मिलते हैं, महीने में बमुश्किल 20 दिन ही काम मिलता है। ऐसे में आप ही बताईये हज़ार रुपए का सिलिंडर कैसे भरवाउं?”

राशिद अकेले नहीं हैं, मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 50 किलोमीटर दूर हथियाखेड़ा ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले बुगलीवाली, भट्टा, चोर इमली और चित्रा में हर घर में यही तस्वीर देखने को मिलती है। यहां लोग बिजली, पानी, सड़क  और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रुरतों के लिए तरस रहे हैं। ज्यादातर पुरुष मज़दूरी करते हैं। कुछ पार्ट टाईम खेती भी करते हैं। घर और मवेशियों की देखभाल, कई किलोमीटर चलकर पानी लाना और चूल्हा जलाने के लिए ईंधन की व्यवस्था करना, गोबर के कंडे बनाना महिलाओं की ज़िम्मेदारी है। लकड़ी और कंडे जलाने से न सिर्फ घर में प्रदूषण होता है बल्कि इससे ग्रीन हाउस गैसेस भी निकलती हैं।  

Manju making tea on the chulha in Samasgarh village, Bhopal district | Photo by Rajeev Tyagi
चूल्हे पर चाय बनाती हुई मंजू, ग्राम समसगढ़, जिला भोपाल | फोटो राजीव त्यागी

भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2023 तक भारत में सक्रीय घरेलू गैस उपभोक्ताओं की कुल संख्या 31.36 करोड़ पर पहुंच चुकी है। इसी के साथ भारत में एलपीजी कवरेज 104.1 फीसदी हो गया है। इसमें 2016 में शुरु हुई उज्जवला योजना का बड़ा योगदान रहा है, क्योंकि 30 जनवरी 2023 तक कुल 9.58 करोड़ उज्जवला कनेक्शन सरकार ने गरीब परिवार की महिलाओं को बांटे हैं। 

LPG Coverage in India b 2023 gfx in hindi
ग्राफिक्स स्त्रोत: PPAC पेट्रोलियम योजना एवं विश्लेषण प्रकोष्ठ 

25 वर्षीय अफसाना बुगलीवाली गांव में 2 कमरे के मकान में रहती हैं। वो घर के कोने में पड़े गैस चूल्हे से धूल झाड़ती हैं और बताती हैं

"जब मैं 3 साल पहले 2020 में शादी करके यहां आई थी, तब बस एक बार गैस पर खाना बनाया था, उसके बाद कभी मेरे पति सिलिंडर भरवाकर नहीं लाए।"

अफसाना की सास को यह गैस चूल्हा वर्ष 2019 में उज्जवला योजना के तहत मिला था, जो अब कबाड़ में पड़ा है। 

Gas stove lying in junk at Afsana's house, location village Bugliwali | Photo Raeev Tyagi
घर के कोने में कबाड़ में पड़ा गैस चूल्हा और सिलिंडर, ग्राम बुगलीवाली, मध्यप्रदेश | फोटो राजीव त्यागी

नैशनल फैमिली हेल्थ सर्वे की पांचवी रिपोर्ट के मुताबिक भारत में आज भी 43.3 फीसदी घरों में लकड़ी-कंडे से जलने वाले चूल्हे ही खाना पकाने के लिए पहली पसंद है, वजहें व्यवहारिक और आर्थिक हैं। 

एलपीजी इस्तेमाल न करने का कारण: सोच में बदलाव न होना

ग्रामीण इलाकों में रसोई गैस और लकड़ी से चलने वाला चूल्हा दोनों इस्तेमाल हो रहे हैं। ग्रामीण स्वीकारते हैं कि रसोई गैस से काम आसानी से हो जाता है, जैसे बटन दबाओ और चाय बना लो। गांव में मान्यता है कि चूल्हे पर बनी रोटी का स्वाद ज्यादा अच्छा होता है। वहीं गैस पर आग लगने का भी डर लोगों को रहता है। बुगलीवाली गांव की सलमा बी कहती हैं

“मुझे गैस चूल्हा इस्तेमाल करने में डर लगता है, कहीं घर में ही आग न लग जाए? अगर कोई अच्छे से सिखा देता तो शायद थोड़ा डर कम हो जाता। मैं अभी भी लकड़ी जलाकर खाना बनाने में ही ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हूं।”

