बीते 24 नवंबर को मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल का एयर क्वालिटी इंडेक्स स्कोर 361 था. इंडेक्स के अनुसार यह बेहद ख़राब (very poor) था. भोपाल की हवा को इतना खराब करने में जहां एक ओर पटाखों से निकला हुआ धुआं ज़िम्मेदार था वहीं दूसरी ओर शहर के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे निर्माण कार्य से निकलने वाली धूल भी शामिल थी. मगर भोपाल देश का अकेला ऐसा शहर नहीं है जहां धूल के चलते प्रदूषण बढ़ जाता है.
40 प्रतिशत तक प्रदूषण कम करने का है लक्ष्य
देश भर के सभी शहर अलग-अलग स्तर पर धूल के चलते प्रदूषण का सामना कर रहे हैं. इसको ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार द्वारा साल 2019 में नेशनल क्लीन एयर प्रोग्राम (NCAP) लॉन्च किया गया. इसके तहत शामिल देश के 132 शहरों को साल 2017 के मुकाबले पीएम 2.5 और पीएम 10 पार्टिकल प्रदूषण को साल 2024 तक 20 से 30 प्रतिशत तक और साल 2026 तक 40 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य रखा गया था. हम साल 2023 के अंतिम महीने में पहुंच चुके हैं मगर यह शहर अपने लक्ष्य को पूरा करते हुए नहीं दिखते हैं.
सेंटर फ़ॉर साइंस एंड एनवारमेंट (CSE) द्वारा जारी हालिया रिपोर्ट के अनुसार इन शहरों में से केवल 26 प्रतिशत शहरों के पास ही निर्माण और विकास (construction and demolition) कार्य से निकलने वाले मलबे का आंकड़ा है. यानि 74 प्रतिशत शहर यह जानते भी नहीं हैं कि रोज़ाना उनके द्वारा कितना मलबा उत्पादित किया जा रहा है. गौरतलब है कि 15वें फाइनेंस कमीशन द्वारा कुल 29 हज़ार 250 करोड़ रुपए देश के 42 मिलियन शहरों की नगर पालिक जैसी अर्बन लोकल बॉडीज (ULB) को परफॉर्मेंस लिंक्ड फंडिंग के रुप में दिए गए हैं. ऐसे में सवाल यह है कि यदि शहरों के पास मलबों से जुड़ा हुआ कोई डाटा ही नहीं है तो धूल की समस्या का निवारण वो कैसे करेंगे?
कानून का हो रहा धीमा पालन
सीएसई की रिपोर्ट के अनुसार इन शहरों में साल 2016 में बनाए गए कंस्टक्शन एंड डिमोलिशन वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स का पालन बेहद धीमी गति से हो रहा है. अधिकतर शहरों में इन नियमों के अनुसार वेस्ट कलेक्शन प्वाइंट भी नहीं बनाए गए हैं. वहीं केवल 18 शहरों में ही रिसाइकलिंग और प्रोसेसिंग प्लांट बनाए गए हैं. जिन शहरों में यह प्लांट हैं वहां भी रिसाइकल्ड प्रोडक्ट को बाज़ार में बेंचने का स्पेस नहीं है. इन प्रोडक्ट को इस्तेमाल करने की बाध्यता बनाने के लिए किसी भी तरह के कानून का आभाव इस समस्या को और गहरा देता है. अभी भारत में सी एण्ड डी वेस्ट मैनेजमेंट रूल्स के तहत निर्माण कार्य में 10 से 20 प्रतिशत तक रिसाइकल मटेरियल का इस्तेमाल करने का सुझाव भर दिया गया है.
रिपोर्ट के लिए किए गए सर्वे के अनुसार ऐसे निर्माणकर्ता जो कोई बड़ा निर्माण कार्य (20 हज़ार स्क्वेयर मीटर से अधिक) नहीं कर रहे हैं उन्हें सी एंड डी वेस्ट के निपटान के लिए जरूरी नियम पता ही नहीं हैं. ऐसे में स्थानीय नगर पालिक संस्थाओं द्वारा किए गए प्रचार अभियान पर भी सवाल उठता है.
आने वाले दिनों में बढ़ेगा प्रदूषण
भारत साल 1970 में 1.18 बिलियन टन निर्माण सामग्री का इस्तेमाल कर रहा था जो साल 2015 तक 6 गुना बढ़कर 7 बिलियन टन हो गया. वहीं भारत में केवल 20 से 25 प्रतिशत तक सामग्री ही रिसाइकल की जाती है जो यूरोप (70 प्रतिशत) के मुकाबले बेहद कम है. नेशनल इन्वेस्टमेंट प्रमोशन एण्ड फेसिलिटेशन एजेंसी के अनुमान के अनुसार साल 2025 तक निर्माण सामग्री का बाज़ार 1.4 ट्रिलियन डॉलर (यूएस) तक बढ़ जाएगा. ऐसे में निर्माण कार्य के बढ़ने के साथ ही प्रदूषण भी बढ़ेगा ऐसे में हमारे देश के शहरों का प्रदूषण की इस चुनौती से पार पाना बेहद आवश्यक हो जाता है.
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