उत्तराखंड में 2013 में आई आपदा और फिर 7 फरवरी को चमोली के तपोवन में आई जलप्रलय की घटनाएँ पूरी दुनिया को बड़े बांधों के निर्माण और पर्यावरण असंतुलन से होने वाले दुष्परिणामों से आगाह कर रही है। यह बड़े बांध स्थानीय जनता को न तो सिंचाई और न ही पेयजल की पूर्ति करते हैं बल्कि इसके विपरीत प्राकृतिक रूप से संवेदनशील पहाड़ी क्षेत्रों के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करते हैं। बड़े बांधों में बहुत अधिक जलराशि एकत्रित होने से पहाड़ों पर अत्यधिक दबाव पड़ता है। इसके निर्माण के दौरान भारी मशीनरी और विस्फोटकों आदि का प्रयोग होता है, जो पहाड़ों की नींव को भी हिला देते हैं, जिससे पहाड़ों में भूस्खलन, भूकंप आदि की संभावनाएं भी बढ़ जाती हैं। चूँकि बड़े बांधों को भरने के लिए नदियों का प्रवाह रोकना पड़ता है, इसलिए नदी के पानी से जो नैसर्गिक भूमिगत जलसंचय होता है, उसमें भी व्यवधान पड़ता है।
विगत दिनों गढ़वाल क्षेत्र के तपोवन के पास ऋषि गंगा में ग्लेशियर टूटने से भयानक बाढ़ आने से काफी संख्या में जान और माल का नुकसान हुआ है, जिसमें बिजली उत्पादन संयत्र और कुछ जगह जलाशय भी क्षतिग्रस्त हुए हैं। इससे पहले 2013 में भी उत्तराखंड ने केदारनाथ आपदा झेली है, जिसमें भूस्खलन या ग्लेशियर के टूटने से मन्दाकिनी नदी में अचानक भयंकर बाढ़ आ गयी थी, जिसमें सैकड़ों लोग मारे गए या लापता हो गये थे और अत्यधिक संपत्ति का भी नुकसान हुआ था। अगर कभी इस तरह का भूस्खलन बड़े बांधों के प्रभाव क्षेत्र में होगा तो निश्चय ही देश को भयानक आपदा झेलनी पड़ सकती है। कुल मिलाकर देखें तो जलसंचय के लिए पहाड़ी क्षेत्र में बड़े जलाशयों (बांधों) का निर्माण अत्यधिक जोखिम भरा है। बड़े बांधो की बजाए जगह-जगह छोटे छोटे बांध बनाये जाएं तो वह न सिर्फ भूमिगत जलस्तर बढ़ाएंगे, बल्कि इससे पानी के प्राकृतिक जलस्रोत भी रिचार्ज होते रहेंगे। इसके अलावा बरसाती नालों में चेक-डैम बनाये जाने चाहिए, जिससे धरती की जलधारण क्षमता बढ़ती है और इस तरह वर्षा के पानी का भूमिगत जल संचय किया जा सकता है। इससे निःसंदेह ही प्राकृतिक जल स्रोत में पानी की उपलब्धता सुनिश्चित होगी और पानी की कमी से जूझ रहे ग्रामीणों को बड़ी राहत प्रदान होगी।
अब प्रश्न यह उठता है कि इसके अतिरिक्त क्या कोई अन्य प्रयास भी किये जा सकते हैं, जिससे कम संसाधनों के बल पर पहाड़ में पानी की सुलभता सुनिश्चित की जा सके? इस दिशा में कई लोगों और संगठनों ने कई बार अलग अलग जगहों में रचनात्मक प्रयास किये हैं। इसी समस्या को ध्यान में रखते हुये विगत दिनों नैनीताल जिले के रामगढ़ और धारी क्षेत्र में एक स्वयंसेवी संगठन 'जनमैत्री संगठन' ने पानी को बचाने की दिशा में सराहनीय कार्य किया है। चूंकि पहाड़ों में यदा कदा बारिश होती रहती है और बारिश का पानी बहकर नदियों में समा जाता है, इसलिये जरूरत थी कुदरत के इस निःशुल्क उपहार को समेटने की। इसके लिए संस्था ने बारिश के पानी को समेटने, सहेजने की तरफ अपना ध्यान केंद्रित किया। संगठन ने पानी को संग्रहित करने के लिये जमीन में गड्ढे खोद कर कच्चे टैंक बनाये, जिस पर प्लास्टिक शीट डालकर बरसात के पानी को जमा करने का इंतजाम किया।
"रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून" रहीम ने आज से सैकड़ों साल पहले ये बात समझ ली थी, कि पानी का होना कितना जरूरी है। हालांकि रहीम के समय भी सदा नीरा गंगा, यमुना जैसी नदियां बहती थीं, फिर भी उन्होंने पानी की महत्ता समझ ली थी। खैर पानी की जरूरत और किल्लत की संभावना को देखते हुए कई विश्लेषक यहां तक कह रहे हैं कि तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिये होगा। हालांकि दुनिया के सभ्य इंसान किसी भी चीज़ के लिये युद्ध नहीं चाहते, फिर पानी पिलाना तो धर्म का कार्य माना गया है। तो फिर ऐसे में यह प्रश्न उठता है कि आखिर कैसे इस युद्ध को रोका जाय? जाहिर है अभी पानी बनाने वाली तकनीकी चलन में नहीं है। समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाने की तकनीक कुछ देशों में जरूर है, परंतु बहुत ही ख़र्चीला होने के कारण गरीब देशों की हैसियत से बाहर की चीज़ है। घूम फिरकर वही प्रश्न उठता है कि आखिर पानी की किल्लत कैसे दूर किया जाये, ताकि सभी को समान रूप से आवश्यकतानुसार न केवल पानी उपलब्ध कराया जा सके, बल्कि आने वाली पीढ़ी के लिए भी पानी को बचाया जा सके?
पर्वतीय क्षेत्र उत्तराखंड के संदर्भ में देखा जाय तो यहाँ पर असंख्य नदियों में पानी की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद यहाँ का आमजन युगों से उस पानी का दोहन नहीं कर पाया है। कारण है कि पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण खेत खलियान ऊंचाई पर स्थित होते हैं और नदी का बहाव नीचे की ओर होता है। हालांकि पूर्व में कई जगह नदियों से नहर प्रणाली द्वारा खेतों की सिंचाई के लिये पानी की व्यवस्था की गयी, परंतु वह नाकाफी साबित हुई और कालांतर में अधिकांश परियोजनाएं ठप पड़ती गयीं। पहाड़ों में वर्षा ऋतु और उसके तीन चार महीने बाद तक तो पानी की उपलब्धता ठीक रहती है, क्योंकि बरसात के कारण भूमि में नमी रहती है और प्राकृतिक जलस्रोतों से भी पानी का उत्पादन अधिक मात्रा में होता रहता है। लेकिन ग्रीष्म ऋतु की आहट के साथ ही जहाँ एक ओर भूमि की नमी खत्म होने लगती है, वहीं प्राकृतिक जलधाराओं में भी पानी की उपलब्धता न्यून हो जाती है। कुल मिलाकर मार्च से जुलाई तक अर्थात मानसून के आने तक लगभग चार महीने उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में पानी की विकट समस्या रहती है।
