Powered by

Advertisment
Home हिंदी

मुजफ्फरपुर, बिहार: माहवारी में स्कूल छूटने का दर्द

बिहार के सरकारी स्कूलों में साफ-सफाई, स्वच्छता, शौचालय, हाथ धुलाई केंद्र, रखरखाव आदि के मद में हर साल करोड़ों रुपए खर्च किये जा रहे हैं.

By Charkha Feature
New Update
muzaffarpur primary school

प्रियंका साहू | मुजफ्फरपुर, बिहार | बिहार के सरकारी स्कूलों में साफ-सफाई, स्वच्छता, शौचालय, हाथ धुलाई केंद्र, रखरखाव आदि के मद में हर साल करोड़ों रुपए खर्च किये जा रहे हैं. प्राइमरी से लेकर उच्चतर विद्यालयों के कैंपस को ‘ग्रीन व क्लीन’ बनाए रखने के लिए विभागीय कवायद भी जारी है. स्कूलों के छात्र-छात्राओं में स्वच्छता को लेकर जागरूकता बढ़े, इसके लिए भी कई प्रयास किये जा रहे हैं. हर स्कूल स्वच्छ हो, इसके लिए बिहार शिक्षा परियोजना परिषद द्वारा यूनिसेफ की मदद से ‘बिहार स्वच्छ विद्यालय पुरस्कार’ दिया जाता है. कोविड-19 महामारी के बाद से सरकार व शिक्षा विभाग की साफ-सफाई को लेकर जो सक्रियता देखी जा रही थी, उसमें अब कमी देखी जा रही है. सर्व शिक्षा अभियान से लेकर यूनिसेफ तक इस अभियान में लगा है, लेकिन सरकारी स्कूलों की जमीनी हकीकत कुछ और ही कहती हैं. राज्य के ऐसे दर्जनों सरकारी स्कूल हैं, जहां शौचालय का हाल बुरा है. शौचालय की गंदगी या फिर शौचालय के अभाव के कारण सबसे अधिकतर बालिकाओं की पढ़ाई और उसके स्वास्थ्य पर कुप्रभाव पड़ता है.

Advertisment

राज्य के एक प्रमुख शहर मुजफ्फरपुर के मुसहरी प्रखंड स्थित एक सरकारी स्कूल की कुछ छात्राओं ने बताया कि जब उन्हें पीरियड्स आता है, तब वे स्कूल जाना बंद कर देती हैं, क्योंकि स्कूल के शौचालय इतने गंदे रहते हैं कि उन्हें इंफेक्शन का डर बना रहता है. कुछ शौचालय तो टूटे हुए दरवाजे के कारण उपयोग में ही नहीं हैं. ऐसे में उन्हें पैड बदलने के लिए जगह नहीं मिल पाती है. हर महीने लड़कियों की चार-पांच दिन की पढ़ाई छूट ही जाती है. यह हाल सिर्फ एक-दो विद्यालयों की नहीं है, बल्कि प्रदेश के सैकडों विद्यालय ऐसे हैं, जहां शौचालय की जर्जर स्थिति के कारण बालिकाओं को परेशानियां झेलनी पड़ती हैं. भले ही बिहार के स्कूलों को ‘खुले में शौच से मुक्त’ होने की घोषणा कर दी गयी हो, लेकिन जमीनी सच्चाई यही है कि अब भी बहुत से स्कूलों में बच्चे बाहर ही शौच जाने को मजबूर होते हैं.

