किसी नेता की चुनावी रैली का दृश्य याद कीजिए. नेता का भाषण होने, कार्यक्रम समाप्त होने के बाद जब चुनावी भीड़ छटती है तो ज़मीन पर बाकी कचरे के साथ ही मास्क, बैच, झंडा जैसी चुनाव प्रचार की सामग्री नज़र आती हैं. लोकसभा हों या विधानसभा चुनाव, किसी भी देश के लिए यह आर्थिक रूप से जितने महँगे साबित होते हैं उतने ही वह पर्यावरण की दृष्टि से भी महँगे साबित होते हैं. 18 अगस्त 2023 को चुनाव आयोग की ओर से चुनाव प्रचार को इकोफ्रेंडली बनाने की अपील की गई थी.
सिंगल यूज़ प्लास्टिक बैन है, बैनर नहीं
1 जुलाई 2022 से सरकार द्वारा सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया है. ऐसे में 100 माईक्रोन से कम वाले पीवीसी बैनर का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. मगर इसे चुनाव आयुक्त की सलाह के सामानांतर देखें तो समझ आता है कि ऐसी किसी भी चीज़ का इस्तेमाल जो बायो-डिग्रेटेबल न हो, का इस्तेमाल नहीं करने की सलाह दी गई है. 4 मार्च 2019 को नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) द्वारा इलेक्शन कमीशन को प्रचार सामग्री में नॉन बायो-डिग्रेटेबल सामग्री पर बैन लगाने का भी निर्देश दिया गया था. मगर देश की राजधानी सहित सभी राज्यों और विधानसभाओं में बैनर का इस्तेमाल जमकर हो रहा है.
नायलॉन की टी-शर्ट और लेमिनेटेड टोपी है प्रचलन में
भोपाल में गर्ग इंटरप्राइजेज़ के शम्भूनाथ विभिन्न पार्टियों के लिए चुनाव प्रचार सामग्री बनाते हैं. वह बताते हैं कि चुनाव में प्रत्याशी अपने नाम और फ़ोटो के साथ टी-शर्ट प्रिंट करवाते हैं. यह टी-शर्ट नायलौन की बनी होती है जिस पर प्रिंट की जाती है. इसके अलावा टोपी का एक नया प्रकार इस चुनाव में प्रचलित हो रहा है. इस टोपी में जूट की टोपी को पॉलिस्टर से लेमिनेट किया गया है. यह ध्यान देना ज़रूरी है कि यह बायोडिग्रेटेबल नहीं है. इसके अलावा प्लास्टिक के ही अन्य रूपों से बने बलून जैसी सामग्रियां भी इस चुनाव में बेहद प्रचलित हैं.
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समय के साथ बदला है प्रचार का तरीका
एक अन्य प्रचार सामग्री बनाने वाली फर्म के कर्मचारी नाम न बताने की शर्त पर कहते हैं कि समय के साथ चुनाव प्रचार करने के तरीके में बहुत बदलाव आ गया है जिसके चलते प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़ा है.
“पहले तो कागज़ और कपड़े के बैनर बनते थे. मगर धीरे-धीरे बाज़ार में सभी चीजों में प्लास्टिक का इस्तेमाल बढ़ गया है, इसलिए हम भी प्लास्टिक के किसी विकल्प का इस्तेमाल करके ही इन्हें (प्रचार सामग्री) बनांते हैं.”
हालाँकि इस बारे में शम्भू कहते हैं कि कुछ जगहों में प्लास्टिक का इस्तेमाल कम भी हुआ है. वह उदहारण देते हुए कहते हैं, "प्रचार के लिए एक लड़ी लगाईं जाती है. यह पहले प्लास्टिक की बनती थी अब यह कागज़ की बनने लगी है."
पार्टी कार्यालयों पर जहां तहां गंदगी
पार्टी द्वारा बनाए गए अस्थाई कार्यालय जहां नेता बैठकें कर रहे हैं, वहां हर रोज़ सैकड़ों लोग आते जाते हैं। इनके द्वारा फैलाई गंदगी हर ओर नज़र आती है। हम जब कन्नौद स्थित कांग्रेस के कार्यालय पहुंचे तो यहां नाश्ते की प्लेट, पानी के डिस्पोज़ेबल ग्लास हर तरफ बिखरे पड़े थे। यहां तक की गुटखा खाने वालों ने जहां तहां थूक भी रखा था। ऐसे ही
डिस्पोज़ल से सम्बंधित कोई भी आँकड़ा पब्लिक डोमेन में नहीं
चुनाव आयोग द्वारा जारी इस एडवाईज़री के अनुसार चुनाव ख़त्म होने के बाद प्रचार सामग्री को डिस्पोज़ करने का जिम्मा स्थानीय नगर पालिका के पास होता है. मगर किसी भी नगर पालिका द्वारा बीते चुनावों के दौरान ऐसी कितनी सामग्री डिस्पोज़ की गई इसका कोई भी आँकड़ा किसी भी नगर पालिका द्वारा पब्लिक डोमेन में उपलब्ध नहीं करवाया गया है। ऐसे में इस एवज में प्रत्याशियों से कितनी राशि वसूल की गई उसका भी कोई भी हिसाब सरकार या चुनाव आयोग के पास नहीं है.
साल 2018 में बांग्लादेश में आयोजित हुए आम चुनावों के दौरान क़रीब 15 करोड़ पीवीसी पोस्टर प्रचार सामग्री के रूप में छपे थे. यह ताज्जुब की बात है कि बांग्लादेश से बड़े और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा करने वाले भारत के पास ऐसा कोई भी आँकड़ा उपलब्ध नहीं है. गौर करने वाली बात यह है कि यह हाल तब हैं जब 2019 में एनजीटी द्वारा चुनाव में इस्तेमाल होने वाले प्लास्टिक के इस्तेमाल को मॉनिटर करने का आदेश दिया जा चुका है.
क्या है समाधान
पूर्व केन्द्रीय पर्यावरण सचिव सीके मिश्रा ने अपने एक पत्र में लिखा था कि प्रचार ख़त्म हो जाने के बाद चुनाव प्रचार सामग्री को एकत्रित नहीं किया जाता है, जिसके चलते भूमि और जल तो प्रदूषित होता ही है साथ ही आवारा पशुओं द्वारा इन्हें खा लेने से उनकी मौत भी हो जाती है. उन्होंने सुझाव देते हुए लिखा था कि ऐसे पोस्टरों के इस्तेमाल को वरीयता दी जानी चहिये जिनका बाकी चुनावों में भी इस्तेमाल किया जा सके.
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