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सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 के 18 वर्ष

12 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 अब 18 वर्ष का हो गया है। इसी उम्र में विश्व के सबसे लोकतंत्र भारत में नागरिक को बालिग होकर मतदान का अधिकार मिलता है।

By Ground Report
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18 years of Right To Information

विचार, अजय दुबे । 12 अक्टूबर 2005 को लागू हुआ सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 अब 18 वर्ष का हो गया है। इसी उम्र में विश्व के सबसे लोकतंत्र भारत में नागरिक को बालिग होकर मतदान का अधिकार मिलता है। यह अधिकार ही निर्वाचित सरकार से आय और व्यय का हिसाब-किताब मांगने का हक देता है। संयोग से इस जनहितैषी लोकप्रिय कानून की वर्षगांठ के वक्त भारत में छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश,राजस्थान, मिजोरम और तेलंगाना में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो चुका है। समस्त राजनैतिक दलों के उम्मीदवार जनता से वोट मांगने सड़को पर उतर गए हैं।

हमारी जनता के लिए स्वर्णिम अवसर है कि वह इन उम्मीदवारों और राजनैतिक दलों से सरकारी ढांचे में पारदर्शिता और जवाबदेही के लिए बनाए गए सूचना का अधिकार कानून पर उनकी राय और भूमिका समझे जाने। मुझे ऐसा याद नही आता कि किसी भी राज्य में लोकसभा, विधानसभा, नगर निगम और पंचायत चुनाव के समय किसी भी उम्मीदवार ने साहस कर सूचना का अधिकार के तहत पारदर्शिता लाने का कोई वादा किया।

यह दुखद है कि सूचना का अधिकार के क्रियान्वयन उपयोग संबंधी समस्या को लेकर राजनेताओं और राजनैतिक दलों ने कभी भी जनता के बीच जाकर संवाद नहीं किया। हां कुछ राजनैतिक दलों ने विपक्ष में रहते हुए सत्ता के खिलाफ अपनी पार्टी में आरटीआई विंग जरूर बनाई है लेकिन इन दलों के द्वारा जारी विज्ञापनों में आरटीआई कानून का जिक्र नहीं दिखता। सत्ता की लोलुपता वाले राजनैतिक दलों यह दोहरा चरित्र ही ऑफिशियल सिक्रेसी एक्ट की ब्रिटिश व्यवस्था को आज भी बल देता है।

मीडिया को भी इस चुनावी वक्त में जनता के साथ मिलकर भविष्य के विधायकों से प्रश्न पूछना चाहिए। जनता को सोशल मीडिया और अन्य माध्यम से आरटीआई एक्ट के बारे अपनी समस्या बतानी चाहिए अन्यथा कल आरटीआई विरोधी जनप्रतिनिधि पारदर्शिता में अवरोध करेगा।

केंद्रीय सूचना आयोग के निर्देशों के बावजूद किसी भी प्रमुख राजनैतिक दल ने नागरिकों के संवैधानिक हक सूचना का अधिकार को अपनी पार्टी में लागू नहीं किया। इसका दुष्परिणाम तब देखने को मिलता है जब सरकार में बैठे जनप्रतिनिधियों के साथ अफसरों का गठजोड़ सूचना आयोगों में पालतू वफादार मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त बैठाते हैं और इनकी मदद से आरटीआई एक्ट को कुचल कर भ्रष्टाचार को छुपाते हैं।आरटीआई आवेदनों की गिरती संख्या ,राज्यो में ऑनलाइन आरटीआई पोर्टल की जटिल प्रणाली और अफसरों के घनघोर आरटीआई विरोधी आचरण में वृद्धि वर्तमान में चिंताजनक है।

