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Climate Warriors: पुराने कपड़ों की रीसायकलिंग का साहस दिखाती महिलाएं

WCC पर्यावरणीय समस्याओं के लिए काम करने वाली महिलाओं की मदद करती है। ऐसी ही एक बैंगलोर की संस्था, SAAHAS Zero Waste उपयोग किये हुए कपड़ों का पुनर्चक्रण कर इस समस्या को सुलझाने की दिशा में काम कर रही है।

By Chandrapratap Tiwari
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औद्योगीकरण की शुरुआत से आज तक वस्त्र उद्योग दुनिया के बड़े उद्योगों में शुमार है। इस ख्याति के साथ ही वस्त्रोद्योग पर्यावरण को क्षति पहुंचाने वाले उद्योगों में भी अग्रणी है। यूरोपियन यूनियन के आंकड़ों के मुताबिक वस्त्र उद्योग दुनिया के 20 फीसदी साफ जल के प्रदूषण का जिम्मेदार है। वहीं इन बड़े फैशन उद्योगों की चिमनियां 10 फीसदी वैश्विक कार्बन उत्सर्जन की वजह हैं। इसके अलावा दुनिया भर में 92 मिलियन टन कपड़ा कचरे के रूप में निकलता है। इसका बड़ा हिस्सा या तो जला दिया जाता है, या फिर जमीन में कचरे के ढेर के रूप में पड़ा रहता है। 

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इन सभी पर्यवरणीय आघातों को सीमित किया जा सकता है, अगर इस कचरे को रीसाइकल किया जाए। WCC (वीमेन क्लाइमेट कलेक्टिव) इन्हीं पर्यावरणीय समस्याओं के लिए काम करने वाली महिलाओं को मंच, फंडिंग, और स्किल ट्रेनिंग उपलब्ध कराने में मदद करती है। ऐसे ही बैंगलोर की संस्था, SAAHAS Zero Waste उपयोग किये हुए कपड़ों का पुनर्चक्रण कर इस समस्या को सुलझाने की दिशा में काम कर रही है। इसी सिलसिले में ग्राउंड रिपोर्ट ने साहस जीरो वेस्ट की असोसिएट लीड आस्था कुभेले से बात की, और समझा भारत में टेक्सटाइल वेस्ट की चुनौती और समाधान के बारे में।  

कैसा है भारत में टेक्सटाइल वेस्ट का सूरत-ए-हाल 

भारत सरकार के शहरी एवं आवासीय मंत्रालय द्वारा दी गई जानकारियों के अनुसार भारत के कुल कचरे का 15 प्रतिशत हिस्सा, कपड़ा है। हमसे बातचीत के क्रम में आस्था ने बताया कि उन्होंने नीदरलैंड की एक संस्था फैशन फॉर गुड के साथ मिलकर भारत में टेक्सटाइल कचरे को लेकर एक अध्ययन किया था। 

इस अध्ययन में सामने आया की भारत में प्रतिवर्ष 7793 किलो टन टेक्सटाइल कचरा निकलता है, जो कि दुनिया भर के टेक्सटाइल कचरे का 8.5 प्रतिशत है। इस कचरे का तकरीबन 17 फीसदी से भी अधिक हिस्सा पुनर्चक्रण और दोबारा उपयोग के दायरे में नहीं आ पाता है, और सीधे लैंडफिल का हिस्सा बन जाता है। 

इस कचरे का बड़ा हिस्सा मानव निर्मित फैब्रिक यानी पॉलिएस्टर और नायलोन (19%) का होता हैं, जो कि बायोडिग्रेडेबल नहीं होते हैं। ये लंबे अर्से तक धरती पर पड़े रहकर पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते रहते है। इसके अलावा टेक्सटाइल कचरा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में भी योगदान देता है। 

जैसे ही कपड़ा लैंडफिल में विघटित होता है, वह मीथेन छोड़ने लगता है। मीथेन एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है, जो ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन का कारण बनती है। वैश्विक स्तर पर उत्पन्न होने वाले टेक्सटाइल कचरे की विशाल मात्रा को देखते हुए यह दुष्प्रभाव विशेष रूप से परेशानी का सबब हो सकते हैं।