जिले के मड़वन प्रखंडन्तर्गत गोरियारा गांव स्थित एक सरकारी विद्यालय के शौचालय व साफ-सफाई की स्थिति का आकलन किया गया, तो तस्वीरें चौंकाने वाली मिली. यहां की एक 14 वर्षीय छात्रा संजना बताती हैं कि "हमारे स्कूल का शौचालय इतना गंदा और बदबूदार रहता है कि उसमें जाने मात्र से ही उल्टी आ जाती है. स्कूल के शौचालय की साफ-सफाई पर ध्यान नहीं दिया जाता है. इससे लड़कियों को बहुत परेशानी होती है. जब भी हमें जाना होता है, तो कुछ सहेलियों को साथ लेकर विद्यालय के पीछे वाली गाछी में जाना पड़ता है, वह भी केवल लंच के समय. इस वजह से कई बार मेरे पेट के निचले हिस्से में दर्द भी हो जाता है." इस सरकारी स्कूल की अन्य छात्राओं सुमन, सुनीता, अनिता, मेघा रानी आदि लड़कियों का भी कुछ ऐसा ही कहना है. आठवीं कक्षा की एक छात्रा ने बताया कि "शौचालय की स्थिति बहुत ही खराब है. जिससे हम छात्राओं को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ता है."

नाम नहीं बताने की शर्त पर स्कूल के शिक्षक स्वीकार करते हैं कि 'स्कूल का शौचालय बहुत गंदा रहता है.' हालांकि स्कूल प्रशासन अपने स्तर से स्वच्छता का ध्यान रखता है. वह शौचालय के गंदा होने के दो कारण बताते हैं. पहला, विद्यालय के बीच में सालों से एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो धार्मिक मान्यताओं से जुड़ा है. इसकी वजह से स्कूल के मुख्य द्वार पर ताला नहीं लगाया जाता है. जिसकी वजह से छुट्टी के बाद आसपास के लोग स्कूल के शौचालय को गंदा कर जाते हैं. दूसरा कारण यह है कि सरकार से साफ-सफाई के लिए अलग से कोई राशि नहीं आती और न ही विद्यालय में साफ-सफाई या अन्य कार्यों के लिए चपरासी की नियुक्ति की गयी है. वह कहते हैं कि सभी शिक्षक व बच्चे मिलकर स्कूल की साफ-सफाई करते हैं.

माहवारी में स्कूल छूटने का दर्द
माहवारी में स्कूल छूटने का दर्द

शिक्षक भले ही इस बात पर ज़ोर देते हों कि शिक्षक व बच्चे मिलकर स्कूल की साफ-सफाई करते हैं, लेकिन स्कूल की छात्राओं का आरोप था कि "स्कूल में हर बच्चे को अपने-अपने क्लास रूम की साफ-सफाई खुद ही करनी पड़ती है. ऐसा नहीं करने पर टीचर बच्चों को छड़ी से मारते हैं. क्लास के अलावा बच्चों से मैदान में भी झाड़ू लगवाया जाता है." बच्चों ने बताया कि स्कूल के रसोई घर का हाल भी कुछ ऐसा ही रहता है. इसके साथ साथ बच्चों के साथ जातिगत भेदभाव भी देखने मिलता है. यहां कुछ बच्चों के लिए अलग से थाली रखी जाती है और उन थाली को रसोइया ही धोती है. लेकिन बाकी बच्चों को अपनी थाली खुद ही धोनी पड़ती है. अगर ये बच्चे खुद थाली नहीं धोते हैं तो रसोइया उन्हें डांटती हैं और छोटे बच्चों पर तो हाथ भी उठा देती है. कुछ बच्चों ने यह भी बताया कि "हम ज्यादातर छात्र-छात्राएं स्कूल में खाना भी नहीं खाते हैं, क्योंकि यहां गंदगी इतनी रहती है कि खाना खाने का मन ही नहीं करता है."

