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पर्यावरण संरक्षण में कैसे मददगार साबित हुआ RTI कानून

नूर के अनुसार RTI की अनुपस्थिति में सूचना पाना बेहद मुश्किल था. ऐसे में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही तय करना असंभव हो जाता.

By Shishir Agrawal
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साल 2005 में लागू हुआ सूचना का अधिकार अधिनियम (आरटीआई एक्ट) आज़ादी के बाद से अब तक आए कुछ सबसे महत्वपूर्ण कानूनों में से एक माना जाता है. 12 अक्टूबर 2023 को यह कानून 18 वर्ष का हो चुका है. इस कानून ने देश के आम नागरिक को किसी भी सरकारी कार्यालय से कोई भी जानकारी माँगने का अधिकार दिया. इस कानून के बारे में हमसे बात करते हुए ‘सूचना का अधिकार आन्दोलन’ के संयोजक अजय दुबे कहते हैं कि इस कानून ने भारतीयों को ‘इनफ़ॉर्म्ड सिटिज़न’ बनाया है. भ्रष्टाचार रोकने और सरकार की जवाबदेही तय करने के लिहाज़ से तो यह कानून उपयोगी साबित हुआ ही. मगर इस कानून ने पर्यावरण को भी बेहद फायदा पहुँचाया है. बीते कुछ सालों में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और सुप्रीम कोर्ट सहित अलग-अलग न्यायालयों ने ऐसे फैसले सुनाए हैं जिसने पर्यावरण को प्रभावित किया है.  

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कानून की लड़ाई में मददगार

आरटीआई एक्टिविस्ट राशिद नूर कहते हैं,

“पर्यावरण से सम्बंधित किसी भी सरकारी कदम के लिए आम तौर हमें कोर्ट जाना पड़ता है. आरटीआई के ज़रिये हमें सूचना मिलने में आसानी होती है जिसके आधार पर हम कोर्ट में केस लड़ पाते हैं.”

नूर के अनुसार इस कानून की अनुपस्थिति में सूचना पाना बेहद मुश्किल था. ऐसे में पर्यावरण से जुड़े मुद्दों पर सरकार की जवाबदेही तय करना असंभव हो जाता. वह भोपाल में फ्लोटिंग रेस्टोरेंट वाले मामले का हवाला देते हुए कहते हैं कि पर्यावरण के लिए ऐसे फैसले कोर्ट या एनजीटी से दिलवाने के लिए ‘कागजों की लड़ाई लड़नी होती हैं जिसमें आरटीआई हमारी मदद करता है’ .

आरटीआई के पहले की परिस्थितियाँ

भोपाल के सुभाष पाण्डेय पेशे से वैज्ञानिक हैं. मगर उन्हें पर्यावरण के लिए किए जाने वाले आरटीआई एक्टिविज्म के लिए भी जाना जाता है. उनके अनुसार अब तक वह पर्यावरण के सम्बंधित 3 हज़ार से ज़्यादा आरटीआई लगा चुके हैं. साल 2005 से पहले की स्थिति को बताते हुए वह कहते हैं,

“आरटीआई से पहले कोई भी सूचना पाने के लिए सरकारी विभाग के बाबू, चपरासी या अधिकारियों को हज़ारों रुपए देने पड़ते थे. तब भी पूरी और सही सूचना नहीं मिलती थी. मगर अब हर सूचना की प्रमाणित जानकारी सिर्फ 10 रूपए में मिलती है.”

वहीँ नूर कहते हैं कि ‘पहले कागज़ों के कुँए बन जाते थे’ अधिकारी या तो जानकारी नहीं देते थे या फिर इतनी जानकारियां होती थीं कि उनसे काम की चीज़ें और सवालों के जवाब खोजना मुश्किल हो जाता था. “मगर आरटीआई में स्पष्ट प्रश्नों के स्पष्ट उत्तर मिलते हैं जिससे क़ानूनी लड़ाई आसान हो जाती है.” 

पर्यावरण के प्रति बेखबर संसद

सरकारी कार्यों की जानकारी पाने का एक अन्य तरीका संसद या विधानसभा के सवाल हैं. मगर पर्यावरण या कहें जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित सवालों पर संसद की गंभीरता का आलम यह है कि भारत में 1999 से लेकर 2019 तक केवल 0.3 प्रतिशत सवाल ही इस मसले पर पूछे गए हैं. राशिद नूर मध्यप्रदेश विधान सभा की स्थिति बताते हुए कहते हैं कि यहाँ किसी को भी पर्यावरण के मामलें में रूचि नहीं है. उनके अनुसार

“हमारे विधायकों के लिए नर्मदा का संरक्षण केवल इसकी परिक्रमा करने तक ही सीमित है. उसमें होने वाला खनन उनके लिए चर्चा का विषय नहीं है.” इसके पीछे का कारण पूछने पर वह कहते हैं कि सभी लोगों के हित आपस में जुड़े हुए हैं.

बेज़ुबानों की आवाज़ है आरटीआई

मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ सहित देश के कई हिस्से वाइल्डलाइफ के नज़रिए से बेहद समृद्ध माने जाते हैं. ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए अजय दुबे कहते हैं कि वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन की मुहीम को आरटीआई ने बल दिया है.

“यह कानून बेज़ुबान जानवरों और उनके आस-पास के इकोसिस्टम को बचाने के लिए उनकी आवाज़ की तरह काम करता है.”

वह अपनी बात को साल 2016 में आए एनजीटी के एक ऑर्डर के ज़रिए समझाते हैं. इस साल एनजीटी की सेन्ट्रल बेंच ने एक फैसला देते हुए वन विहार नेशनल पार्क के पास पुलिस फायरिंग रेंज में निशानेबाज़ी पर रोक लगा दी थी. इस फैसले का उदहारण देते हुए दुबे कहते हैं, “आरटीआई के ज़रिए हमने फायरिंग रेंज को मिली अनुमति के बारे में जानकारी जुटाई और उसके बाद कोर्ट में यह फैसला आया. इस तरह यह कानून उन बेज़बानों की भी आवाज़ बन गया.” वह वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन में आने वाली चुनौतियों का ज़िक्र करते हुए कहते हैं, “स्टेट और कोर्पोरेट का एक मिला-जुला सिंडिकेट होता है. स्टेट नहीं चाहता कि जनता को एक्सेस टू इन्फोर्मेशन हो क्योंकि इससे यह सिंडिकेट टूट सकता है. ऐसे में सरकारी मनमानी को रोकने के लिए सूचना निकलवानी पड़ती है. इसमें आरटीआई हमारी मदद करता है.”

एक्टिविस्टों की नई पीढ़ी तैयार करता आरटीआई              

सुभाष पाण्डेय आरटीआई का पर्यावरण संरक्षण में महत्व को समझाते हुए कहते हैं कि आरटीआई आने से पहले ज़्यादातर पर्यावरण संरक्षण से जुड़े हुए आन्दोलन सड़कों पर सरकार के किसी फैसले के खिलाफ नारे लगाते हुए होते थे. मगर आरटीआई ने उन आन्दोलनों को कोर्ट तक लाने में मदद की है.

“समाज का एक्टिविस्ट वर्ग अब आरटीआई के ज़रिए पर्यावरण से जुड़े मामलों में सूचना प्राप्त करता है. फैसलों में गड़बड़ी पाए जाने पर केवल नारे ही नहीं लगाता बल्कि कोर्ट में सरकार को खड़ा भी करता है.”

उनके अनुसार इस कानून ने एक्टिविस्टों की एक नई पीढ़ी तैयार की है जिसने आन्दोलन को और तेज़ किया है.      

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