चूल्हे पर खाना बनाती महिला
60 वर्षीय सायरा को गैस कनेक्शन नहीं मिला है, वो चूल्हे पर ही खाना बनाती हैं, ग्राम बुगलीवाली । फोटो राजीव त्यागी

उज्जवला योजना के अंतर्गत केवाईसी नियम कहते हैं कि गैस डिस्ट्रीब्यूटर को कनेक्शन देने से पहले घरों में जाकर सुरक्षा जांच करनी होगी और कनेक्शन लग जाने के बाद इंस्टॉलेशन सर्टिफिकेट देना होगा। इसके तहत एलपीजी धाकर को सुरक्षा उपाय और गैस चूल्हे का इस्तेमाल करना सिखाना होता है। 

हालांकि, भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) की 11 दिसंबर 2019 में जारी हुई रिपोर्ट के मुताबिक-

“चयनित एलपीजी वितरकों के फील्ड ऑडिट के दौरान एक सैंपल जांच से पता चला कि 2367 मामलों (12.75 प्रतिशत) में एसवी के साथ इंस्टॉलेशन सर्टिफिकेट संलग्न नहीं किए गए थे। इसके अलावा, चार एलपीजी वितरकों के मामले में, ऑडिट में पाया गया कि 11906 उज्जवला कनेक्शनों में से किसी के लिए भी इंस्टॉलेशन सर्टिफिकेट उपलब्ध नहीं थे।”

Rukhsana resident of Bugliwali village can’t see properly, cooking on Chulha is difficult for her many times her hands get burned | Photo Rajeev Tyagi
बुगलीवाली गांव की रुकसाना की आंखों की रौशनी कमज़ोर हो चुकी है, ऐसे में चूल्हे पर खाना पकाने में कई बार उनके हाथ जल जाते हैं, ग्राम बुगलीवाली, फोटो राजीव त्यागी

अभी भी लकड़ी बटोरकर खाना बनाने के पीछे खड़ी आर्थिक वजहें

हथियाखेड़ा ग्राम पंचायत के अंतर्गत आने वाले चार गांव जंगल के बेहद करीब हैं। यहां जंगल से लकड़ी इकट्ठा करने का काम परंपरागत तौर पर महिलाएं ही करती आई हैं। अगर महिलाओं द्वारा लकड़ी लाने के लिए खर्च किए जाने वाले समय और मेहनत का आर्थिक मूल्यांकन न किया जाए तो एक तरह से लकड़ी ग्रामीणों को मुफ्त में ही उपलब्ध है। इसीलिए रसोई गैस कनेक्शन होते हुए भी ज्यादातर घरों में चूल्हा आज भी जलाया जा रहा है। 

हर घर में हर दिन करीब 10 किलो लकड़ी का इस्तेमाल होती है। ग्रामीण कहते हैं कि जंगल से सूखी लकड़ी लाने से वन विभाग के अधिकारी नहीं रोकते लेकिन बारिश में थोड़ी समस्या होती है। बारिश में लकड़ी भीग जाती है जिससे लकड़ी आसानी से नहीं जलती और घर में धुंआ भी अधिक होता है। जब लकड़ी पूरी तरह नहीं जल पाती तो उससे ब्लैक कार्बन निकलता है जो एक अहम ग्रीन हाउस गैस होती है। 

क्रय शक्ति क्षमता के आधार पर भारत में एलपीजी की प्रति लीटर कीमत दुनिया में सबसे अधिक हो चुकी है। पिछले आठ सालों में घरेलू एलपीजी सिलिंडर की कीमत 144 फीसदी बढ़ चुकी है जिसकी वजह से स्वच्छ ईंधन भारत के गरीबों के लिए खरीदना असंभव हो गया है। 

