प्रिंस मूल रूप से हरियाणा के शहर सिरसा के रहने वाले हैं और एक मध्यवर्गीय़ परिवार से आते हैं. वे गुरूग्राम की एक निजी कंपनी में काम करते हैं. उनके परिवार में माता-पिता और एक छोटा भाई है जो कि सिरसा में ही रहते हैं. उनकी एक बहन भी थी, प्रीती, जिसकी 18 वर्ष की उम्र में कैंसर की वजह से मौत हो गई थी।
अपनी बहन को याद करते हुए प्रिंस बताते हैं,
“जब वो बीमार हुई तो उनके परिवार के लिए ये समय बहुत ही पीड़ादायक था. हमने अपनी तरफ से हर संभव कोशिश की कि प्रीती को बचाये जा सके. उसके इलाज में करीब 15-20 लाख रूपये भी खर्च हुए, जो कि 2010 में बहुत बड़ी रकम थी। इसके लिए हमें अपना घर तक बेचना पड़ा और उसके बाद से किराये के मकान में रहना पड़ रहा है”
अपनी बहन के इलाज वाले उस मुश्किल दौर को याद करते हुए प्रिंस आगे कहते हैं,
“मेरी बहन का इलाज लगभग 2 साल तक चलता रहा तो मुझे गुरूग्राम जॉब छोड़कर वापिस घर जाना पड़ा. लेकिन जो इलाज उसे चाहिए था वो हम नहीं दे पाए और अंत में हमें उसे गंवाना पड़ा।”
प्रिंस अकेले नहीं है जिन्हें इलाज के अभाव के चलते आपने परिजन को गंवाना पड़ा है, देश में और भी ऐसे लोग हैं जो पैसे के अभाव के चलते इलाज नहीं करवा पाते और अपने परिजन को गंवा बैठते हैं.
हाल ही में राजस्थान की अशोक गहलोत सरकार राइट टु हेल्थ बिल लेकर आई थी जो कि विधानसभा के पास कर दिया गया है. इसका लक्ष्य उन लोगों को स्वास्थ्य सेवाएँ मुहैया करवाना है जिन तक स्वास्थ्य सेवाएँ अभी तक नहीं पहुँच पाई है. मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार इस बिल में आपातकालीन स्थिति में इलाज के लिए अस्पतालों और क्लीनिकों पर बाध्यता को लेकर प्रावधान हैं कि अगर किसी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति के पास इलाज के लिए पैसे नहीं है तो उसे इलाज के लिए मना नहीं किया जा सकता.
अब इसे लेकर प्राइवेट सेक्टर में काफ़ी विरोध देखा जा रहा है. जयपुर में कई निजी अस्पतालों में सांकेतिक बंद भी किया. इसलिए अब एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है कि क्या इस तरह के बिल लाने का समय आ गया है? आइए पहले समझते हैं कि आखिर इस देश में इस तरह के बिलों की क्यों जरूरत है.
‘राइट टू हेल्थ’ जैसे बिलों की क्यों ज़रुरत है?
पूरी दुनिया हाल ही में कोरोना जैसी बड़ी महामारी से होकर गुजरी है जिसमें लाखों लोग अपनी जान गँवा चुके और न जाने कितने परिवारों ने इस महामारी की पीड़ा को सहन किया है। शायद ही अब कोई ऐसा व्यक्ति बचा होगा जिसने किसी सगे-सबंधी या फिर किसी जानने वाले इस महामारी में न गंवाया हो। साथ ही महामारी ने हमारा ध्यान देश की लचर स्वास्थ्य सुविधाओं की केंद्रित किया है.
स्वास्थ्य को संवैधानिक रूप से देखें तो यह राज्य के नीति निदेशक तत्वों का हिस्सा हैं. इसलिए देश में केंद्र सरकार और राज्य सरकारों की नैतिक जिम्मेदारी के साथ-साथ संवैधानिक रूप से भी जिम्मेदारी है कि वो देश के नागरिकों को स्वास्थ्य संबंधित सुविधाऐं मुहैया करवाये. भारत की स्वास्थ्य नीति के अनुसार जीडीपी का 3-4 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च किया जाना चाहिए है, लेकिन स्थिति इसके बिल्कुल विपरीत है. साल 2017 तक जीडीपी का 1.2-1.3 प्रतिशत ही इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए किया जा रहा था इसके बाद से इसमें वृद्धि करके 1.6 प्रतिशत किया गया जो कि इतनी बड़ी जनसंख्या के लिए नाकाफी है. सीएजी की 2018 में आई एक रिपोर्ट के अनुसार राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए 2016 में आबंटित राशि में से 9500 करोड़ रूपए इस्तेमाल ही नहीं किए गए. जबकि 2012 से 2016 तक 36 करोड़ रूपए किसी अन्य योजना के लिए इस्तेमाल कर लिए गए. इसी रिपोर्ट के में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मीयों की नियुक्ति पर बताया गया था कि देश के 27 राज्यों में से मात्र एक चौथाई में ही डॉक्टर की नियुक्ति थी बाकि कोई डॉक्टर नहीं था.
