9 अगस्त 2023 को राज्यसभा से पारित डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन बिल (DPDP Act) बीते मानसून सत्र के दौरान पारित हुए तमाम विवादित कानूनों में से एक है. इस कानून के खिलाफ सबसे ज़्यादा आशंका आरटीआई एक्टिविस्टों द्वारा ज़ाहिर की गई है. उनके अनुसार यह कानून जनता के सूचना के अधिकार का उल्लंघन करता है. हालाँकि कानून बनने के बाद भी खबर लिखने के दिन (8 सितम्बर 2023) तक किसी भी प्रदेश में डीपीडीपी एक्ट क्रियान्वित नहीं हुआ है. एक्ट की धारा 1(2) के अनुसार इस एक्ट के क्रियान्वयन के लिए सरकार अलग से सूचना जारी करेगी. किसी भी प्रदेश में यह कानून इस नोटिफिकेशन के जारी होने के बाद ही लागू किया जा सकेगा.
मध्यप्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त अरविन्द कुमार शुक्ला पर कानून की इस धारा को नज़रन्दाज़ करने का आरोप लगा है. सूचना का अधिकार आन्दोलन के संयोजक अजय दुबे आरोप लगाते हुए कहते हैं,
“मप्र के मुख्य सूचना आयुक्त ने अपने फैसलों में डीपीडीपी एक्ट का हवाला देते हुए लोगों को सूचना के अधिकार के तहत माँगी गई जानकारियाँ देने से मना करना शुरू कर दिया है. साथ ही उन्होंने सरकार को पत्र लिखा कि सरकार लोक सूचना अधिकारियों को पाबन्द करें कि वो डीपीडीपी एक्ट का उपयोग करें.”
मध्य प्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त के इस कदम पर सवाल उठना शुरू हो गए हैं. विशेषज्ञों का कहना है कि उनका यह कदम अवैधानिक और कानून के खिलाफ है.
क्या है डीपीडीपी एक्ट?
सरकार के अनुसार डिजिटल पर्सनल डाटा प्रोटेक्शन एक्ट (डीपीडीपी एक्ट) नागरिकों के निजी डाटा को सुरक्षित करने के लिए लाया गया है. यह कानून हर उस व्यक्तिगत डाटा से सम्बंधित है जो डिजिटल स्वरुप में उपस्थित है. सरल भाषा में समझें तो ऐसी कोई भी जानकारी जिससे किसी व्यक्ति की निजता का हनन होता हो या जिससे किसी की पहचान उजागर होती हो उसे यह कानून संरक्षण प्रदान करता है. यह कानून किसी भी कंपनी को निजी डाटा का उचित प्रबंधन, उसे लीक होने से बचाने और ज़रूरत ख़त्म होने के बाद उसे डिलीट करने के लिए बाध्य करता है. हालाँकि सरकार के ऊपर इस तरह की कोई भी पाबन्दी नहीं है. सरकार किसी योजना का लाभ दिलाने, देश की रक्षा से सम्बंधित मसलों पर कार्यवाही करने और कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए कभी भी निजी डाटा का इस्तेमाल कर सकती है.
सूचना के अधिकार को कैसे डीपीडीपी एक्ट कमज़ोर करता है?
इसके अलावा शैलेश गाँधी डीपीडीपी एक्ट की धारा 38 (2) को लेकर चिंता व्यक्त करते हैं. वह बताते हैं कि कानून की इस धारा के तहत आरटीआई या किसी भी अन्य कानून के प्रावधानों के ऊपर डीपीडीपी एक्ट के प्रावधानों को ही वरीयता दी जाएगी. अब तक आरटीआई के तहत किसी भी व्यक्ति की ऐसी निजी जानकारी जो सार्वजनिक हित में हो उसे प्राप्त किया जा सकता था. मगर डीपीडीपी कानून उसपर पाबंदी लगाकर ऐसा करना ना मुमकिन कर देता है.
यह कानून आरटीआई को कैसे कमज़ोर करेगा? इस पर जवाब देते हुए अजय दुबे कहते हैं,
“मान लीजिए कि मैने किसी पब्लिक सर्वेंट की योग्यता से सम्बंधित कोई जानकारी जैसे उसकी अकादमिक योग्यता, अनुभव और पहचान से सम्बंधित अन्य जानकारी आरटीआई के तहत माँगी. इसे सम्बंधित विभाग यह कहकर ख़ारिज कर सकता है कि यह उस व्यक्ति की निजी जानकारी है.”
“सूचना आयुक्त संवैधानिक अधिकार को कुचल रहे हैं”
हमसे बात करते हुए अजय दुबे कहते हैं कि “पूरे देश में सबसे पहले इस एक्ट का उपयोग करके आम लोगों के संवैधानिक अधिकार को कुचलने का काम सबसे पहले मध्यप्रदेश के सूचना आयुक्त ने ही किया है.” दुबे कहते हैं कि “सूचना आयुक्त का काम होता है सूचना के अधिकार को मज़बूत करना मगर उन्होंने इसे कमज़ोर करने का ही काम किया है.” उन्होंने मुख्य सूचना आयुक्त के इस आचरण की शिकायत राज्यपाल को भी की है. उन्होंने अपनी शिकायत में लिखा कि - श्री शुक्ल ने भ्रष्ट तंत्र को राहत दिलवाने की मंशा से मप्र शासन को अगस्त माह में पत्र लिख DPDP Act 23 के क्रियान्वयन हेतु कहा है जो कि मध्यप्रदेश में जनता के मूल अधिकारों के साथ विश्वासघात है.