LPG PRICE HIKE IN 10 Years GFX Hindi

कॉम्पट्रोलर ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया की ऑडिट रिपोर्ट में भी यह सामने आया है कि साल 2016 के बाद से गैस सिलिंडर की रीफिलिंग में लगातार गिरावट दर्ज की जा रही है। 31 दिसंबर 2018 तक दर्ज 3.18 करोड़ उज्जवला योजना कनेक्शन धारकों ने साल में औसतन 3.21 बार रीफिलिंग करवाई, जबकि योजना के तहत साल में 12 सिलिंडर सब्सिडी के साथ दिए जाते हैं। मार्च 24, 2023 को भारत सरकार  ने उज्जवला कनेक्शन धारकों को साल में 12 सिलिंडर पर दी जाने वाली 200 रुपए प्रति सिलिंडर सब्सिडी जारी रखने का ऐलान किया है। 

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ग्राफिक्स स्त्रोत: IOCl (इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड)  MOPNG (पेट्रिलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय भारत सरकार) PMUY (प्रधानमंत्री उज्जवला योजना)

आमना बी लकड़ी का ढेर और अपने हाथ के छाले दिखाते हुए कहती हैं,  

“भैया मुझे गैस कनेक्शन नहीं मिला, चूल्हे पर खाना बनाने में मुश्किल होती है, धुएं से आंखों में जलन होती है। हमारी कोई सुनने वाला नहीं है। हम किसे अपनी समस्या सुनाएं?” 

Aamna Bi said half of her day is spent in getting wood for the stove and cooking. Location- Village Bugliwali |  Photo Rajeev Tyagi
आमना बी का आधान दिन चूल्हे के लिए लकड़ी लाने और खाना बनाने में बीत जाता है, ग्राम बुगलीवाली, फोटो -राजीव त्यागी

शहरों मेंं रहने वाले गरीब परिवारों की समस्या अलग है

जंगल के करीब बसे गांवों में लोग लकड़ी जलाकर खाना बना सकते हैं लेकिन शहरों में यह संभव नहीं है।  भोपाल शहर की दुर्गा नगर झुग्गी बस्ती में 2 कमरों के बिना वैंटिलेशन वाले मकान मे रहने वाली काजल खाना बनाने के लिए रसोई गैस पर ही निर्भर हैं। लेकिन जब गैस भरवाने के लिए पैसे न हो तबके लिए उन्होंने लकड़ी से जलने वाले चूल्हे का प्रबंध भी कर रखा है। काजल कहती हैं

“कई बार पैसे नहीं होते तो गैस सिलिंडर खाली ही पड़ा रहता है, तब मैं लकड़ी से जलने वाले चूल्हे का प्रयोग करती हूं। शहर में लकड़ी भी मुश्किल से मिलती है इसलिए कई बार कार्ड बोर्ड, गन्ने के सूखे छिलकों का प्रयोग कर चूल्हा जलाती हूं। धुंए से तकलीफ होती है लेकिन कोई और उपाय भी नहीं है”

In Bhopal's Durga Nagar slum, an iron stove that uses wood and dung  is used as an alternative to gas cylinders | Photo: Rajeev Tyagi
भोपाल की दुर्गानगर बस्ती में लोगों ने लोहे के चूल्हे खरीद रखे हैं जिसे वो गैस की खपत कम करने के लिए विकल्प के तौर पर इस्तेमाल करते हैं । फोटो राजीव त्यागी
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भोपाल के दुर्गानगर बस्ती में रहने वाली काजल इस लोहे के चूल्हे पर रसोई गैस भरवा पाने की स्थिति में खाना बनाती हैं। फोटो राजीव त्यागी

काजल, अफसाना और आमना बी जैसी कई महिलाएं चूल्हे के धुंए से अज़ादी चाहती हैं लेकिन घर के आर्थिक हालातों को देखकर वो कभी अपने लिए गैस सिलिंडर भरवाने की ज़िद नहीं करती।

एलपीजी का कार्बन फुटप्रिंट 

एलपीजी बायोमास की तुलना में स्वच्छ ज़रुर है लेकिन इसे स्वच्छतम ईंधन नहीं कहा जा सकता। LPG यानी लिक्वीफाईड पेट्रोलियम गैस कच्चे तेल को रिफाईन कर प्राप्त की जाती है, जो दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जक है।

साथ ही भारत में एलपीजी की उपलब्धता बड़ी मात्रा में दूसरे देशों से आयात पर निर्भर है। बीपी एनर्जी आउटलुक की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2040 तक प्राकृतिक गैस के लिए भारत की दूसरे देशों पर निर्भरता 60 फीसदी हो जाएगी, जो 2018 में 45 फीसदी पर थी। 

