TB Medicine Crisis | साल 2025 तक भारत खुद को टीबी मुक्त देश बनाने के लिए संकल्पित है. मगर भारत में इसकी दवाओं की कमी इस लक्ष्य को पूरा करना मुश्किल कर देती है. ख़बरों के अनुसार भारत में टीबी से सम्बंधित कई दवाओं की उपलब्धता नहीं है. जिसके चलते मरीजों को दवा नहीं मिल पा रही है. शहरों के साथ ही भारत के आदिवासी क्षेत्र भी इससे प्रभावित हैं. यहाँ स्थिति और भी गंभीर है.
ग्राउंड रिपोर्ट ने स्थिति की पड़ताल करने के लिए झाबुआ के कई गाँव जाकर पीड़ितों से मुलाक़ात की. हमारे ग्राउंड वर्क में सामने आया कि दवाओं की अनुपलब्धता के चलते मरीज़ अपनी रोज़ की ख़ुराक लेने से चूक रहे हैं जिससे उनकी तकलीफ में इज़ाफा हो रहा है.
भारत में दवाओं की कमी
इस साल के मार्च महीने में ही टीबी (tuberculosis) और एचआईवी के मरीज़ों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पत्र के माध्यम से पीएम को दवाओं की कमी के बारे में बताया था. उनका कहना था कि आइसोनियाज़िड, रिफैम्पिसिन, पैराजिनामिड और एथमबुटोल सहित कई दवाएँ सरकारी दवाखानों में उपलब्ध नहीं है. गौरतलब है कि इन दवाओं का वितरण टीबी के मरीजों को निशुल्क किया जाता है.
मगर झाबुआ के मेघनगर के गाँव मऊड़ीपाड़ा के धूलजी थावरिया को बीते 2 महीनों से दवा नहीं मिली है. यह भील आदिवासी पीड़ित अब इतना कमज़ोर हो चुके हैं कि डॉक्टर के पास अपने फॉलोअप इलाज के लिए भी नहीं जा सकते हैं. वह कहते हैं कि शेष दवाओं को बचाने के लिए वह दिन में 3 की जगह एक ही दवा ले रहे हैं. यही हाल एक अन्य गाँव के पुनिया वागजी डामोर का है. वह भी बिस्तर में लेटे हुए दवा की अनुपलब्धता के बारे में हमें बताते हैं.
भारत में टीबी की स्थिति
गौरतलब है कि साल 2019 में भारत में टीबी के 2.4 मिलियन मामले सामने आए थे. यानि हर घंटे भारत में 275 केस दर्ज होते हैं. देश के जनजातीय क्षेत्रों में टीबी के मामले राष्ट्रिय औसत से भी ज़्यादा हैं. यहाँ हर एक लाख में से 703 आदिवासी मरीज़ टीबी (tuberculosis) के होते हैं. जबकि राष्ट्रिय औसत के अनुसार भारत में एक लाख में से 316 मरीज़ टीबी पॉजिटिव पाए जाते हैं.
हालाँकि झाबुआ के सामाजिक कार्यकर्त्ता मिकला दित्ता कटारा के अनुसार आदिवासी इलाकों में टेस्ट और अन्य चिकित्सा सुविधा अच्छी नहीं होने के कारण असल संख्या नहीं पता चल पाती. वह कहते हैं,
“यहाँ पहले कम से कम दवा सही समय से मिल जाती थी. अब वो भी उपलब्ध नहीं हैं.”
उनका मनना है कि यह एक गंभीर समस्या है क्योंकि इससे जो मरीज़ आंशिक रूप से ठीक हो चुके थे उनमें अब दवाइयों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाएगी. इससे उनका इलाज और भी कठिन हो जाएगा.
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