25 जून 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्मार्ट सिटी मिशन लॉन्च किया था. इस मिशन का उद्देश्य वर्ष 2020 के अंत तक देश के 100 शहरों में संस्थागत, भौतिक, समाजिक और आर्थिक इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित कर इन्हें स्मार्ट बनाना था। बाद में इसकी डेडलाइन बढ़ा कर जून 2023 की गई। लेकिन अब इसके जून 2024 तक पूरे होने की सम्भावना है। मगर हाल ही में संसद की स्टैंडिंग कमिटी ने लोकसभा में अपनी रिपोर्ट पेश करते हुए कहा है कि कुल 7,970 प्रोजेक्ट्स में से 400 प्रोजेक्ट्स इस साल के अंत तक भी पूरे नहीं होंगे। ग्राउंड रिपोर्ट ने मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में स्मार्ट सिटी मिशन के तहत हुए कार्यों का जायज़ा लिया और यह समझने का प्रयास किया कि आखिर एक शहर के स्मार्ट हो जाने का पैमाना क्या है और क्या इसमें पर्यावरणीय नियमों का कितना ख्याल रखा गया है?
स्मार्ट सिटी मिशन के पहले चरण में मध्यप्रदेश से भोपाल, इंदौर और जबलपुर को चुना गया था, उसके बाद ग्वालियर, सागर, सतना और उज्जैन को इसमें शामिल किया गया। हर स्मार्ट शहर पर कुल 98 हज़ार रूपए खर्च होने का अनुमान था जिसमें से 48 हज़ार रूपए केंद्र सरकार और बाकी का निवेश राज्य को करना था।
स्मार्ट सिटी मिशन पूरे शहर को एक साथ स्मार्ट नहीं बनाता बल्कि यह एरिया बेस्ड स्ट्रैटजी पर काम करता है, और बाद में उसे बाकी के हिस्सों में रेप्लिकेट किया जाता है। जैसे भोपाल के टीटी नगर की 342 एकड़ ज़मीन को स्मार्ट सिटी मिशन के लिए चुना गया। एरिया बेस्ड डेवलपमेंट के रणनीतिक घटक शहर सुधार (रेट्रोफिटिंग), शहर नवीनीकरण (पुनर्विकास) और शहर विस्तार (ग्रीनफील्ड विकास) और एक पैन-सिटी इनिशियेटिव पर आधारित हैं जिसमें शहर के बड़े हिस्सों को कवर करते हुए स्मार्ट समाधान लागू किए जाते हैं। स्मार्ट सिटी के कार्यान्वयन के लिए जिम्मेदार अथॉरिटी जैसे नगर निगम अपने प्रोजेक्ट प्रपोज़ल में यह तय करती है कि वह किस मॉडल/ रणनीति के तहत काम करेगी, वे एक या एक से अधिक या मिक्स रणनीति भी अपना सकती हैं।
भोपाल स्मार्ट सिटी
भोपाल को मुख्य रूप से 2 तरह की रणनीति से स्मार्ट बनाया जाना है. पहला एरिया बेस्ड डेवलपमेंट (ABD) और दूसरा पैन सिटी डेवेलपमेंट. एरिया बेस्ड डेवेलपमेंट के अंतर्गत 342 एकड़ में फ़ैले नॉर्थ और साउथ टीटी नगर (तात्या टोपे नगर) को विकसित किया जारहा है. इसके लिए प्रोजेक्ट कॉस्ट 3 हज़ार 440.9 करोड़ रूपए थी और 5 हज़ार 578.2 करोड़ रूपए का रेवेन्यु वसूले जाने का लक्ष्य था। खुद भोपाल स्मार्ट सिटी डेवलपमेंट कॉर्पोरेशन लिमिटेड (BSCDCL) के अनुसार यह एबीडी ‘स्टेट ऑफ़ आर्ट’ होना था।