विदित हो कि बिहार में कुल 72,663 सरकारी स्कूल हैं और अधिकतर स्कूलों की हालत ऐसी ही है. ऐसे वक़्त में जब कोरोना एक बार फिर से बढ़ रहा है, ऐसे में साफ-सफाई को लेकर खासकर बच्चों के स्वास्थ्य को लेकर अतिरिक्त सावधानी बरतने की आवश्यकता है. टीइटी-एसटीइटी उत्तीर्ण नियोजित शिक्षक संघ (गोप गुट) के मुजफ्फरपुर जिला महासचिव अमरेंद्र कुमार ने बताया कि इस वित्तीय वर्ष में सरकार की ओर से स्कूलों को आदेश आया है कि विकास फंड की राशि का 30 प्रतिशत राशि साफ-सफाई व शौचालय पर खर्च करें. पहले विकास फंड की राशि कम थी, जो इस साल से बढ़ा दी गयी है. अमरेंद्र कुमार का कहना है कि पहले तो स्कूलों में शौचालय ही नहीं थे, लेकिन अब बहुत सारे स्कूलों में शौचालय बन गये हैं. लेकिन स्कूल प्रबंधन की निष्क्रियता के कारण उसके रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया जाता है. मीना मंच व बाल संसद का गठन इन्हीं समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है, लेकिन अधिकतर स्कूलों में यह सब फाइलों की ही शोभा बढ़ा रहे हैं. जिस स्कूल के प्रधानाध्यापक व शिक्षक अपना कर्तव्य बखूबी निभाते हैं, उनका स्कूल मॉडल स्कूल बन जाता है.

जिले में ऐसे कई स्कूल देखे जा सकते हैं, जहां प्रिंसिपल और शिक्षकों की सक्रियता के कारण स्कूल की काया पलट हो गई है और ऐसे स्कूल साफ़ सफाई के मामले में किसी प्राइवेट स्कूल को टक्कर देते नज़र आते हैं. लेकिन इसी ज़िले के कई स्कूलों के प्रधानध्यापकों की निष्क्रियता के कारण स्कूल और उसका शौचालय इस्तेमाल के लायक नहीं होता है. इसका खामियाज़ा सबसे अधिक लड़कियों को उठाना पड़ता है. माहवारी के दिनों में वह स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाती हैं. जनवरी में पटना हाईकोर्ट ने बिहार के सरकारी स्कूलों में छात्राओं के लिए बने शौचालय की बदहाल स्थिति पर एक दैनिक अखबार में छपी रिपोर्ट के आधार पर स्वतः संज्ञान लेते हुए सभी जिले के जिला शिक्षा पदाधिकारी से एक सप्ताह के भीतर पूरी रिपोर्ट मांगी थी, जिसमें शौचालय से लेकर सेनेटरी नैपकिन की उपलब्धता के बारे में पूरी जानकारी देने को कहा गया था. इसके बाद पटना जिला के डीइओ ने एक हलफनामा दायर किया, जिसमें शहरी क्षेत्रों के सरकारी गर्ल्स स्कूल के शौचालय का पूरा ब्यौरा दिया गया था. इस हलफनामे के अनुसार, नौवीं से बारहवीं में पढ़ने वाली दो हजार छात्राओं के लिए सिर्फ दो शौचालय हैं. पटना शहर के 20 स्कूलों में नौवीं से बारहवीं कक्षा में पढ़ने वाली 12,491 छात्राओं के लिए सिर्फ 128 शौचालय ही सही हालत में रहने की जानकारी दी गयी.

जब राजधानी पटना की यह स्थिति है, तब ऐसे में राज्य के अन्य जिला मुख्यालयों विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों के सरकारी स्कूलों के बारे में सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि वहां के शौचालयों की स्थिति क्या होगी? एक शिक्षक ने नाम नहीं छापने की शर्त पर कहा कि 'सरकारी स्तर पर जितने ही प्रयास किये जा रहे हों, यदि विद्यालय के प्रधान शिक्षक व सहायक शिक्षक गंभीरतापूर्वक अपने कर्तव्यों का निर्वहन नहीं करेंगे करेंगे, तब तक ऐसी भयावह रिपोर्टों के आने का सिलसिला जारी रहेगा और माहवारी के समय छात्राओं को मजबूरी में स्कूल छोड़ने का दर्द सताता रहेगा.' (चरखा फीचर)

यह भी पढ़ें

Follow Ground Report for Climate Change and Under-Reported issues in India. Connect with us on FacebookTwitterKoo AppInstagramWhatsapp and YouTube. Write us at [email protected]