जेन-ज़ी के लिए सूचनाओं का मुख्य स्त्रोत मोबाइल और विशेषतौर पर इंटरनेट है. ज़ाहिर है पर्यावरण और उसके बदलाव यानि क्लाइमेट चेंज को लेकर समझ का केंद्र भी इन्हीं से मिलने वाली सूचनाएँ हैं. मगर सूचनाओं की अधिकता के चलते फ़ेक न्यूज़ और डिस/मिस इन्फॉर्मेशन एक बड़ी चुनौती बनकर उभरी है. ऐसे में क्लाइमेट एक्शन अगेंस्ट डिस इन्फॉर्मेशन (CAAD) और सेंटर फ़ॉर काउण्टरिंग डिजिटल हेट (CCHD) द्वारा एक रिपोर्ट तैयार की गई है जो यह बताती है कि क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन से सोशल मीडिया कम्पनियाँ कैसे निपट रही हैं.
सूचनाओं को नियंत्रित करता उद्योग
नब्बे के दशक में अमेरिका की फ़ॉसिल फ्यूल इंडस्ट्री ने मीडिया के माध्यम से जलवायु परिवर्तन को एक संदेह जनक विषय के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की. यह दो तरह से किया गया. पहला, इंडस्ट्री ने मीडिया आउटलेट्स को टार्गेट किया कि वो क्लाइमेट साइंस की ‘अनसर्टेनिटी’ पर रिपोर्ट करे. इस दौरान उन्होंने अपनी और से समर्थन प्राप्त ऐसे वैज्ञानिक जो जलवायु परिवर्तन को किसी मिथ की तरह प्रोजेक्ट कर सकें, उन्हें मीडिया में एक्सपर्ट की तरह बैठाया. दूसरा जलवायु परिवर्तन को लिबरल्स के एजेंडे की तरह प्रचारित किया गया.
मगर अब तमाम तरह के वैज्ञानिक शोधों के सामने आने के बाद उद्योग जगत ख़ास तौर पर जीवाश्म ईधन कम्पनियाँ (Fossil fuel industry) जलवायु परिवर्तन को सिरे से नकारने की स्थिति में नहीं हैं. मगर उसके उपायों को लेकर एक शंका युक्त ‘पब्लिक नैरेटिव’ बनाने में वह सोशल मीडिया का ज़रूर इस्तेमाल कर रही हैं. सोशल मीडिया कंपनियों के लिए आय का मुख्य साधन विज्ञापन हैं. यह विज्ञापन न सिर्फ एक ‘बज़’ बनाने में मदद करते हैं बल्कि इससे ही एक नैरेटिव का निर्माण भी होता है.
अपने फायदे को ध्यान में रखते हुए इस एजेंडा सेटिंग में सोशल मीडिया कंपनियों की मूक सहमती दिखाई देती है. इन्फ्लुएंस मैप नामक एक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार 25 ऑइल और गैस कंपनियों द्वारा लगभग 9.5 मिलियन डॉलर के लगभग 25 हज़ार विज्ञापन फेसबुक (यूएस) पर पोस्ट किए गए. इनको 431 मिलियन बार देखा गया है. रिपोर्ट के अनुसार उद्योग जगत द्वारा जीवाश्म गैस को ‘ग्रीन’ बताने की कोशिश की जा रही है. यह सबकुछ सोशल मीडिया द्वारा किया जा रहा है.
डिस/मिस इन्फॉर्मेशन को नज़रअंदाज़ करता गूगल
क्लाइमेट एक्शन अगेंस्ट डिस इनफॉर्मेशन (CAAD) और सेंटर फ़ॉर काउण्टरिंग डिजिटल हेट (CCHD) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार 200 में से लगभग 100 वीडियो ऐसे हैं जो गूगल की खुद की क्लाइमेट मिस इन्फॉर्मेशन पॉलिसी का उल्लंघन करने के बाद भी यू-ट्यूब पर आपत्तिजनक विज्ञापनों के साथ स्ट्रीम हो रहे हैं. इन वीडियोज ने लगभग 18 मिलियन व्यूज़ बटोरे हैं. यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि अक्टूबर 2021 में ही यू-ट्यूब ने अपनी नीति को बदलते हुए ऐसे किसी भी विज्ञापन को स्ट्रीम होने की अनुमति देने से इनकार किया था जो ‘जलवायु परिवर्तन के अस्तित्व और कारणों पर आधिकारिक वैज्ञानिक सहमति’ के खिलाफ हो. वहीं 100 वीडियोज़ ऐसे हैं जो गूगल की मिस इन्फोर्मेशन की संकुचित परिभाषा में फिट ही नहीं बैठते हैं.