अब इसे ग्लोबल वार्मिंग कहें या कोई और प्राकृतिक घटनाचक्र, पिछले कुछ समय से प्राकृतिक जलस्रोतों पर भी खतरा मंडराने लगा है। आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में कई प्राकृतिक जलस्रोत या तो सूख चुके हैं या सूखने की कगार पर हैं। उत्तराखंड जल संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार फिलहाल राज्य के 500 जलस्रोत सूखने की कगार पर हैं। सम्पूर्ण उत्तराखंड पानी के संकट से गुजर रहा है। हालाँकि उत्तराखंड सरकार ने भी जल नीति घोषित की है। इसमें वर्षा जल संग्रहण के साथ-साथ पारंपरिक स्रोतों को बचाने का लक्ष्य रखा गया है। राज्य की जल नीति में भूमिगत जल के अलावा बारिश के पानी को संरक्षित करने की बात कही गयी है, परंतु अभी तक के हालातों और अनुभवों को देखते हुए नहीं लगता है कि सरकारी योजनाएं कभी जमीन पर भी साकार हो पाएंगी। हालांकि अगर सरकारें चाहें तो किसी भी बड़ी नदी या झरने से पंपिंग व्यवस्था द्वारा हर पहाड़ी गाँव को पानी उपलब्ध करा सकती है। इसके अलावा पहाड़ी नदियों पर छोटे-छोटे डैम (जलाशय) या बैराज बनाकर पानी का संचय किया जा सकता और उसे पानी की किल्लत झेल रहे पहाड़ी ग्रामीणों को उपलब्ध कराया जा सकता है। इस तरह से संग्रहित किया गया पानी न सिर्फ पहाड़ी लोगों की, अपितु पहाड़ के नीचे तराई के लोगों के लिए पानी की कमी को काफी हद तक पूरा किया जा सकता है।
परंतु अभी तक के अनुभव बताते हैं कि कोई भी सरकार इस मामले में संजीदा नहीं हैं। इस बारे में सरकारों का रवैया बहुत ही दुखद रहा है। सरकारों का ध्यान पहाड़ी क्षेत्र के लोगों की पानी की जरूरतों के समाधान के बजाय पूरी तरह राजस्व प्राप्ति के लिए व्यावसायिक कदम उठाने तक सीमित रहता है। उत्तराखंड के पहाड़ों में जगह जगह बड़े डैम बनाये गये हैं या बनाये जा रहे हैं, जिनसे बिजली उत्पादन कर प्रदेश से बाहर भी भेजा जाता है। जनमैत्री संगठन के संयोजक बची सिंह बिष्ट ने बताया कि “पानी बचाने के इस कार्य में उन्हें कुछ स्वयंसेवी संस्थाओं का भी सहयोग मिला, जिन्होंने जल संचय के लिए गड्डो में बिछाने के लिए प्लास्टिक शीट उपलब्ध करवाने हेतु आर्थिक सहायता प्रदान की।“ उन्होंने बताया की “इस तरह वह अब तक हजारों गड्डे बनवाकर लाखों लीटर पानी का संचय कर चुके हैं। इस पानी से ग्रामीण स्वयं की जरुरत भी पूरी करते हैं, पशुओं को भी पानी पिलाते हैं तथा साथ में फल और सब्ज़ी उत्पादन हेतु खेतों में भी इस्तेमाल करते हैं। इससे उस क्षेत्र के ग्रामीणों की आर्थिक स्थिती पर भी सकारात्मक असर पड़ा है।
”जनमैत्री संगठन ने वर्ष 2017-18 से 2019-20 में कुल 314 टैंक बनाये, जिनमें 73 नैनीताल के धारी ब्लाक के बुढ़िबना गाँव में, 16 रामगढ़ ब्लाक के सूपी में, 4 लोद और गल्ला में तथा 2 नथुवाखान गाँव में। शेष सतबुंगा ग्राम पंचायत के पाटा, धुरा, दुत्कानधार, लोधिया में बनाये गए हैं। 2015 व 2016 में भी गल्ला व आसपास के क्षेत्रों में जनमैत्री द्वारा 100 प्लास्टिक के टैंक बनाये गए थे, जिनमें अभी भी बहुत से टैंक जिंदा और कार्यरत हैं। इस तरह जनमैत्री के सहयोग से बनाये गए पानी के टैंको से लगभग 50 लाख लीटर पानी संचय किया गया, जिसका उपयोग स्थानीय ग्रामीणों द्वारा पेयजल के रूप में, घरेलू कार्यों के उपयोग में, पशुओं को पिलाने के लिए और फल एवं सब्जियों की सिंचाई आदि में किया गया। जल संचय की उनकी इस मुहिम में रामगढ़ और धारी ब्लॉक के सूपी, पाटा, बूढीबना, देवटांडा, जयपुर, लोद, अल्मोड़ी, गल्ला, कोकिलबना आदि अनेकों गांवों के ग्रामीण शामिल होकर लाभ उठा चुके हैं।
