डी नोटीफाईड ट्राईब्स (DNT) वो जनजातियां हैं जिन्हें क्रिमिनल ट्राईब्स (Criminal Tribes Act) एक्ट 1871 के तहत अंग्रेज़ों ने जन्मजात अपराधी घोषित कर दिया था। ये मुख्यतः घूमंतु जनजातियां (Nomadic Tribes) होती हैं।
हमारे देश की करीब 190 ऐसी जनजातियां हैं जिनके ऊपर अंग्रेज़ों ने 175 सालों तक अपराधी होने का तमगा टांगे रखा था। आज़ादी के 5 साल बाद 31 अगस्त 1952 के दिन भारत सरकार ने क्रिमिनल ट्राईब्स एक्ट (Criminal Tribes Act) को खत्म कर इसे हैबिचुअल ऑफेंडर एक्ट से बदल दिया।
इन जनजातियों के लोग 31 अगस्त को विमुक्ती दिवस (Vimukti Diwas) के रुप में मनाते हैं क्योंकि असल मायने में इन्हें इसी दिन जन्म से मिले कलंक से अज़ादी मिली थी।
(Criminal Tribes Act) अंग्रेज़ों ने इन जातियों की पहचान कैसे की?
दरअसल 1857 के विद्रोह में कई जनजातियों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। विद्रोह को नियंत्रित करने के लिए अंग्रेज़ों ने कई कानून बनाए और लोगों को जेल में डाला। इस विद्रोह में हमारे देश की घूमंतू जनजातियां भी शामिल थी। अंग्रेज़ों के लिए इनकी पहचान करना मुश्किल था क्योंकि इस जनजाति के लोग कभी एक जगह पर नहीं रहते थे। अंग्रेज़ों ने 1871 क्रिमिनल ट्राईब एक्ट (Criminal Tribes Act) बनाया और एक पूरी की पूरी जनजाति को ही अपराधी घोषित कर दिया।
पुलिस में भर्ती होने वाले जवानों को यह पढ़ाया गया की ये जनजातियां अपराध करती हैं। तब से पुलिस इन्हें अपराधियों के तौर से देखने लगी। पुलिस को इन जनजातिय लोगों के शोषण की अपाल शक्तियां दी गई।
बावरिया, भांतु, कंजर, सांसी, छारा और पारधी जानजाति के लोगों को आज भी अपराधी की तरह ही देखा जाता है।
कानून बदला लेकिन समाज ने नज़रिया नहीं बदला
समाज में इन जनजातियों को नफरती नज़र से देखा जाता रहा है। कभी इन्हें पुलिस बिना किसी अपराध के गिरफ्तार कर लेती है तो कभी जनता बच्चा चोरी जैसे इल्ज़ाम लगाकर इनकी लिंचिंग कर देती है। इसके कुछ उदाहरण हैं,
पश्चिम बंगाल में सबर जाति के एक युवक बुद्धन को पुलिस उठा कर ले गई और पीट-पीट कर उसकी हत्या कर दी। यह मामला भी बुद्धन को अपराधी घोषित कर पुलिस दबाना चाहती थी। लेकिन साहित्यकार महाश्वेता देवी इस मामले को न्यायालय तक लेकर गई और न्यायालय ने दोषी पुलिस और जेल अधिकारियों को सजा देने के साथ ही बुद्धन के परिजनों को मुआवजा देने के भी आदेश पारित कर दिए.
2003 में मध्य प्रदेश के घाट अमरावती गांव में पारधियों के दस घर फूंके गए, 2007 में बिहार के वैशाली जिले में नट जनजाति के दस लोगों को भीड़ ने चोर होने के आरोप में पीट-पीट कर मार डाला और सितंबर, 2007 में मध्य प्रदेश के बैतूल जिले के चौथिया गांव में पारिधियों के 350 परिवारों के घर जला कर राख कर दिए गए.
लगभग 180 सालों तक देश की व्यवस्था ने इन जनजातियों को कानूनी तौर पर जन्मजात अपराधी माना है. इसके चलते धीरे-धीरे समाज में भी इन जनजातियों की पहचान अपराधियों के रूप में ही स्थापित होती चली गई।
मीडिया ने इस जनजाति को बर्बाद करने का कमा किया है
इस काम में मीडिया का भी खूब हाथ रहा है, साल 2016 में बुलंदशहर में हुई एक बलात्कार की घटना में जब बावरिया जनजाति के लोगों का नाम सामने आया तो मीडिया ने पूरी जनजाति को ही कठघरे में खड़ा कर दिया था। अखबारों में हेडलाईन्स दिए गए कि हत्या, बलात्कार चोरी और लूट के लिए कुख्यात है बावरिया, महिलाओं और बच्चों को भी नहीं छोड़ते बावरिया।
डीएनटी ट्राईब के लोग बेहद ही गरीब होते हैं, इनके पास कोई पुश्तैनी ज़मीन नहीं है क्योंकि ये घूमंतू जनजाति से आते हैं। इस जनजाति के कई लोगों के पास आज भी राशन कार्ड और आधार कार्ड नहीं हैं। सरकारी योजनाओं का फायदा इन लोगों को नहीं मिल पाता। साथ ही लोग इन्हें हमेशा एक अपराधी ही समझते हैं इसलिए इन्हें और कोई काम भी नहीं मिलता।
जाति व्यवस्था ने किसी को जन्म से अपराधी बनाया तो किसी को अछूत। इन जनजातिय लोगों के पास अपराध करने और जन्म से मिले काम को कहने के अलावा और दूसरा कोई विकल्प छोड़ा ही नहीं गया।
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