लैंड मॉनेटाईजेशन
स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत भोपाल ने रेवेन्यु जनरेशन के लिए लैंड मॉनेटाईजेशन का विकल्प चुना। इसके तहत सरकार एबीडी प्रोजेक्ट के तहत आने वाले एरिया में से कुछ प्लॉट्स को प्राइवेट प्लेयर्स को देने वाली थी। कॉर्पोरेशन के अनुसार इससे सस्टेनेबल प्रोजेक्ट्स के डेवलपमेंट में मदद और शहर के रियलस्टेट इंडस्ट्री को बढ़ावा मिलने के आसार हैं।
कॉर्पोरेशन द्वारा कुल 42 प्लॉट्स को मॉनेटाईजेशन के लिए खोला गया था. इनमें से 4 प्लॉट्स मॉनेटाईज़ (SAAR, Pg. 226) भी किए गए। इन प्लॉट्स की कुल कीमत 268.47 करोड़ थी। हालाँकि इसके अलावा अब तक और कितने प्लॉट्स मॉनेटाईज़ हुए हैं इसकी जानकारी सार्वजनिक नहीं है। मगर इस सम्बन्ध में आई सार (SAAR) की रिपोर्ट ने इस पॉलिसी में ‘विज़न’ की कमी बताई। रिपोर्ट में कहा गया कि कॉर्पोरेशन द्वारा जगह को छोटे-छोटे प्लॉट्स में बाँट दिया गया जिसके चलते कोई भी बड़ा निवेशक इस ओर आकर्षित नहीं हुआ।
मगर क्या प्रोजेक्ट्स के पूरे होने भर से इस मिशन की सफ़लता निर्धारित की जा सकती है? चूंकि इस मिशन में शहरों को सुविधाजनक और पर्यावरण के लिहाज़ से सस्टेनेबल बनाने की बात कही गई थी। ऐसे में ज़रूरी है यह देखना कि क्या वाकई अब तक जो प्रोजेक्ट्स पूरे हुए हैं या भविष्य में जिनके पूरे होने की सम्भावना है, वे पर्यावरणीय लिहाज़ से सस्टेनेबल हैं?
7 में से केवल 2 शहरों ने ली पर्यावरणीय स्वीकृति
स्मार्ट सिटी मिशन के तहत जो शहर स्मार्ट बनाए जाने थे वहां काफी निर्माण कार्य किया जाना था। ऐसे में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के 14 सितम्बर 2006 के नोटिफिकेशन के अनुसार बड़े स्तर पर होने वाले निर्माण कार्य के लिए पर्यावरणीय स्वीकृति (Environmental Clearance) लेना ज़रूरी है।
भोपाल के आरटीआई एक्टिविस्ट अजय दुबे द्वारा सूचना के अधिकार के तहत हासिल की गई जानकारी के अनुसार मध्य प्रदेश के प्रस्तावित 7 शहरों में से 5 शहरों द्वारा पर्यावरणीय स्वीकृति नहीं ली गई है। ग्राउंड रिपोर्ट को प्राप्त दस्तावेजों के अनुसार इनमें से केवल सतना और भोपाल ने ही यह स्वीकृति प्राप्त की है।
क्यों ज़रूरी है यह स्वीकृति
भोपाल में स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के चलते साल 2020 से 2022 के बीच 8 हज़ार 750 पेड़ काटे गए हैं. वहीं इंदौर के लिए यह आंकड़ा केवल 92 है. हालांकि खुद इंदौर में रहने वाले स्तंभकार चिन्मय मिश्र कहते हैं,
“इंदौर का जो हिस्सा स्मार्ट सिटी के लिए लिया गया है वह पुराना शहर है। यहाँ पहले से ही सघन बस्ती है.”
