शहीद चंद्रशेखर आज़ाद, भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु और नारायणदास खरे के संस्मरण उनके तीन क्रांतिकारी साथी और घनिष्ठ मित्र रहे भगवानदास माहौर , सदाशिवराव मलकापुरकर, शिववर्मा ने यश की धरोहर- क्रांतिकारियों के संस्मरण किताब में लिखे हैं।
भारत की आज़ादी की लड़ाई में हर कोई अपने तरीके से योगदान दे रहा था, तब नौजवानों के भीतर क्रांति की ज्वाला जल रही थी, वो अंग्रेजों के अत्याचारों का बदला उसी क्रांति के ज़रिए लेना चाहते थे। जब लाला लाजपतराय की अंग्रेज़ों की लाठियों के प्रहार से मृत्यु हुई तो युवा क्रांतिकारियों ने लाहौर के पुलिस सुप्रीटेंडेंट स्कॉट को गोली से मारने की योजना बनाई। काकोरी की घटना, असेंबली में बम गिराना और राष्ट्र के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर इन क्रांतिकारियों का झूल जाना हम सभी को याद है। कई बार किताबों में और फिल्मों में हम यह सब देख चुके हैं। यह किताब हमें क्रांतिकारियों की वीर गाथा से इतर उनके व्यवहार, विचार और व्यक्तित्व के करीब लेकर जाती है।
क्योंकि ये संस्मरण इन क्रांतिकारियों के साथ रहे लोगों ने लिखे है तो यह हमें उनके जीवन के ऐसे पहलुओं से परिचित करवाते हैं जिन्हें पढ़कर एहसास होता है कि भगत सिंह, आज़ाद और राजगुरु हमारे जैसे ही आम नौजवान थे। वो एक दूसरे के साथ मस्ती मज़ाक करते, एक दूसरे से लड़ते, उनके बीच भी कंपटीशन होता।
दो वक्त की रोटी का संघर्ष, राष्ट्र के लिए परिवार का बलिदान, हर वक्त खुद को छिपाए रखना और चौकन्ना रहना आसान नहीं था। लेकिन वो इन सब की फिक्र किए बगैर अपने लक्ष्य पर केंद्रित रहते। वो यह जानते थे के उनका एक अनैतिक कदम उन्हें राष्ट्र की नज़र में गिरा देगा, वो इस बात का खास ख्याल भी रखते की अनुशासन में कोई कमी न रहे।
जिस यश की धरोहर को संजोने का काम यह किताब करती है, वो आज के नौजवानों के लिए पढ़ना ज़रुरी है। यह किताब पढ़कर लगता है कि किसी भी उ्द्देश्य की पूर्ती के लिए दृढ़ता और निर्भीकता कितनी ज़रुरी है। जब आज़ाद अंग्रेज़ों से छिपकर अपने गांव जाते हैं तो चारों तरफ से पकड़े जाने के डर के बावजूद चैन की नींद सोते हैं, लेकिन उनके साथी रात भर नहीं सो पाते। यह एक निडर व्यक्ति के ही गुण होते हैं।
भगत सिंह, आज़ाद और तमाम क्रांतिकारियों ने अंग्रेज़ों से बदले के लिए हिंसा का रास्ता ज़रुर चुना था, लेकिन उनका उ्द्देश्य एक ऐसा स्वराज था जहां शांति और अमन से हर भारतीय रह सके।
अलग अलग विचारधारा, धर्म, परिवेश के ये नौजवान कैसे एक साथ रहकर तमाम मुद्दों पर चर्चा करते, बहस करते, लड़ते लेकिन फिर एक हो जाते यह पढ़कर काफी संतोष मिलता है। आज के दौर में विविधता का सम्मान कम होता जा रहा है।
आज इन क्रांतिकारियों की गौरवगाथा को किताबों के कुछ पैराग्राफ तक सीमित कर दिया गया है। हम इनके बलिदान को तो याद करते हैं लेकिन इनके विचारों और सपनों के बारे में नहीं जानते। अगर आज के असहिष्णु दौर में ये क्रांतिकारी पैदा होते तो शायद मौजूदा सिस्टम भी उन्हें उसी नज़र से देखता जिस नज़र से अंग्रेजी प्रशासन देखा करता था।
इस तरह की किताबों का हमारे बीच होना और इनका पढ़ा जाना बेहद ज़रुरी है, खासकर ऐसे दौर में जहां वैचारिक आज़ादी कुचली जा रही है।
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