आज पूरे देश भर में सालाना 78.2 मिलियन टन खाद्य कचरा निकलता, यानी भारत का प्रत्येक नागरिक साल भर में तकरीबन 54 किलो खाद्य कचरा उत्पादित करता है। देश के कई शहरों में वेस्ट कलेक्शन की उचित व्यवस्था न हो पाने से यह कचरा लैंडफिल में जा कर हमारी प्रकृति को नुकसान पहुंचता ही है। लेकिन उससे पहले यह हमारी सड़कों, नालों, और हमारे रसोइयों में गंदगी फैलाता है। इस अवस्था का सीधा भार हिंदुस्तानी महिलाओं के सर आता है, जो हमारी रसोइयां सम्हालती हैं।
इन्हीं समस्याओं को देखते हुए बैंगलोर की अनु खंडेलवाल रॉबिन (RawBin) नाम की मशीन बनाई है। और इस पूरी प्रक्रिया में WCC (वीमेन क्लाइमेट कलेक्टिव) नाम की संस्था ने अनु की मदद की है। WCC पर्यावरण के लिए काम करने वाली महिलाओं को मंच प्रदान करती है। इसी दौरान ग्राउंड रिपोर्ट ने भी अनु से बात की और जाना कैसे रॉबिन हल करता है खाद्य कचरे की चुनौतियों को।
कैसे आया रॉबिन का विचार
अनु बताती हैं कि उन्होंने एक इंजीनियर के तौर पर अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, और दक्षिण पूर्व एशिया के कई देशों में कई बड़ी कंपनियों के लिए काम किया है। इस दौर में जब अनु अपने मास्टर्स के लिए एडिनबरो विश्वविद्यालय (University of Edinburgh) में काम कर रहीं थी, तब दिल्ली के कचरा प्रबंधन पर काम करने का मौका मिला। यहां अनु ने महसूस किया की खाद्य कचरे पर अलग से कार्य किये जाने की जरूरत है।
अनु ने साल 2020 से फ़ूड वेस्ट की समस्या को हल करने के लिए एक ऑटोमैटिक कंपोस्टर बनाने पर काम शुरू किया। इसके पीछे की वजह थी कि, बाजार में उपलब्ध विकल्प काफी महंगे और मैन्युअल थे, साथ ही इनकी प्रक्रिया भी काफी जटिल थी। अनु ने फ़ूड वेस्ट से खाद बनाने की प्रक्रिया को आसान, सुलभ, और प्रभावी बनाने पर विशेष जोर दिया ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इसे इस्तेमाल करने के लिए आकर्षित हो सकें।
कैसे काम करता है रॉबिन
अनु ने बताया की रॉबिन एक IoT (इंटरनेट ऑफ थिंग्स) आधारित एक मशीन है। रॉबिन दरअसल हमारे कचरे के डब्बे जितना ही बड़ा डिब्बा होता है। इस डिब्बे में कचरा डालने के बाद, एक रॉबिन मिक्सचर डाला जाता है। रॉबिन मिक्सचर में लगभग 28 तरह के माइक्रोब और बैक्टीरिया होते हैं जो इस फ़ूड वेस्ट को खाद में बदलने का काम करते हैं। शुरआत में यह रोबिन मिक्सचर मुफ्त दिया जाता है। एक बार मिक्सचर के खत्म होने के बाद रॉबिन से निकली खाद को ही मिक्सचर के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है।
रॉबिन के अंदर ही एक हीटिंग सिस्टम डाला गया है जो जरूरत पड़ने पर इस प्रक्रिया में हीट का योगदान देता है। अंत में जब खाद बन कर तैयार हो जाती है तब रॉबिन की हरी एलईडी लाइट जल जाती है और उपयोगकर्ता खाद को निकाल सकता है।
अनु ने बताया कि, रॉबिन को इस तरह डिजाइन किया गया है कि इससे किसी भी तरह की बदबू न निकले और लोग इसे अपने घर के अंदर रख कर इस्तेमाल कर सकें। इसके अलावा रॉबिन से मीथेन का उत्सर्जन नहीं होता है, और रॉबिन के इस्तेमाल से फ़ूड वेस्ट के उपचार की लागत 50 फीसदी तक घटाई जा सकती है।