वह कहते हैं कि इंदौर में विकास के नाम पर कई पेड़ काटे जा रहे हैं मगर आंकड़ों में वह सीधे तौर पर स्मार्ट सिटी के तहत नहीं गिने जा रहे हैं। गौरतलब है कि बीते साल इस शहर में फ्लाईओवर के निर्माण के लिए 257 पेड़ काटे गए हैं।
वहीं भोपाल में जो पेड़ काटे गए हैं वह पूर्ण विकसित पेड़ थे। विधानसभा में 17 मार्च 2023 को पूछे गए एक सवाल के जवाब के अनुसार, इसके बदले क़रीब 83 हज़ार पौधे लगाए गए हैं।
मगर सवाल है कि क्या नए पौधे लगाने से पूर्णतः विकसित इन पेड़ों की कटाई की भरपाई की जा सकती है? भोपाल में अर्बन फ़ॉरेस्ट को लेकर काम करने वाली भारद्वाज कहती हैं कि सालों पुराने पेड़ों का अपना एक इकोसिस्टम होता है जो इन पेड़ों को काटने से नष्ट हो जाता है। अपनी बात को विस्तार देते हुए वह कहती हैं,
“ऐसे पुराने और पूर्णरूप से विकसित पेड़ों पर चिड़िया, जीव-जंतु से लेकर कई माइक्रोऑर्गंस निर्भर होते हैं जो पर्यावरण को बेहतर बनाए रखते हैं. ऐसे में इनके कटने से यह सब नष्ट हो जाता है जिसे आप हज़ारों पेड़ लगाकर भी भरपाई नहीं कर सकते.”
वहीं अजय दुबे कहते हैं कि विकास का ‘विक्टिम’ नेचर ही होता है. वह कहते हैं,
“विकास के नाम पर हमारे शहरों का ग्राउंड और सर्फेस वाटर का अत्यधिक उपयोग हुआ है, निर्माण कार्य के दौरान ध्वनि और वायु दोनों ही प्रदूषित हुई हैं। ऐसे में हर नागरिक का अधिकार है कि वह यह जान सके कि इस विकास से पर्यावरण और वह खुद कितना प्रभावित हो रहा है।"
कितनी सस्टेनेबल हैं स्मार्ट सिटीज़?
सरकार स्मार्ट सिटी के रूप में ऐसे शहरों को विकसित करना चाहती थी जहाँ नागरिकों को ‘कोर इन्फ्रास्ट्रक्चर’ और ‘डीसेंट लाइफ’ मिल सके. हालाँकि स्मार्ट सिटी की तरह ही इन दोनों टर्म की क्या परिभाषा है इसका स्पष्ट उत्तर आधिकारिक दस्तावेज़ों में नहीं मिलता। लेकिन कुछ दस्तावेज़ों के अनुसार यह शहर कचरा प्रबंधन, ऊर्जा बचत, ट्रांसपोर्ट सिस्टम, पानी आदि मूलभूत सुविधाओं के लिहाज़ से देश के मौजूदा शहरों से ज़्यादा ‘स्मार्ट’ होंगे। यहाँ के नागरिकों के पास सारी सुविधाएँ भी होंगी और स्वच्छ वातावरण भी। मगर क्या वाकई यह शहर सस्टेनेबल हैं?
