भारत साल 2070 तक नेट ज़ीरो के लक्ष्य को हासिल करने के लिए प्रतिबद्ध है. यह लाइन हमने बहुत से लेखों में बहुत बार पढ़ी है और बहुत जगहों पर सुनी है. इससे गुज़रते ही सबसे पहला सवाल ज़हन में आता है कि भारत ऐसा करेगा कैसे? और क्या भारत ने इस ओर कदम बढ़ाना शुरू भी किया है? इन सवालों के जवाब में आम तौर पर यह कहा जाता है कि भारत कोयले आधारित ऊर्जा उत्पादन को कम करते हुए रिन्यूएबल एनर्जी की ओर बढ़ेगा. देश के विभिन्न शहरों में दौड़ते ई-रिक्शा पेट्रोल-डीज़ल से चलने वाले ऑटो रिक्शा को स्थानांतरित करना चाहते हैं. इसके अलावा डीज़ल-पेट्रोल की गाड़ियों के बरक्स इलेक्ट्रॉनिक व्हीकल का चलन भी बढ़ रहा है. यह तस्वीर ऊपर दिए दोनों सवालों का जवाब देने की कोशिश तो करती है.
भारत का जस्ट ट्रांजिशन का रास्ता क्रिटिकल मिनरल्स के उत्पादन और उपलब्धता से होकर जाता है. कैसे? आइये समझते हैं. सड़क पर दौड़ती हुई इलेक्ट्रॉनिक गाड़ियाँ, पहाड़ों पर लगी पवन चक्की से लेकर मोबाईल और तमाम डिफेन्स टेक्नोलॉजी के बनने में रेयर अर्थ मिनरल्स बेहद महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं. इनमें कोबाल्ट, निकिल और लीथियम भी शामिल हैं जिनका इस्तेमाल बैट्री बनाने में किया जाता है. भारत ने इस तरह के 30 मिनरल्स चिन्हित किए हैं जो जस्ट ट्रांजिशन के साथ ही भारत के आर्थिक विकास और रक्षा क्षेत्र के लिए महत्वपूर्ण हैं.
बीते महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की यात्रा कई मायने में महत्वपूर्ण रही. इस दौरान भारत ने मिनरल्स सिक्योरिटी पार्टनरशिप पर हस्ताक्षर किए. इसके साथ ही भारत मिनरल्स सिक्योरिटी पार्टनरशिप (MSP) नामक एक वैश्विक समूह का हिस्सा हो गया है.
क्या है मिनरल्स सिक्योरिटी पार्टनरशिप?
भारत सहित दुनिया के कई देश क्रिटिकल मिनरल्स की आपूर्ति के लिए चीन पर निर्भर हैं. दुनिया के कुल क्रिटिकल मिनरल्स उत्पादन का सबसे बड़ा हिस्सा चीन में उत्पादित होता है. अपनी भूमि के अलावा वह अफ्रीका की खदानों से भी मिनरल्स निकालता है. इस तरह चीन वैश्विक क्रिटिकल मिनरल्स उत्पादन का 70 प्रतिशत उत्पादन अकेले ही कर लेता है. क्रिटिकल मिनरल सप्लाई चेन को सुरक्षित करने और चीन पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से साल 2022 में अमेरिका के नेतृत्व में मिनरल्स सिक्योरिटी पार्टनरशिप (MSP) नामक समूह का गठन किया गया. इसमें कुल 13 देश शामिल हैं जो आपस में इन मिनरल्स का आदान प्रदान करने के अलावा इनके उत्पादन से जुड़ी हुई तकनीक का भी लेन-देन करते हैं.
भारत के लिए इस सदस्यता के मायने
भारत में कुछ क्रिटिकल मिनरल्स का उत्पादन होता है मगर ज़्यादातर मिनरल्स का भारत आयात करता है. ऐसे में भारत की चीन पर निर्भरता बढ़ जाती है. मगर बीते दिनों भारत और चीन के संबंधों में काफी खटास आई है. अतः भारत की इन मिनरल्स के लिए चीन पर निर्भरता का कम होना उसके लिए फायदेमंद होने वाला है. इसके अलावा यह सदस्यता इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि भारत अब इलेक्ट्रॉनिक व्हीकल का न सिर्फ उपभोक्ता बल्कि निर्माणकर्ता के रूप में उभरने के भी मौके तलाश रहा है. ऐसे में बैट्री कंटेंट और अन्य सेमी कंडक्टर बनाने के लिए भारत को इन देशों के साथ सामंजस्य बनाने में मदद मिलेगी.
इसके अलावा चूँकि यह एक ऐसा वैश्विक समूह है जो सप्लाई चेन की सुरक्षा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है अतः भारत की इस समूह में इंट्री एक जिओ-पॉलिटिकल मूव की तरह भी देखा जाना चाहिए. यह मूव इस वक़्त महत्वपूर्ण है क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध और बीती कोरोना महामारी ने यह सिद्ध किया है कि किसी भी सामान की सप्लाई चेन वैश्विक स्तर पर कभी भी प्रभावित हो सकती है. ऐसे में अपनी ज़रूरत को पूरा करने के लिए ऐसे किसी वैश्विक समूह का हिस्सा होना अनिवार्य है.
हालाँकि भारत मिनरल्स उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन जाएगा इसकी सम्भावना कम है. मगर भारत में सोलर पैनल, पवन चक्की और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामानों का निर्माण बढ़ने के हम इलेक्ट्रॉनिक प्रोडक्शन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर या एक महत्वपूर्ण देश के रूप में उभर सकते हैं. इस उद्देश्य में पेंच केवल इतना है कि इलेक्ट्रॉनिक उत्पादन के क्षेत्र में मिनरल्स एक महत्वपूर्ण घटक तो है मगर इसके बाद भी अन्य कई कारक हैं जो भारत को आत्मनिर्भर बनने की राह में रोड़ा बन सकते हैं. इन सब कारणों के बावजूद भारत का इस समूह का हिस्सा बनना ग्रीन एनर्जी हब बनने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है.
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