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विदिशा जिले के कुंडलपुर गांव में ग्रामीणों द्वारा बनाई गई सड़क
मध्यप्रदेश के विदिशा जिले के कुंडलपुर गांव के 94 परिवारों के 600 से अधिक लोगों ने एक ऐसा कदम उठाया जो न केवल उनकी मजबूरी को दर्शाता है, बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था के सामने एक करारा सवाल भी खड़ा करता है।
आजादी के पहले से बसे इस गांव तक पहुंचने के लिए कोई पक्की सड़क नहीं थी। गांव के निवासी प्रदीप अहिरवार बताते हैं,
"आजादी के पहले से हमारा गांव बसा हुआ है, लेकिन हमारे इस गांव तक पहुंचने के लिए पहुंच मार्ग ही नहीं है। हमने सरपंच को भी हमारी समस्या बताई तो उन्होंने भी यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि वे गांव में भले ही सीसी रोड का निर्माण करा सकते हैं लेकिन मुख्य मार्ग से गांव के पहुंच मार्ग तक सड़क निर्माण का काम तहसील वा जिला स्तर का है।"
यह स्थिति दशकों से जारी थी। ग्रामीणों ने न केवल स्थानीय सरपंच बल्कि जिला प्रशासन और जनप्रतिनिधियों तक अपनी बात पहुंचाने की कोशिश की, लेकिन हर जगह से निराशा ही हाथ लगी।
जीवन-मृत्यु का संघर्ष
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सड़क की अनुपस्थिति का सबसे दुखद प्रभाव तब सामने आया जब जीवन-मृत्यु के मामलों में भी ग्रामीणों को भारी कीमत चुकानी पड़ी। प्रदीप अहिरवार एक दुखद घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं,
"हमारे गांव में एक दो से तीन वर्ष का एक बालक अत्यधिक बीमार हो गया था। उसके पिता ने गाड़ी निकाली और लेकर चल दिए, लेकिन बीच रास्ते में ही गाड़ी कीचड़ में फंस गई। इसके बाद उसके पिता अपने बीमार बेटे को कंधे पर लादकर अस्पताल तक पहुंचे, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।"
गर्भवती महिलाओं की स्थिति भी कम दयनीय नहीं थी। गांव के राम सिंह अहिरवार बताते हैं,
"गांव की गर्भवती महिलाओं को हम खाट पर रखकर अस्पताल तक ले जाते। हमने जनप्रतिनिधियों से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों से भी गुहार लगाई, लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी।"
मजबूरी में उठाया गया कदम
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निरंतर उपेक्षा के बाद ग्रामीणों के पास कोई विकल्प नहीं बचा। उन्होंने एक अभूतपूर्व निर्णय लिया - अपने सरकारी राशन को बेचकर सड़क का निर्माण करना। यह निर्णय न केवल उनकी दृढ़ता को दर्शाता है बल्कि व्यवस्था की नाकामी का भी प्रतीक है।
प्रदीप अहिरवार के मुताबिक 600 के लगभग जनसंख्या, 300 से अधिक वोटर्स और 94 परिवार वाले कुंडलपुर गांव के लोगों ने तय किया कि लोगों को मिलने वाले सरकारी राशन को बाजार में बेचकर बारिश के पहले सड़क का निर्माण कराया जा सकता है। हाल ही में शासन की ओर से एक साथ तीन माह का राशन भी ग्रामीणों को वितरित किया गया था। गांव में जिसकी जैसी हैसियत थी वैसा राशन सड़क के लिए दान किया गया और सड़क निर्माण के लिए पैसों की व्यवस्था की गई।
इस प्रयास में पूरे गांव ने एकजुट होकर काम किया। लगभग 70 हजार रुपये एकत्रित करके एक किलोमीटर तक कच्चे रोड का निर्माण कराया गया। इस कार्य में गांव की महिलाएं, पुरुष और बच्चों सभी ने श्रमदान किया। यह सामुदायिक भावना का एक उत्कृष्ट उदाहरण था, जहां व्यक्तिगत त्याग को सामूहिक हित के लिए किया गया।
प्रशासनिक जागरूकता - देर आए दुरुस्त आए?