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ग्राफिक्स स्त्रोत: Oil Analytics Firm Vortexa

एलपीजी के इस्तेमाल में होने वाले उत्सर्जन के अलावा इसके सप्लाई चेन में भी कार्बन उत्सर्जित  होता है। भारत में गैस सिलिंडर के वितरण के लिए मुख्यतः ट्रक और वैन का इस्तेमाल होता है, जो पेट्रोल और डीज़ल से चलते हैं। एक स्टडी के मुताबिक एक 14.2 किलो ग्राम सिलेंडर को ट्रांस्पोर्ट करने में प्रति किलोमीटर औसतन 60 ग्राम कार्बन उत्सर्जित होता है। 

सोलर थर्मल कुकिंग एक अच्छा विकल्प हो सकता है

इंदौर स्थित स्टार्टअप ‘स्वाहा रिसोर्स मैनेजमेंट प्राईवेट लिमिटेड’ सौर ऊर्जा को वैकल्पिक ईंधन के तौर पर आगे बढ़ाने का काम कर रही है। इनका एक उत्पाद है ‘पैराबॉलिक सोलर कंसंट्रेटर’ जिसपर पारंपरिक बॉक्स वाले सोलर कुकर की अपेक्षा तेज़ी से खाना बनाया जा सकता है। सोलर कंसंट्रेटर की पैरोबॉलिक डिश सूरज की रौशनी को रिफ्लेक्ट कर एक जगह पर केंद्रित कर देती है, जिससे हीट पैदा होती है। 1 मीटर व्यास वाली पैराबॉलिक डिश की कीमत 10 हज़ार से 12 हज़ार के बीच होती है, जिससे 100 से 150 डिग्री तक तापमान हासिल किया जा सकता है। 

SK14 Parabolic Solar Concentrator is mounted on top of the Emsen burner dish | Photo: Rajeev Tyagi
यह पैराबॉलिक सोलर कंसंट्रेटर का एसके 14 मॉडल है, इसमें बर्नर छतरी के ऊपर ही होता है।  फोटो राजीव त्यागी

लेफ्टिनेंट कर्नल(सेवा निवृत्त) अनुराग शुक्ल और उनकी पत्नी श्रीमती अर्चना शुक्ल इंदौर के पास महू शहर में रहते हैं। वो वर्ष 1992 से पारंपरिक बॉक्स सोलर कुकर और पिछले 5 सालों से स्वाहा द्वारा निर्मित पैराबॉलिक थर्मल सोलर कुकर का उपयोग कर रहे हैं। 

अर्चना शुक्ल कहती हैं,

“सोलर कुकर पर बने खाने का स्वाद बहुत अच्छा होता है। ज्यादा गैस खपत वाले काम हम सोलर कुकर पर करते हैं बाकि गैस पर। इसकी वजह से हमारा गैस सिलिंडर 2 से ढाई महीने चल जाता है।” शुक्ला दंपत्ती ने हाली ही में अपनी बेटी को 4 हज़ार की कीमत का सोलर कुकर तोहफे में दिया है।"

Archana Shukla cooking food on the prince solar concentrator on the roof of her house in Mhow, Madhya Pradesh | Photo: Rajeev Tyagi
अर्चना शुक्ला महु स्थित अपने घर पर सोलर कंसंट्रेटर के प्रिंस मॉडल पर खाना पकाते हुए। फोटो राजीव त्यागी

2.5 मीटर व्यास वाले बड़े सोरल कंसंट्रेटर में 350-400 डिग्री सेल्सियस तक तापमान हासिल किया जा सकता है। इसकी कीमत 75 हज़ार तक होती है जिसे व्यवसायिक और बड़े परिवार के लिए इस्तेमाल में लाया जा सकता है। 

Rajendra Singh cooking food on Prince model of solar concentrator,  Village Asrawad Buzurg | Photo: Rajeev Tyagi<br />
राजेंद्र सिंह सोलर कंसंट्रेटर के प्रिंस मॉडल पर खाना बनाते हुए, ग्राम असरावद बुजुर्ग, फोटो राजीव त्यागी

