झाबुआ के मुख्य बाज़ार से अलग एक छोटी सी गली के अन्दर स्थित शक्ति एम्पोरियम को यहाँ के लोग ‘गुड़िया घर’ के नाम से जानते हैं. यहाँ झाबुआ की प्रसिद्द गुड़िया बनाई जाती है. गुड़िया घर के संचालनकर्ता सुभाष गिदवानी बताते हैं कि झाबुआ में व्यापारिक स्तर पर इस कला की शुरुआत उनके पिता उद्धव गिदवानी द्वारा की गई थी. वह बताते हैं कि साल 1952 में झाबुआ के आदिवासियों को आत्म निर्भर बनाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा ट्रेनिंग कम प्रोडक्शन सेंटर (TCPC) में ट्रेनिंग प्रोग्राम संचालित किया गया था. उनके पिता यहाँ प्रमुख अधिकारी के रूप में पदस्थ थे. यहाँ स्थानीय लोगों को गुड़िया बनाने का प्रशिक्षण दिया जाता था बाद में सुभाष के पिता ने इसका निर्माण अपने घर में करवाना शुरू किया जो आज भी जारी है.
क्या है गुड़िया कला?
झाबुआ की आदिवासी गुड़िया असल में एक स्टफ्ड डॉल आर्ट है. इसमें महिला और पुरुष के रूप में आदिवासी जोड़े और इनकी संस्कृति को दिखाया जाता है. यह जोड़े पारंपरिक वेशभूषा में होते हैं. इसके अलावा तीर-कमान, हँसिया और बाँस की टोकरी जैसी चीजें भी प्रदर्शनी में शामिल होती हैं जो यहाँ के आदिवासियों के दैनिक जीवन और संस्कृति को दिखाती हैं.
मगर मुक्ता परमार के लिए यह कला केवल घरों को सजाने का साधन बस नहीं है. यह उनके लिए अपना घर चलाने का ज़रिया भी है. परमार दिव्यांग हैं मगर शारीरिक सीमाओं में न बंधकर उन्होंने कला के माध्यम से खुद का विस्तार करने का सोचा. वह बीते 15 साल से गुड़िया घर में गुड़िया बनाने का काम कर रही हैं. ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए वह कहती हैं,
“यदि मैं यह काम न सीखती तो मुझे अपने घरवालों पे आश्रित होना पड़ता. मगर अब मैं खुद से अपनी ज़रूरत पूरी कर सकती हूँ और घर खर्च के लिए पैसे भी दे सकती हूँ.”
कैसे बनती हैं गुड़ियाँ?
लक्ष्मी बीते 30 सालों से यह काम कर रही हैं. वह इसके बनने की प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहती हैं कि सबसे पहले कपड़े में गुड़िया का साँचा बनाया जाता है. इसके बाद कपड़े को साँचे के अनुसार काट कर सिल लिया जाता है. सिलने के बाद हाथ-पैर और शरीर के अन्य हिस्से तैयार हो जाते हैं. इनमें रुई भरकर सजीव किया जाता है. इसके बाद इनमें सुई धागे की मदद से सिल दिया जाता है. गुड़िया का चेहरा प्लास्टर ऑफ़ पेरिस से तैयार किया जाता है जिसे बाद में चिपका दिया जाता है.
लक्ष्मी बताती हैं कि उन्हें एक गुड़िया बनाने में लगभग एक घंटे का समय लगता है. वह बीते समय को याद करते हुए बताती हैं, “मेरी ट्रेनिंग के दौरान टीसीपीसी में मुझे 110 रूपए महीने इस कला के लिए मिलते थे.” अभी उन्हें एक गुड़िया का 50 रूपए मिलता है. महीने भर में होने वाली इस कमाई से लक्ष्मी अपने संयुक्त परिवार को आर्थिक सहयोग देती हैं.
“हमें बाज़ार में छोटी सी जगह भी नहीं मिली”
गुड़िया की इस कला ने न सिर्फ इसके कलाकारों बल्कि झाबुआ को भी पहचान दिलवाई है. मगर भारती गिदवानी कहती हैं कि इससे नाम भले ही खूब मिला हो मगर कमाई नाम मात्र की ही है. वह सरकार से शिकायत करते हुए कहती हैं,
“इस कला को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने हमें कोई भी सहयोग नहीं दिया है. हमें बाज़ार में एक छोटी सी दुकान भी नहीं दी गई कि हम वहां इन गुड़ियों को बेंच सकें.”
हालाँकि एक वर्ष पहले ही इस कला से जुड़े हुए रमेश परमार और उनकी पत्नी शांति परमार को पद्मश्री से नवाज़ा गया था. भारती कहती हैं कि इससे उनकी मुश्किल कम नहीं हुई है. वह बताती हैं कि अभी यह गुड़ियाँ इंदौर, भोपाल और दिल्ली में बेंची जाती हैं. मगर उनके अनुसार इस कला का अब भी ‘कोई ख़ास बाज़ार नहीं है’.
“जो लोग मीडिया या किसी माध्यम से इस कला के बारे में जानते हैं या फिर आदिवासी संस्कृति से सम्बंधित कोई आयोजन होता है तब इस गुड़िया का ऑर्डर आता है. मगर देश में कहीं भी कोई तय बाज़ार नहीं है.” भारती बताती हैं.
जीआई टैग का इंतज़ार
भारती अपने परिवार और उनके यहाँ काम करने वाले कलाकारों को सम्मान का अधिकारी मानती हैं. वह कहती हैं कि उनके पिता के प्रयास से ही इस कला को पहचान मिली थी मगर उन्हें इसके लिए कोई भी सम्मान नहीं दिया गया. इसके अलावा इन कलाकारों द्वारा जीआई टैग की मांग भी की गई थी. साल 2021 में इसे जीआई टैग मिलने की सम्भावना भी थी. मगर वह इंतज़ार अब तक पूरा नहीं हो सका है. भारती कहती हैं,
“हमने सरकार को कई बार इससे सम्बंधित फ़ाइल भेजी मगर अब भी जीआई टैग नहीं मिला है.”
गौरतलब है कि केंद्र सरकार द्वारा नेशनल हैण्डीक्राफ्ट डेवलपमेंट प्रोग्राम के तहत हैण्डीक्राफ्ट डेवलपमेंट स्कीम लॉन्च की गई थी. इसके तहत सरकार को हैण्डीक्राफ्ट क्लस्टर बनाने थे. मगर झाबुआ में इस कला को लेकर अब तक ऐसा कोई प्रयास नहीं किया गया है. वहीँ पूरे मध्यप्रदेश में इस तरह के 67 क्लस्टर्स हैं जिनमें कुल 5 हज़ार 784 कलाकार कार्य कर रहे हैं.
महंगाई के बीच मुश्किल होता कला को बचाना
भारती कहती हैं कि बढ़ती महंगाई के बीच इस कल को बचाना मुश्किल हो रहा है. वह बताती हैं कि इस गुड़िया को बनाने में इस्तेमाल होने वाला कपड़ा और रुई के दाम बढ़ गए हैं जिससे लागत बढ़ गई है. भारती कहती हैं
“पहले जो रुई 10 रूपए किलो आती थी अब वह 70 से 80 रूपए किलो आती है. ऐसे में इस कला से आर्थिक मुनाफ़ा बेहद कम होता है. इस कला को आगे बचाए रखना बेहद मुश्किल होगा.”
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