कैसे होते हैं बेकार कपड़े रिसाइकल 

आस्था बतातीं हैं की शुरू के वर्षों में वे अकेले ही बैंगलुरु में काम देखती थीं। अब साहस जीरो वेस्ट की एक यूनिट गुड़गांव में भी खुल गई है, और उनकी 14-15 लोगों की एक टीम है। आस्था बैंगलुरु के रिहायशी इलाकों, फैक्ट्रियों और कॉलेज में जाकर बेकार कपड़े इकट्ठे करने का काम करती हैं। इसके अलावा आस्था की टीम शहर के नगर निगम से भी संपर्क करती हैं और उनसे बेकार कपड़े लेती है। 

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इसके बाद इन कपड़ों की छटनी की जाती है। शुरुआत में वे कपड़े जो ठीक हालत में रहते हैं और दोबारा पहने जा सकते हैं, उन्हें स्थानीय बाजारों में निकाल दिया जाता है। इसके बाद ऐसे कपड़े जो रिसाइकल या डाउनसाइकल हो सकते हैं उन्हें रिसाइकल करने वाले इकाइयों के पास भेज दिया जाता है। इन कपड़ों में सफेद या बिना प्रिंट के  सूती कपड़े रीसाइक्लिंग के लिए सर्वाधिक उपयुक्त होते हैं। अन्य कपड़ों को डाउनसाइकल कर के धागे या रुई में बदला जाता है। 

कुछ ऐसे भी कपड़े होते हैं जिन्हे सुधारा जा सकता है या उनसे कुछ नया बनाया जा सकता है। ऐसे कपड़ों को स्वसहायता समूह की महिलाओं के सुपुर्द कर दिया जाता है। इन महिलाओं को आस्था खुद प्रशिक्षण देतीं हैं। इस प्रक्रिया बाद कई बार नया उत्पाद बन कर निकलता है, जो बाजार में लोगों को आकर्षित करता है। 

इसके अलावा जो कपड़े रिसाइकल करने की हालत में नहीं होते उन्हें गाड़ी की सीट भरने, मैट्रेस उद्योग में रजाई-गद्दे आदि को भरने, और कागज-लुग्दी जैसे उद्योगों के लिए भेज दिया जाता है। अंततः बचे टेक्सटाइल वेस्ट के वो हिस्से जो किसी काम के नहीं रह जाते उन्हें वेस्ट टू एनर्जी प्लांट में भेजा जाता है, जहां इस कचरे की यात्रा समाप्त होती है। 

कितना चुनौती भरा है टेक्सटाइल कचरे को रिसाइकल करना 

आस्था बतातीं है कि भारत में टेक्सटाइल वेस्ट को लेकर कोई ठोस व्यवस्था नहीं है, जो इस काम को थोड़ा मुश्किल बना देता है। मसलन सबसे अधिक कठिनाई कचरे को इकट्ठा करते वक्त जाती है। ज्यादातर लोग वेस्ट कपड़े बाकी कचरे के साथ ही फेंकते हैं। इस वजह से दोबारा उपयोग करने लायक, रिसाइकल करने लायक, और निस्तारण करने लायक कपड़ों को छांटने में अधिक समय और संसाधन लगता हैं। 

आस्था ने बताया की पानीपत में एक बड़ा उद्योग है जो कपड़े को रिसाइकल करता है। ये उद्योग बाहर से आए हुए कचरे को लेते हैं, लेकिन भारत के कपड़ों को नकार देते हैं। इसकी सीधी वजह भारत में कचरे का पृथक तौर पर इकठ्ठा न किया जाना है। 

इसके अलावा भारत की विशेष तरह की पोशाकें भी इस प्रक्रिया में एक चुनौती हैं। दरअसल ऐसे कपड़े जो कि प्रिंटेड हों, उनमें कुछ विशेष चीजें लगी हों, कढ़ाई इत्यादि हुई हो, या कई तरह के कपड़ो को मिलाकर बना हो, इन कपड़ों की रीसाइक्लिंग कठिन होती है। और भारत में इसी तरह के कपड़े बहुतायत में पहने जाते हैं, जिनसे बड़े रीसाइक्लिंग उद्योग आम तौर पर कतराते हैं। अपने अनुभव से आस्था बतातीं हैं कि उन्हें रिसाइकलर को मनाने में 5 साल से अधिक लग गए थे। 