विश्व स्वास्थ्य संगठन का सुझाव है कि किसी देश के स्वास्थ्य ढ़ाँचे को सुचारू रूप से चलाने के लिए प्रत्येक 1000 लोगों पर एक डॉक्टर की आवश्यकता है. जबकि इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अनुसार देश में डॉक्टरों और जनसंख्या का अनुपात 1:1800 है. भारत में एम.बी.बी.एस डॉक्टर की कुल संख्या लगभग दस लाख है जिसमें से मात्र 10 प्रतिशत डॉक्टर ही सार्वजनिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं. अनुपात के आधार पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के सुझाव से तो कम है, साथ ही ब्राजील और वियतनाम से भी कम हैं. देश के अस्पतालों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है, नेश्नल हेल्थ प्रोफाइल के आँकड़े बताते है कि देश के 70 प्रतिशत अस्पताल शहरी इलाकों में हैं. यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्र में अच्छी स्वास्थ्य सुविधा का हमेशा टोटा रहा है. ग्रामीण क्षेत्र में 5 बैड की सुविधा वाले अस्पतालों की स्थिति भी चिंताजनक है. प्रति 10000 लोगों पर एक अस्पताल ही ऐसा है जहां 5 बैड हैं जबकि ये संख्या वियतनाम में 27 है. अगर स्वास्थ्य को लेकर ऐसे क़ानून आते हैं तो सुविधाओं का विस्तार किसी क्षेत्र विशेष में ना होकर समग्र रूप से होगा. डॉक्टर और अन्य सुविधाएँ ना होने पर नागरिक कोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है.
अच्छा स्वास्थ्य प्रत्येक नागरिक की मूलभूत आवश्यकता है. लेकिन सरकारें हमेशा ही इसे न्यूनतम में रखती आई है. केवल कुछ लोगों को ही सस्ता उपचार उपलब्ध करवाया जाता है और बाकी बचे लोगों को इलाज के लिए खुद इंतज़ाम करने पड़ते हैं. भारत के शहरी क्षेत्र में लगभग 70 प्रतिशत और ग्रामीण क्षेत्र में 63 प्रतिशत लोग निजी स्वास्थ्य केंद्रों को प्राथमिकता देते हैं. निजी क्षेत्र के बढ़ते दबदबे के कारण बड़ा तबका महंगी स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित रह जाता है.
'एक मैडिकल बिल मध्यम वर्गीय परिवार को गरीबी रेखा में भेज सकता है'
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार भारतीय अपनी बचत का 60 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं जिसका असर उनकी जीवन शैली पर पड़ रहा है. आम मध्यम वर्गीय परिवार अपने इलाज के लिए अपनी जमा पूँजी को खर्च कर देते है जिसके कारण उन्हें अपना बचा जीवन गरीबी में निकालना पड़ता है. कुछ परिवारों को इलाज के लिए ऋण तक लेना पड़ता है. यहाँ ये समझना जरूरी है कि स्वस्थ्य कोई विलासिता की वस्तु नहीं है कि केवल कुछ लोगों के लिए होनी चाहिए. ये तो सबकी आवश्यकता है. इसी को देखते हुए कि ये जरूरी है कि स्वास्थ्य को सवैंधानिक अधिकारों में रखा जाए.
ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य सुविधा के आभाव के चलते हाइपोथर्मिया और एक्युट इन्सफेलाइटस सिंड्रस के हमले के समय काफी बच्चों को अपनी जान गँवानी पड़ी थी. इसी के चलते सुप्रीम कोर्ट तक को राज्यों और केंद्र सरकार से चिकित्सा की बदहाली, चिकित्सकों और आईसीयू की कमी पर सवाल करने पड़े. अगर राइट टु हेल्थ आता है तो सरकारों पर अतिरिक्त दबाव होगा और सरकारें इसके लिए संवैधानिक रूप से बाध्य होंगी और सबको स्वास्थ्य प्रदान करने के लिए विवश भी. राजस्थान सरकार अगर राइट टू हेल्थ को सही तरीके से लागू कर पाती है तो भविष्य में अन्य राज्य सरकारों पर भी नैतिक जिम्मेदारी होगी कि वो इस तरह के बिल लाए.
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