इंदौर के करीब ग्राम असरावद बुजुर्ग में रहने वाले राजेंद्र सिंह गुड्स ट्रेन मैनेजर की पोस्ट से सेवानिवृत्त हुए हैं, उन्होंने साल 2017 में सोलर कंसंट्रेटर खरीदा था । राजेंद्र बताते हैं,

"रोटी को छोड़ दें तो सारा खाना सोलर कंसंट्रेटर पर ही हम बनाते हैं। एलपीजी की तुलना में इसमें खाना जल्दी बना जाता है अगर धूप अच्छी है तो, अगर मौसम खराब है तो बहुत धीरे काम होता है, सबकुछ सूरज पर निर्भर है… हां गैस सिलिंडर की खपत कम हुई है, अब दो महीने से ज्यादा सिलिंडर चल जाता है।"

सोलर कंसंट्रेटर पर खाना बनाना पूरी तरह सूरज की रौशनी पर निर्भर है। एक रीसर्च में यह पाया गया कि सोलर कंसंट्रेटर के एसके 14 मॉडल पर 250 एमएल पानी उबालने और 100 ग्राम चावल को पकाने में 20 मिनट का समय लगा, वहीं 100 एमएल दूध को पकाने में 10 मिनट का समय लगा। वहीं एलपीजी से खाना पकाने में लगने वाले समय पर किए गए अध्ययन के  मुताबिक 875 ग्राम चावल को 3 किलोग्राम पानी के साथ पकाने  में 29 मिनट का समय लगा वहीं 100 एमएल दूध के साथ चाय बनाने में 9 मिनट का समय लगा (14 g + 75 g sugar + 100 ml milk)। 

Sameer Sharma, the co-founder of Swaaha, explaining the working of Scheffler solar concentrator works | location Indore, Madhya Pradesh | Photo: Rajeev Tyagi
स्वाहा के को-फाउंडर समीर शर्मा, सोलर कंसंट्रेटर के शेफलर मॉडल का कार्य समझाते हुए। स्थान- इंदौर, फोटो राजीव त्यागी

जनक पलटा मगिलिगन जिन्हें लोग जनक दीदी के नाम से जानते हैं, इंदौर के करीब सनावदी गांव में रहती हैं। वो पिछले कई वर्षों से सोलर कुकर पर खाना बना रही हैं। 

जनक दीदी कहती हैं-

“मेरे घर में  साल में बमुश्किल एक या दो सिलिंडर की ही खपत होती है, वो भी तभी इस्तेमाल होता है जब मौसम खराब हो। बाकी सारा काम पैराबॉलिक सोलर कुकर पर ही होता है।”

स्वाहा अब ऐसे सोलर कंसंट्रेटर्स का निर्माण कर रहा है जिसकी मदद से एक पूरे शैक्षणिक संस्थान की ऊर्जा ज़रुरत को पूरा किया जा सकता है।  इन सोलर कंसंट्रेटर्स का उपयोग अमरनाथ यात्रा जैसे धार्मिक आयोजनों में भी बड़ी सफलता के साथ किया जा रहा है।

नवाचार की संभावनाएं

स्वाहा के को-फाउंडर समीर शर्मा इस बात को स्वीकारते हैं कि घरेलू उपयोग वाले सोलर कंसंट्रेटर के लिए खुली जगह की ज़रुरत होती है, जो शहरी इलाकों में लोगों के पास आसानी से उपलब्ध नहीं है। साथ ही अभी ऊर्जा को स्टोर करने की सुविधा नहीं होने की वजह से सोलर कंसंट्रेटर पर रात में खाना बनाना संभव नही है। हालांकि स्वाहा ऐसे मॉडल बनाने पर काम कर रही है जिसमें थर्मल एनर्जी के रुप में ऊर्जा को स्टोर किया जा सकेगा।

A specially designed mobile solar concentrator for food stalls | Photo: Rajeev Tyagi
फूड और टी वेंडर्स के लिए खास सोलर कार्ट बनाई गई हैं, जिसमें सोलर कंसंट्रेटर लगाया गया है। फोटो-राजीव त्यागी