आशंकाओं को बल देता उदाहरण
दुबे जैसे अन्य आरटीआई एक्टिविस्टों की सूचना के अधिकार को कमज़ोर करने की आशंका को मध्य प्रदेश के ही नर्मदापुरम ज़िले में हुई एक घटना से और भी बल मिलता है. बीते साल अगस्त के महीने में नर्मदापुरम ज़िले के इटारसी में स्थित डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी चिकित्सालय के लैब सहायक के पद पर स्थित कमलेश भूमरकर की शैक्षणिक योग्यता, तकनीकि योग्यता सहित जाति और मूल निवास से सम्बंधित जानकारी आरटीआई के तहत माँगी गई थी. इस जानकारी को सूचना अधिकारी द्वारा व्यक्तिगत जानकारी होने के चलते देने से मना कर दिया गया.
इस मामले में आरटीआई की धारा 8 (1) (j) का उद्धरण देते हुए कहा गया है कि - अब जबकि “अधिनियम” की धारा 8 (1) (j) के उक्त प्रावधान डीपीडीपी एक्ट 2023 के अनुसार प्रतिस्थापित किया जा चुका है. चाही गई जानकारी व्यक्ति विशेष की होने से व्यक्ति विशेष और व्यक्ति के डेटा से सम्बंधित है और जानकारी दिए जाने से उस व्यक्ति की पहचान होती है इसलिए अधिनियम की धारा 8 (1) (j) के संशोधित प्रावधान के परिपेक्ष्य में चाही गई जानकारी प्रगटन योग्य नहीं होने से बिंदु क्रमांक 1 के सम्बन्ध में जानकारी दिए जाने के सम्बन्ध में आदेश दिया जाना आपेक्षित नहीं है.
शैलेश गाँधी हमें बताते हैं कि इस कानून में साफ़ लिखा है कि जब तक सरकार इसके क्रियान्वयन के लिए अलग से नोटिफिकेशन जारी नहीं करेगी तब तक इसका उपयोग या इसे किसी भी मामले में रेफरेंस के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.
मुख्य सूचना आयुक्त का पक्ष
इस पूरे मसले पर ग्राउंड रिपोर्ट से बात करते हुए मुख्य सूचना आयुक्त अरविन्द कुमार शुक्ला कहते हैं,
“मैने सरकार को पत्र लिखकर डिजिटल डाटा प्रोटेक्शन बिल का पालन हर विभाग में करवाने के लिए कहा है.”
चूँकि कानून को लागू करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा जिस अनिवार्य नोटिफिकेशन की आवश्यकता है वह अब तक जारी नहीं की गई है. ऐसे में कानून को लागू कराने की वैधता पर सवाल पूछने पर अरविन्द शुक्ला हमें कोई स्पष्ट उत्तर न देते हुए “इसे देखते हैं” ऐसा कहते हैं.
पहले भी देर से लागू हुए हैं कानून
कानून के लागू होने की पेचीदगियों को और स्पष्ट रूप से समझाते हुए पूर्व जज आरबीएस बघेल कहते हैं, “कुछ कानून राष्ट्रपति के हस्ताक्षर करने के बाद प्रकाशित तुरंत प्रभाव से लागू हो जाते हैं और कुछ कानूनों को लागू करने के लिए सरकार अलग से नोटिफिकेशन जारी करती है.” वह लीगल सर्विस अथोरिटी एक्ट (1987) का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि “1987 में पारित होने के बाद भी इस एक्ट को 1995 में लागू किया गया था.”
बघेल डीपीडीपी एक्ट के बारे में बताते हुए कहते हैं, “डीपीडीपी कानून की धारा 1(2) में यहाँ तक लिखा हुआ है कि इसके अलग-अलग प्रावधानों के लागू होने के लिए अलग-अलग तारीखें भी निर्धारित की जा सकती हैं.” उनका भी मानना है कि नोटिफिकेशन जारी होने के पहले इस एक्ट को इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.
ऐसे में मध्यप्रदेश के मुख्य सूचना आयुक्त अरविन्द कुमार शर्मा का डीपीडीपी एक्ट के क्रियान्वयन को लेकर जल्दबाज़ी दिखाना अनुचित जान पड़ता है. इसकी शिकायत करते हुए अजय दुबे ने मध्यप्रदेश के राज्यपाल से मुख्य सूचना आयुक्त के खिलाफ जाँचकर उन्हें बर्खास्त करने की माँग की है. वह कहते हैं कि अगर राज्यपाल मुख्य सूचना आयुक्त पर कोई कार्यवाही नहीं करते हैं तो वह कोर्ट का रुख इख्तियार करेंगे.
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