जैसे ही यह मामला मीडिया और सोशल मीडिया पर आया, प्रशासनिक अधिकारियों में हड़कंप मच गया। सायरन बजाती गाड़ियों के साथ अधिकारी गांव पहुंचे और तत्काल राहत कार्यों की घोषणा की।
जनपद पंचायत लटेरी के सीईओ उदय प्रताप सिंह ने स्थिति को संभालने का प्रयास करते हुए कहा,
"मौके पर पहुंचकर निरीक्षण किया तो यह बात सत्य पाई गई कि ग्रामीणों ने स्थानीय संसाधनों का उपयोग करते हुए रोड का निर्माण किया है। लेकिन वो रोड इस लायक नहीं है कि उस पर दो या चार पहिया वाहन निकल सके।"
उन्होंने आगे बताया, "मुझे यह बताते हुए बड़ी प्रसन्नता हो रही है कि कुंडलपुर को ओखलीखेड़ा के मुख्य मार्ग से जोड़ने के लिए प्रधानमंत्री ग्राम सड़क के चतुर्थ चरण में ले लिया गया है, जिसकी डीपीआर की प्रक्रिया प्रचलन में है।"
शिक्षा और रोजगार पर प्रभाव
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सड़क की अनुपस्थिता का प्रभाव केवल स्वास्थ्य सेवाओं तक सीमित नहीं था। शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में भी गंभीर समस्याएं थीं। प्रदीप अहिरवार, जो एक प्राइवेट जॉब करते हैं, अपनी मुश्किलों के बारे में बताते हैं:
"मैं एक प्राइवेट जॉब करता हूं, चार महीने बारिश के समय में मुझे अपने ऑफिस के जिम्मेदार लोगों से कहना पड़ता है कि यदि मैं देर से आऊं या न आ पाऊं तो कृपया यह न समझिएगा कि मैं मक्कारी कर रहा हूं, हमारी मजबूरी है।"
स्कूली बच्चों की स्थिति भी चिंताजनक थी। प्रदीप आगे कहते हैं,
"यही हाल गांव के स्कूली बच्चों का भी है, चार महीने उनकी पढ़ाई पूरी तरह से डिस्टर्ब रहती है।"
व्यवस्था पर करारा सवाल
यह घटना न केवल ग्रामीणों के संघर्ष की कहानी है बल्कि सरकारी तंत्र की संवेदनहीनता का भी जीता-जागता सबूत है। जब ग्रामीणों ने अपनी मूलभूत ज़रुरत के लिए इतना बड़ा त्याग किया, तब जाकर प्रशासन की नींद खुली।
राम सिंह अहिरवार का कहना है, "गांव को बसे हुए 80 साल के लगभग हो चुके हैं, लेकिन हमारे गांव तक पहुंचने के लिए मुख्य मार्ग ही नहीं था।" यह स्थिति स्मार्ट गांव और मूलभूत सुविधाओं के विकास के सरकारी दावों पर गंभीर सवाल खड़े करती है।
निष्कर्ष
कुंडलपुर गांव की यह घटना भारतीय ग्रामीण व्यवस्था की एक कड़वी सच्चाई है। यह दिखाता है कि कैसे मूलभूत सुविधाओं के अभाव में ग्रामीण अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने को मजबूर हैं। प्रदीप अहिरवार के शब्दों में, "सिर्फ सड़क ही नहीं गांव में पानी की भी कोई व्यवस्था नहीं है, हम मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं, जिस पर कोई ध्यान नहीं देता।"
यह घटना एक चेतावनी है कि विकास की वास्तविक परीक्षा शहरों में नहीं बल्कि इन भूले-बिसरे गांवों में होती है, जहां लोग अपने मौलिक अधिकारों के लिए अपना राशन तक बेचने को मजबूर होते हैं।
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