इस सवाल का जवाब भोपाल के उदाहरण से समझते हैं। यहां पर्यावरण का ध्यान ऱखने के लिए 24 घंटे नलों से पीने योग्य पानी सप्लाय, सीवेज उपचार, वॉटर रीसायकलिंग, सक्शन आधारित अपशिष्ट की स्वचालित निकासी, "रिड्यूज़, रीयूज़ और रीसायकल" के माध्यम से शहर के संसाधनों का अनुकूलन, नवीकरणीय ऊर्जा से 10 फीसदी बिजली, स्मार्ट ग्रिड निर्माण, 100 फीसदी पावर बैकअप, वाणिज्यिक और खुदरा स्थानों के लिए केंद्रीकृत शीतलन और हीटिंग प्रणाली, बायसिकल लेन का निर्माण, 80 फीसदी ग्रीन रेटेड इमारतें और ग्रीन टाउनशिप बनाने के प्रस्ताव स्मार्ट सिटी मिशन के तहत रखे गये थे, लेकिन 8 साल पूरे हो जाने के बाद भी इनमें से ज्यादातर स्मार्ट इनिशियेटिव ज़मीन पर दिखाई नहीं देते।
पानी के हालात
स्मार्ट सिटी मिशन और अमृत भले ही अलग-अलग योजनाएँ हों मगर खुद सरकार के अनुसार यह दोनों योजनाएँ अर्बन ट्रांसफ़ॉर्मेशन को प्राप्त करने के लिए एक-दूसरे की पूरक हैं. गौरतलब है कि मध्यप्रदेश की सभी ‘स्मार्ट सिटी’ अमृत मिशन में भी शामिल हैं. मगर इन शहरों में 24 घंटे पानी सप्लाई होना अब भी किसी सपने जैसा ही है। भोपाल को अगर उदाहरण के रूप में ले तो भोपाल नगर निगम द्वारा तीसरी बार 24 घंटे पानी सप्लाई की कोशिश की जा रही है.
वहीं नेशनल सेंटर फॉर ह्ययूमन सेटलमेंट एंड एनवायरनमेंट (NCHSE) के डायरेक्टर जनरल और पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. प्रदीप नंदी कहते हैं,
“भोपाल में जो प्राइवेट कॉलोनियाँ हैं वह ख़ुद बोर इत्यादि के ज़रिए ग्राउंड वाटर का इस्तेमाल करके अपनी पानी की आपूर्ति कर रही हैं.” वह स्मार्ट सिटी का सन्दर्भ देते हुए बताते हैं कि यदि हमें सस्टेनेबल तरीके से पानी का उपयोग करना है तो उसके लिए सर्फेस वाटर का इस्तेमाल करना चाहिए ना कि ग्राउंड वाटर का।
गौरतलब है कि भारत में 85 प्रतिशत पीने के पानी की आपूर्ति ग्राउंड वाटर से ही होती है. वर्ल्ड बैंक के अनुसार भारत के 29 प्रतिशत ग्राउंडवाटर ब्लॉक्स सेमी-क्रिटिकल, क्रिटिकल या ओवरएक्सप्लॉइट हैं। ऐसे में बढ़ते शहरीकरण के चलते ग्राउंडवाटर में लगातार कमी आ रही है।
रोड और ट्रांसपोर्ट
भोपाल की होशंगाबाद रोड को देखकर स्मार्ट सिटी की ‘स्मार्ट रोड’ की हालत को समझा जाना चाहिए। वादे के अनुसार यहाँ सड़क के किनारे साइकिल लेन तो विकसित की गई मगर इस योजना को 2017 में ही वापस खींच लिया गया। अब यहाँ मौजूद साइकिल लेन के हालत बुरे हो चुके हैं।
सड़कों को चौड़ी करने और ट्राफिक को नियंत्रित करने के लिए भोपाल में बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (BRTS) कॉरिडोर तोड़ा जा रहा है। प्रशासन के तर्क के अनुसार इससे ट्राफिक और एक्सीडेंट से राहत मिलेगी. जबकि इसके एक अधिकारी नाम न छपने की शर्त पर कहते हैं,
“शहर में वाहनों की संख्या बढ़ रही है. ऐसे में कॉरिडोर को तोड़कर सड़क चौड़ी करने पर भी जाम नहीं लगने की कोई गारंटी नहीं है।”
इसके अलावा भोपाल में पब्लिक बायसिकल शेयरिंग (PBS) प्रोजेक्ट शुरू किया गया था. यह प्रोजेक्ट भी अब ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया है. सार की एक रिपोर्ट में भी चंडीगढ़ के साइकिल से सम्बंधित एक प्रोजेक्ट का ज़िक्र करते हुए भोपाल को एक असफल उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है. रिपोर्ट के अनुसार,
“भारत के शहरों में यह प्रोजेक्ट (PBS) पायलट प्रोजेक्ट से आगे नहीं बढ़ सका है. उदाहरण के तौर पर रांची, भोपाल और मैसूर में 500 साइकिल हैं और इनकी संख्या इससे आगे नहीं बढ़ पाई है. यदि चंडीगढ़ इसे पूरे शहर में लागू करने में सफल होता है तो यह पूरे देश के लिए उदाहरण बनेगा.”