स्थानीय कृषक महेश गलिया ने बताया कि “इस क्षेत्र में पानी की बहुत किल्लत है। पीने के पानी के लिये भी ग्रामीणों को जूझना पड़ता है। यदि किसी को गृह निर्माण आदि के लिये पानी चाहिये होता है तो उसे डेढ़ रुपया/लीटर पानी का मूल्य चुका कर टेंकर से पानी खरीदना पड़ता है।” वह आगे कहते हैं कि “मुझे अपने घर के निर्माण के दौरान उन्हें इन टैंकों की उपयोगिता का पता लगा।” महेश गालिया के पास तीन पानी के टैंक हैं, जिनमें हरेक की क्षमता लगभग 10 हजार लीटर है। इस तरह उन्होंने घर के निर्माण के लिए 30 हजार लीटर पानी इन टैंकों से इस्तेमाल किया और लगभग 45 हजार रुपये सिर्फ पानी के खर्च का बचा लिया। उन्होंने बताया कि जो टैंक घर के पास बनाये गये हैं उनके पानी का इस्तेमाल घर की जरूरतों, मवेशियों आदि के पीने के लिये होता है, जबकि खेतों के बीच में बनाये टैंकों के पानी से फलों के पौधों और मटर आदि सब्ज़ी को उगाने में सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है। स्थानीय किसान हरि नयाल ने बताया कि “उन्हें स्वयंसेवी संगठन जनमैत्री के मार्फ़त 2007 के आसपास प्लास्टिक शीट मिली, जिसे उन्होंने गड्ढा खोदकर उससे पानी बचाया और पहले ही साल लगभग 30 हजार रुपये का खीरा पैदा किया।” हरि नयाल के अनुसार इस समय उनके पास 4 टैंक हैं, जिनमें वे लगभग 40 हजार लीटर तक पानी बचा लेते हैं। वे इस पानी का इस्तेमाल सेव, खुमानी, आड़ू, नाशपाती और मटर,आलू, खीरा आदि सब्जियों की सिंचाई में करते हैं। इस तरह बचाये हुये पानी से हरि नयाल सालाना लगभग 3-4 लाख रुपये का फल और सब्ज़ी का व्यवसाय करते हैं। हरि नयाल का कहना है कि इस तरह अपनी खेती करने से वे आत्मनिर्भर हैं ही, साथ ही नौकरी जैसी टेंसन से मुक्ति भी मिली है।
चूंकि इस तरह गड्डे खोदकर और उनमें प्लास्टिक शीट बिछाकर पानी बचाना शुरुआत में थोड़ा खर्चीला कार्य जरूर है और पहाड़ के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए उसकी व्यवस्था करना थोड़ा कठिन रहता है, इसलिए यदि सामुदायिक और सहकारी रूप में इस कार्य को किया जाय तो पहाड़ी क्षेत्र के ग्रामीणों के लिए जल का संचय करना कठिन कार्य नहीं रहेगा। संभव है कि वर्षा जल संग्रहण जैसा कदम पर्वतीय क्षेत्रों की उन्नति में मील का पत्थर साबित होगा। प्रधानमंत्री भी आज 'आत्मनिर्भर' होने की बात करते हैं। यदि पर्वतीय उत्तराखंड को 'आत्मनिर्भर' बनाना है तो उसके लिए सबसे पहला प्रयास जल का संचय कर हर ग्रामीण परिवार तक जल की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। तभी इस ग्रामीण प्रदेश का समेकित विकास संभव है।
यह आलेख अल्मोड़ा, उत्तराखंड से गिरीश चंद्र 'गोपी' ने चरखा फीचर के लिए लिखा है
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