इस समस्या के समाधान के लिए आस्था कचरा इकठ्ठा करते समय सबको स्पष्ट निर्देश देती हैं और अलग तरह के कपड़ों के लिए अलग-अलग कूड़ेदान रखतीं हैं। इसके अलावा आस्था ने भारत के अयोध्या, प्रयागराज जैसे कई शहरों के 3,000 सफाई कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी है। इस ट्रेनिंग में आस्था ने टेक्सटाइल वेस्ट को इकठ्ठा करने के तरीके, और उसके महत्व को समझाया है। 

इस मॉडल को लेकर आस्था ने कई फैशन ब्रांड जैसे आइकिया और एच एन एम के साथ मिल कर काम किया है। इसमें आस्था इन रिसाइकल या डाउनसाइकल उत्पादों को सीधे इन ब्रांड को देतीं हैं, जिसका उपयोग वे कपड़े बनाने में करते हैं। हालांकि आस्था का कहना है कि अभी तक कई ब्रांड्स ने इस मॉडल को लेकर सकारात्मक रुझान नहीं दिखाया है। 

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इन सब के अतिरिक्त भारत के लोगों में रिसाइकल कपड़ों को पहनने में एक नकारत्मक धारणा भी रहती है। कई लोग टेक्सटाइल कचरे के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों को जानने के बाद भी इसे अपनाने से परहेज करते हैं। आमतौर पर वे किसी का पहना हुआ कपड़ा नहीं पहनना चाहते हैं। लेकिन आस्था का मानना है कि समय के साथ धीरे-धीरे लोगों की सोच बदल रही है। 

टेक्सटाइल वेस्ट को लेकर ठोस नीति की है जरूरत 

आस्था कहती हैं कि कई नगर निगमों ने उनके मॉडल को सराहा है, और इस लेकर रुचि प्रकट की है। हालांकि भारत में ठोस टेक्सटाइल पॉलिसी का न होना इस प्रोजेक्ट में एक बड़ी समस्या है। आस्था ने आगे कहा,

सरकार से इस काम के लिए सब्सिडी और प्रोत्साहन मिलने से हमारा काम आसान हो सकता है। हमने बीते दो सालों में सरकार से संवाद स्थापित किया है। सरकार को हमारा मॉडल पसंद आया है, यहां तक कि कपड़ा मंत्रालय के प्रतिनिधियों ने हमारी फैसिलिटी विजिट भी की है। हमें आशा है कि सरकार बहुत जल्द इस दिशा में एक ठोस नीति लेकर आएगी। 

आस्था ने बताया कि आने वाले समय में वो बेहतर फंडिंग की उम्मीद करती हैं। इससे उन्हें रिपेयरिंग और सामान्य रीसाइक्लिंग के काम जो आउटसोर्स करने पड़ते हैं, वे कुछ मशीनों की मदद से उनकी अपनी यूनिट में ही संभव हो पाएंगे। अपने आगे के कार्यक्रमों को लेकर आस्था ने बताया,

हमने गुड़गांव में एक यूनिट शुरू की है, जिससे हम दिल्ली एनसीआर क्षेत्र के बड़े टेक्सटाइल वेस्ट को आसानी से हैंडल कर पाएंगे। इसके अलावा दक्षिण भारत में कपड़ों को रिसाइकल करने का पर्याप्त इकोसिस्टम उपलब्ध नहीं है। हमारा प्रयास रहेगा कि हम दक्षिण भारत के भी टेक्सटाइल वेस्ट को रिसाइकल कर सकें। 

अपनी छोटी सी टीम के साथ ही आस्था अब तक 300 मीट्रिक टन से अधिक टेक्सटाइल वेस्ट रिकवर कर चुकीं है। आस्था का प्रयास बताता है कि बेकार कपड़ों को रिसाइकल कर के न सिर्फ रोजगार के विकल्प तैयार किये जा सकते हैं, बल्कि इससे पर्यावरण को पहुंचने वाली बड़ी क्षति को भी सीमित किया जा सकता है। 

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