कचरा प्रबंधन
मध्यप्रदेश के 2 शहर इंदौर और भोपाल स्वच्छता के लिहाज़ से देश भर में मशहूर हैं. इंदौर लगातार 7 बार देश के सबसे साफ़ शहर का ख़िताब जीत चुका है. वहीँ भोपाल इस लिस्ट में पाँचवे नंबर पर है. ‘सोर्स वेस्ट सेग्रीगेशन’ के मामले में भोपाल और इंदौर दोनों ही बेहतर हैं. सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (CSE) और नीति आयोग द्वारा की गई एक स्टडी के अनुसार वेस्ट प्रोसेसिंग रेट भी 100 प्रतिशत है.
वेस्ट सेक्टर से होने वाले कुल ग्रीन हाउस गैस (GHG) के उत्सर्जन में 14 प्रतिशत हिस्सा मीथेन का है. ऐसे में लैंडफिल साईट से होने वाला मीथेन उत्सर्जन एक बड़ी चिंता है. मगर प्रदेश के इन स्मार्ट शहरों के स्थानीय निकायों को यह भी नहीं पता कि उनकी लैंडफिल साइट्स एक दिन में कितना मीथेन उत्सर्जित करती हैं. खुद भोपाल नगर निगम के अधीक्षण यंत्री सौरभ सूद मानते हैं,
“हमारे पास इससे जुड़ा हुआ कोई भी आँकड़ा नहीं है कि हमारी लैंडफिल साईट रोज़ कितना मीथेन उत्सर्जित करती हैं. इसे ट्रैक करने का हमारे पास कोई सिस्टम नहीं है.”
साल 2018 में भोपाल नगर निगम (BMC) द्वारा ज़िले की भानपुर लैंडफिल साईट को रिक्लेम करने का काम शुरू किया गया था. साल 2022 में यह काम पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत पूरा हुआ. इसके बाद नगर निगम ने शहर से 14 किमी दूर स्थित आदमपुर छावनी में वेस्ट डंप करना शुरू कर दिया, और इस जगह के आस-पास रह रहे लोगों को दिक्कतें आना शुरू हो गई हैं.
भोपाल के उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि स्मार्ट सिटी मिशन के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए केवल इसके तहत होने वाले प्रोजेक्ट्स का पूरा होना ही काफी नहीं है. यह सारे प्रोजेक्ट्स शहर को पर्यावरण के लिहाज़ से बेहतर और सस्टेनेबल शहर बनाने के लिए लाए गए थे. मगर लैंड मॉनेटाईजेशन जैसे प्रोजेक्ट जिसमें मिशन के तहत आवंटित कुल राशि का एक बड़ा हिस्सा निवेश किया गया था वह फ़ेल नज़र आता है. शहर में पानी की सप्लाई को भी सस्टेनेबल तरीके से व्यवस्थित नहीं किया गया है. वहीँ सड़कों को कुछ जगह चौड़ा तो किया गया है मगर उससे ट्राफिक जैसे मूल समस्या हल नहीं हुई है. कहने का अर्थ यह है कि इस साल के अंत तक भी अगर स्मार्ट सिटी के प्रोजेक्ट पूरे भी हो जाएँ तब भी यह स्मार्ट सिटी मिशन के उद्देश्यों को पूरा करते हुए नहीं नज़र आते हैं.
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