पारदर्शिता की खिड़कियाँ बंद करती सोशल मीडिया कम्पनियां
सोशल मीडिया यूज़र्स आम तौर पर इतनी ज़्यादा सूचनाओं का उपभोग करते हैं कि उनमें से गलत जानकारियां चुनना मुश्किल हो जाता है. ऐसे में यदि सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा एक ‘ट्रांसपेरेंसी रिपोर्ट’ जारी की जाए जिसमें क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन के स्तर और प्रसार (Scale and Prevelance) को लेकर आंकड़ों के ज़रिये जानकारी दी जा सके तो इसके माध्यम से उपभोक्ता को सजग किया जा सकता है. मगर उपरोक्त रिपोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया कम्पनियाँ ऐसा करने में भी नाकाम रही हैं.
ट्विटर : जिसके लिए क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन मायने नहीं रखती
इस रिपोर्ट में कुछ सवालों के जवाब के आधार पर सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म की एक रैंकिंग बनाई गई है. ट्विटर इस रैंकिंग में सबसे निचले पायदान में आता है. रिपोर्ट के अनुसार ट्विटर की डिस/मिस इन्फॉर्मेशन पॉलिसी क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन के लिए कैसे काम करेगी इसको लेकर कोई भी स्पष्टीकरण नहीं है. ट्विटर यह भी नहीं स्पष्ट करता है कि वह इस तरह की डिस/मिस इन्फॉर्मेशन से कैसे निपटेगा. सभी तरह से देखने पर ट्विटर इस मामले को महत्वहीन समझता हुआ दिखता है. ट्विट्टर का आलम यह है कि उसके पास क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन को लेकर कोई भी परिभाषा ही नहीं है.
फेसबुक : पॉलिसी है परिणाम नहीं
फेसबुक इस बात को लेकर स्पष्ट है कि वह अपने फैक्ट-चेकिंग और डाउन रैंकिंग के पैमाने क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन और उन्हें फैलाने वाले लोगों पर कैसे लागू करेगा. मगर इसके परिणाम को लेकर वह पर्याप्त जानकारी नहीं देता है. पॉलिसी होने के बाद भी उसके प्रभावी रूप से क्रियान्वयन पर इसलिए भी शंका उत्पन्न होती है क्योंकि इस कंपनी के पास डिस/मिस इन्फॉर्मेशन को लेकर कोई भी परिभाषा नहीं है. फेसबुक अपनी क्वाटर्ली एन्फोर्समेंट रिपोर्ट में क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन पर कोई भी अपडेट नहीं करता है.
टिक-टॉक : पॉलिसी है मगर क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन के लिए नहीं
भारत में प्रतिबंधित सोशल मीडिया कंपनी टिक-टॉक डिस/मिस इन्फॉर्मेशन के मामले में काफी स्पष्ट नज़र आती है. इस कंपनी द्वारा डिस/मिस इन्फॉर्मेशन को पहचानने और उसे फैलाने वाले यूज़र्स से निपटने के लिए एक तय पैमाने हैं. हालाँकि कंपनी के पास क्लाइमेट डिस/मिस इन्फोर्मेशन को लेकर कोई भी तय परिभाषा नहीं है ना ही इसकी कम्युनिटी गाइडलाइन में क्लाइमेट को लेकर कोई भी रेफरेंस है. ऐसे में विशेष रूप से क्लाइमेट डिस/मिस इन्फॉर्मेशन से निपटने के मामले में यह कंपनी भी पीछे ही नज़र आती है.
क्लाइमेट एक्शन अगेंस्ट डिसइनफार्मेशन (CAAD) और सेंटर फ़ॉर काउण्टरिंग डिजिटल हेट (CCHD) द्वारा जारी इस रिपोर्ट से गुज़रते हुए यह बात समझ में आती है कि क्लाइमेट चेंज और इसके प्रति जागरूकता के लिए सोशल मीडिया कम्पनियाँ काफी लचीली हैं. क्लाइमेट डिस/मिसइन्फॉर्मेशन को लेकर ज़्यादातर कम्पनियाँ घाल-मेल के साथ निपट रही हैं. किसी भी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के लिए यह बात पूरे विश्वास के साथ नहीं कही जा सकती कि वह इस बात को लेकर गंभीर है. इससे एक ‘बाईपास’ बनता है जिसके ज़रिए उद्योग आसानी से क्लाइमेट चेंज को लेकर संशय की स्थिति बना रहा है.
यह बेहद खतरनाक है. क्योंकि जलवायु परिवर्तन कोई मिथ नहीं बल्कि एक सच्चाई है. यदि इसको लेकर सही जानकारी आम जनता को नहीं दी जाएगी तो उनमें इसे लेकर आम सहमती नहीं बनेगी. यह स्थिति उद्योग जगत के पक्ष में होगी लेकिन मानवता के खिलाफ. जनता की आम सहमती से ही सरकार किसी भी विषय पर जनता की इक्षा के अनुरूप फैसले लेने के लिए विवश होती है. इन उद्योगों पर लगाम लगाना भी सरकार का ही काम है. यदि हम समझ नहीं विकसित करेंगे तो सरकार भी हाथ बांध कर तमाशा देखती रहेगी और हम विनाश के और करीब जाते जाएँगे.
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