इन सब के अलावा रॉबिन में IoT आधारित सिस्टम लगा हुआ है जो हर घर से कितनी जैविक खाद बनी है, और इससे कितना कार्बन उत्सर्जन सीमित हुआ है इसका डाटा भी इकठ्ठा करेंगे। अनु इस डाटा का इस्तेमाल भविष्य में ग्रीन क्रेडिट के तौर पर करने की योजना बना रहीं हैं।
रॉबिन से निकली खाद का उपयोग लोग अपने गार्डनों में कर सकते हैं। इसके अलावा अनु सामुदायिक कृषि संगठनों को भी जोड़ने का प्रयास कर रहीं है, जो सीधे फ़ूड वेस्ट से निकली खाद लेंगे और बदले में अपने उत्पाद देंगे।
रॉबिन को बनाने में आई चुनौतियां
अनु बतातीं हैं कि उन्हें लगभग 4 साल से भी अधिक समय इसे तैयार करने में लगा है। रॉबिन का वर्तमान मॉडल उनका 5वां प्रोटोटाइप है। अनु ने बताया की उनके शुरआती मॉडल भी ठीक से काम कर रहे थे, लेकिन उनकी लागत तकरीबन 18 हजार थी, जो की बहुत अधिक थी। अनु ने लगातार इसे कम करते हुए 2000 रूपये प्रति यूनिट तक लाया है, जिसे अनु 4000 से 4500 तक में बेंचती हैं।
इसके अलावा अनु के पास इंक्यूबेशन के लैब की व्यवस्था नहीं थी। इसके लिए अनु की मदद वनस्थली विश्वविद्यालय ने की, जहां से अनु ने स्नातकोत्तर किया था। इसके अलावा अनु को केंद्र सरकार और सिडबी से लगभग 30 लाख की ग्रांट भी मिली है।
जयपुर के कई घरों में काम कर रहा है रॉबिन
अनु ने बताया की उन्होंने रॉबिन को एक पायलट परियोजना के तौर पर जयपुर के कई घरों में लगाया है। इन घरों में रॉबिन पिछले 3 महीनों से काम कर रहा है। जयपुर के मानसरोवर में रहने वाले आयुष जैन पिछले 4 महीनों से रॉबिन का इस्तेमाल कर रहे हैं।
आयुष बताते हैं कि उनकी मां बची हुई रोटियां और खाना गायों को खिलाया करतीं थीं। लेकिन पिछले कुछ समय से उनके इलाके में गाय आना काम हो गईं। इसके अलावा स्थानीय नगर निगम भी नियमित रूप से कचरा नहीं उठाता था। अब आयुष अपने घर में रॉबिन का इस्तेमाल कर रहे हैं।
शुरुआत में रॉबिन का इस्तेमाल करने के पीछे आयुष का कारण था कि इससे निकली खाद का इस्तेमाल आयुष की मां अपने गार्डन में कर लेंगी। आयुष बताते हैं कि उनकी मां ने घर पर 60-70 पौधों का एक गार्डन तैयार किया है। रॉबिन के आने के बाद उन्हें बाहर से खाद नहीं खरीदनी पड़ी है। रॉबिन को लेकर अपने अनुभव बताते हुए आयुष कहते हैं कि,
हमारा पांच लोगों का परिवार है, और हम पिछले 4 महीनों से रॉबिन का इस्तेमाल कर रहे हैं। रॉबिन हमारे किचेन के पीछे की बालकनी में रखा रहता है। इसमें 3 एलईडी दी हुई हैं। जब इसके अंदर नमी ज्यादा हो जाती है तब लाल एलईडी जलती है, और हम मिक्सचर डाल देते हैं। जब खाद तैयार हो जाती है तब हरी एलईडी जलती है, और हम खाद निकाल लेते हैं। रॉबिन में लगभग 6 किलो कचरा डालने पर 1 किलो खाद तैयार होती है।
रॉबिन से तो आम तौर पर कोई बदबू वगैरह नहीं आती है। लेकिन कभी-कभी जब हम कचरा डालने के लिए ढक्कन खोलते हैं और उसमें पुराना कचरा पड़ा रहता है, तब हल्की सी स्मेल आती है।
आयुष कहते हैं कि उन्होंने रॉबिन का इस्तेमाल खाद के लिए शुरू किया था। लेकिन अब उन्हें अहसास है कि इस माध्यम से वो पर्यावरण बचाने की दिशा में छोटा सा प्रयास कर रहे हैं।
अनु रॉबिन को जयपुर के बाद देश के बैंगलोर जैसे अन्य बड़े शहरों में भी पायलट के तौर पर शुरू करना चाहतीं हैं। जयपुर के उपयोगकर्ताओं से मिली प्रतिक्रिया के बारे में अनु कहतीं हैं,