समीर कहते हैं 

“पैराबॉलिक सोलर कंसंट्रेटर आज के दौर की स्वच्छतम ऊर्जा तकनीक है, इसमें सिलिकॉन से बने फोटोवॉल्टिक सेल की भी ज़रुरत नहीं होती। अगर भारत अभी से सोलर कंसंट्रेटर को बढ़ावा देने का काम करे तो दूसरे देशों की तुलना में बेदह तेज़ गति से नेट ज़ीरो का लक्ष्य हासिल कर सकता है वो भी भारत के गरीब और पिछड़े समाज के लोगों को साथ लेकर।”

भारत सरकार भी इंडियन ऑयल और पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस मंत्रालय द्द्वारा विकसित किए गए हाईब्रिड सूर्य नूतन सोलर कुकटॉप के ज़रिए देश में सोलर कुकिंग को बढ़ावा देने का प्रयास कर रही है। वर्ष 2021 में भारत के 5 शहरों (लेह, अगाती आईलैंड (लक्षद्वीप) ग्लालियर, उदयपुर और दिल्ली एनसीआर) में 50 परिवारों को सूर्य नूतन सोलर कुकटॉप ट्रायल के तौर पर इस्तेमाल के लिए दिया गया था। सूर्य नूतन में सोलर पैनल लगा होता है जिसे छत पर रखा जा सकता है, इससे जुड़ा होता है एक हाईब्रिड कुकटॉप जो बिजली और थर्मल बैटरी की मदद से चल सकता है। हाईब्रिड होने की वजह से इसे हर मौसम में इस्तेमाल किया जा सकता है। इसमें सिंगल और डबल बर्नर मॉडल उपलब्ध करवाए गए हैं जिनकी कीमत 12 हज़ार रुपए से 23 हज़ार रुपए के बीच रखी गई है। 8 फरवरी 2023 को बैंग्लोर में आयोजित इंडिया एनर्जी वीक में पीएम मोदी ने कहा कि आने वाले कुछ सालों में सूर्य नूतन सोलर कुकटॉप भारत के 3 करोड़ परिवारों में वितरित किए जाएंगे।

सूर्य नूतन
स्त्रोत: iocl ( इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन)

सौर ऊर्जा को अपनाने की ज़रुरत

आईपीसीसी की 2023 की रिपोर्ट के मुताबिक धरती के तापमान को 1.5 °C तक सीमित ऱखने के लिए हमें आज से ही गंभीर होकर शुरुवात करनी होगी। हमारी नीतियों और कार्रवाई में इस दशक के अंत तक 2019 के स्तर से ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन को 43% और CO2 उत्सर्जन को 48% तक कम करने का लक्ष्य होना चाहिए। खाना पकाने के लिए सौर ऊर्जा जैसी नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग एक लंबा रास्ता तय कर सकता है। नवीकरणीय ऊर्जा-चालित माध्यमों के ज़रिए खाना पकाने से कार्बन उत्सर्जन को लगभग शून्य तक कम करने में मदद मिलेगी। न सिर्फ इससे पैसों की बचत होगी बल्कि लोगों को इसकी वजह से घर में होने वाले प्रदूषण से निजात मिलेगी और जंगल से लकड़ी लाने के जो जोखिम है उससे भी मुक्ति मिलेगी। 

कार्बन आधारित ऊर्जा से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर जाना ऊर्जा परिवर्तन का मूल है। इसका उद्देश्य खाना पकाने सहित सभी मानव गतिविधियों से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को समाप्त करना है। भारत सरकार बिजली उत्पादन और परिवहन के लिए गैर-जीवाश्म आधारित ईंधन को बढ़ावा दे रही है। लेकिन खाना पकाने के ईंधन के मामले में अब भी एलपीजी पर नीतियां केंद्रित हैं।अगर 58 सालों के अथक प्रयासों के बाद भी दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश में लगभग आधी आबादी बायोमास जलाकर खाना बना रही है तो ज़रुरत है कि हम अपनी एलपीजी आधारित रसोई ईंधन नीति पर दोबारा विचार करें। अक्षय ऊर्जा से भोजन पकाने पर जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हमारी लड़ाई अधिक समावेशी मज़बूत और कुशल होगी।

This story is produced with the support of the Earth Journalism Network’s Pathways to Net Zero Story Grants.

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