डिजिटल इंडिया में सरकारी कार्यालयों में आरटीआई एक्ट की धारा 8 के तहत जानकारी का स्वत प्रगतिकरण 18 साल बाद भी न होना पीड़ादायक है। देश भर में आरटीआई कार्यकर्ता पर अत्याचार और जानलेवा हमले रोकने के लिए सरकारें बेखबर हैं। व्हिसल ब्लोअर एक्ट 2014 आज तक लागू नहीं हुआ। आरटीआई एक्ट बनाने वाली कांग्रेस पार्टी से मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कमलनाथ ने तो आरटीआई के कुछ खुलासे से चिढ़कर मध्यप्रदेश में आवेदन के लिए सौ रुपए, प्रथम अपील 500 रुपए और सेकंड अपील के लिए 1000 रुपए तक प्रस्तावित कर दिया था जिसे प्रदेश के तमाम आरटीआई कार्यकर्ताओं ने सड़क पर उतर विरोध किया था। परिणाम स्वरुप तत्कालीन सरकार को यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। यह गैरलोकतांत्रिक सोच ही भ्रष्टाचार को ईंधन देती है जिसे रोकना होगा।

आज 18 साल बाद जब सरकारी कार्यालयों में इसकी स्थिती बदहाल है। राज्यों के सूचना आयोगों में बैठे अधिकतर सूचना आयुक्तों में गाड़ी, बंगला, सुरक्षा गार्ड और मोटे वेतन का लोभ दिखाई देता है। यह लोभ निश्चित तौर पर इस महत्वपूर्ण कानून की इस बदहाली का कारण है.

सुप्रीम कोर्ट के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद भी योग्यता को दरकिनार कर वफादार रिटायर्ड अफसर ,जज और यस मैन की भूमिका वाले गैर सरकारी पृष्ठभूमि के लोग आयोगों में प्रवेश करते हैं। अक्सर उच्च न्यायालय के फैसलों में सूचना आयुक्तों के लापरवाही और विधि विरुद्ध निर्णय पर जुर्माना होता है लेकिन यह भी तब होता है जब बहुत कम लोग कोर्ट जाते हैं।

हाल मे ही डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन प्रोटेक्शन (DPDP Act) एक्ट 2023 के विरुद्ध देश भर में विरोध हुआ। ऐसा इसलिए क्योंकि इसके प्रावधान सूचना का अधिकार अधिनियम को बेअसर साबित करते हैं। जन विरोध और इस कानून के प्रभावशील न होने की जानकारी के बावजूद भी देश भर में सबसे पहले मप्र के मुख्य सूचना अरविंद शुक्ल ने अगस्त और सितंबर माह में डीपीडीपी एक्ट 2023 के तहत दर्जनों फैसले में आम नागरिकों की अपीले निरस्त की। जिसका पुरजोर विरोध सूचना का अधिकार आंदोलन ने किया। मजबूरन मुख्य सूचना आयुक्त को त्रुटि स्वीकार कर आदेशों में संशोधन करना पड़ा। हालाँकि आदेशों में यह विवादित संशोधन भी प्रश्नों के घेरे में है क्योंकि आरटीआई कानून में ऐसी व्यवस्था नहीं है।

हमारी संस्था प्रयत्न द्वारा हमने आरटीआई के उपयोग और उससे प्राप्त जानकारी की मदद से देश भर में दुर्लभ मूक वन्यजीव बाघ, हाथी, चीते की आवाज उठाई। हमने न्यायलयों में लड़ाई लड़ी और सैंकड़ों फैसले संवेदनशील न्यायलयों से प्राप्त किए। इनकी मदद से कई महत्वपूर्ण दूरगामी हित वाले व्यापक निर्णय सरकारों द्वारा लिए गए। यह फैसले इस बात का सबूत हैं कि आरटीआई कानून वन्यजीवों के लिए भी उतना ही लाभकारी है जितना भारत के नागरिक के लिए।

अजय दुबे सूचना अधिकार आन्दोलन के संयोजक हैं। वह वन्यजीवों के मसले पर मुखरता से बोलने के लिए जाने जाते हैं।

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