जयपुर के लोगों में रॉबिन को इस्तेमाल करने के बाद एक फील गुड फैक्टर देखने को मिला है। लोग इस बात से खुश हैं कि हमने पर्यावरण के लिए कुछ अच्छा किया। अब हम इसे बैंगलोर में भी पायलट के तौर पर शुरू करने जा रहे हैं। इसके बाद हम इसे बाकी की मेट्रो और टियर-2 सिटी में शुरू करेंगे। दरअसल हम अलग-अलग शहरों की लाइफस्टाइल फ़ूड वेस्ट और उसके प्रबंधन को कैसे प्रभावित करती है, हम यह भी समझना चाह रहे हैं।
अनु ने बताया कि वो सरकार से और नगर निगमों से भी लगातार संवाद कर रहीं हैं। अपनी आगे की योजनाओं को लेकर अनु ने कहा कि,
रॉबिन से आए डाटा को हम सरकार के साथ साझा करना चाहते हैं। हमारा प्रयास है कि रॉबिन की मदद से प्रति घर कार्बन उत्सर्जन में आई कमी को नोटिस किया जाए और उस हिसाब से ग्रीन क्रेडिट प्रोग्राम के तहत इंसेंटिव दिया जाए। हमें पूरी उम्मीद है कि हम इसमें सफल होंगे।
क्यूं फूड वेस्ट का प्रबंधन है जरूरी
भारत के कई शहरों में कचरे का सोर्स सेग्रीगेशन नहीं होता है, इस वजह से कचरे की रीसाइक्लिंग मुश्किल होती है और इसके लैंडफिल में जाने का खतरा बढ़ जाता है। वर्तमान में हैदराबाद में रह रहीं शीतल शर्मा पेशे से एक सॉफ्टवेयर इंजीयनर रहीं हैं। हैदराबाद से पहले शीतल चेन्नई में रहतीं थी। शीतल ने भारत के कई शहरों में कचरे के प्रबंधन को लेकर भेद महसूस किया है। फ़ूड वेस्ट को लेकर शीतल कहतीं हैं कि,
मेरा होमटाउन बरेली है। हमारे पेरेंट्स ने हमेशा हमें यही सिखाया है कि खाना बिल्कुल भी फेंका नहीं जाना चाहिए। यूं तो बरेली में में कचरे को रिसाइकल करने की कोई व्यवस्था नहीं थी, फिर भी हम सारे फ़ूड वेस्ट यहां तक कि छिलकों को भी हमारे घर के करीब स्थित गौशाला में देते थे। बाद में मैं चेन्नई आई जहां कचरे का प्रबंधन अच्छा बेहतर था।
लेकिन हैदराबाद में ऐसा नहीं है, यहां कई दिनों तक कचरा उठाया नहीं जाता है। इस वजह से मुझे गिल्ट महसूस है कि एक ओर मैं खाना फेंका जा रहा है, और दूसरी ओर यह प्रकृति को भी नुकसान पहुंचा रहा है। मैं उम्मीद करती हूं कि रॉबिन जैसा कोई मैकेनिज्म जल्द ही हैदराबाद में भी आए।
आज बढ़ती हुई वैश्विक आबादी पर्यावरण के लिए नए खतरे पैदा कर रही है। एक ओर जहां बड़ी आबादी अनाज की अनुपलब्धता का सामना कर रही है, वहीं दूसरी ओर दुनियाभर में खाद्य कचरा लगातार बढ़ता जा रहा है। मार्च 2024 में आई यूएनईपी (United Nations Environment Programme) की रिपोर्ट "फूड वेस्ट इंडेक्स 2024" के अनुसार साल 2022 में दुनिया भर में 1,052 मिलियन टन खाद्य कचरा उत्पन्न हुआ है, जिसका तकरीबन 60 फीसदी हिस्सा घरेलू स्रोतों से आता है।
इस कचरे का बड़ा हिस्सा रीसाइक्लिंग से छूट जाता है, और लैंडफिल का हिस्सा बनता है। इस लैंडफिल से मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जित होती है जो पर्यावरण की क्षति का कारण बनती है। खाद्य कचरे का आज वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 10 फीसदी तक योगदान है, जो कि वायुयानों से हुए उत्सर्जन से भी 5 फीसदी अधिक है। ऐसी हालत में फ़ूड वेस्ट के प्रबंधन के लिए ठोस नीति और गंभीर प्रयास किये जाने की की आवश्यकता है।
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