MSP यानी की न्यूनतम समर्थन मूल्य। MSP से तात्पर्य उस न्यूनतम मूल्य से है जिसमे सरकार किसानों से अनाज खरीदती है, यानी अगर बाज़ार में फसलों की कीमत गिर भी जाए तो भी सरकार निर्धारित मूल्य पर खरीद करेगी ताकि किसानों को नुकसान न हो। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो की किसानों के लिए एक प्रकार की सुरक्षा प्रदान करती है। आइये समझते हैं की कैसे निर्धारित होता है MSP और क्यों यह बना हुआ है किसानों और सरकार के बीच तकरार की वजह ?
कैसे निर्धारित होता है MSP
CACP (कृषि लागत और मूल्य आयोग) कई कारकों को ध्यान में रख कर सरकार को अपनी सिफारिशें पेश करता है। इसके बाद केंद्र सरकार की आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति CCEA, CACP की सिफारिशों का गहन अध्ययन करती है और फसल की बुआई से पहले ही MSP की घोषणा करती है। सरकार कुल 22 फसलों के लिए MSP देती है जिनमे से 7 अनाज, 5 दलहन, 7 तिलहन, 4 वाणिज्यिक फसलें हैं। गन्ने की फसल के लिए सरकार FRP (उचित लाभकारी मूल्य) की घोषणा करती है जिसका भुगतान शुगर मिलें करती हैं।
क्या ध्यान में रख कर तय किया जाता है MSP
आयोग MSP का निर्धारण करते समय कई पहलुओं पर विचार करता है, मसलन डिमांड और सप्लाई चैन की स्थिति, घरेलू और वैश्विक बाजार के ट्रेंड्स, महंगाई, इत्यादि। इन सब के अलावा आयोग फसल के उत्पादन की लागत को विशेष तौर पर ध्यान में रखता है। आयोग तीन प्रकार की उत्पादन लागतों को ध्यान में रखता है, आइये बारी बरी से इन्हे समझते है।
A2: इसके तहत फसल में हुए नगदी खर्च को लिया जाता है जैसे की बीज, खाद, सिंचाई इत्यादि।
A2+FL(Family Labor): इसके अंतर्गत नकदी खर्चों में घरेलु व पारिवारिक श्रम का एक अनुमानित मूल्य जोड़ा जाता है।
C2: इसके अंतर्गत A2+FL में किसान की भूमि, किराया और ब्याज आदि की लागतों को भी जोड़ा जाता है।
MSP की सिफारिश करते समय A2+FL और C2 दोनों पर विचार किया जाता है, लेकिन MSP का निर्धारण सिर्फ A2+FL के आधार पर किया जाता है और C2 का उपयोग एक तरह से बेंचमार्क के रूप में किया जाता है।
MSP सिर्फ एक सरकारी नीति है न की एक कानून। अर्थात सरकार जब चाहे तब यह नीति बदल सकती है, और इसके लिए किसान अदालतों की मदद भी नहीं ले सकते है। कानूनी स्टेटस न होने के कारण यह नीति जमीन पर असरदार तरीके से लागू नहीं हो पा रही है। अगर 2014 की शांताकुमारन कमेटी के आंकड़ों की मानें तो देश भर में सिर्फ 6 प्रतिशत किसान ही MSP का लाभ उठा पा रहे हैं।
चूंकि कृषि राज्य सूची का विषय है इसलिए MSP को लेकर देशभर में एकरूपता नहीं है। बिहार में किसानों के लिए MSP की व्यवस्था नहीं है, बल्कि वहां PACS (Primary Agricultural Cooperative Societies) किसानों से खरीद करती है, लेकिन बिहार के किसानों की शिकायत है की PACS सीमित और अनियमित खरीद करती है जिससे मजबूर होकर उन्हें कम कीमत में निजी व्यापारियों को फसल बेंचनी पड़ती है। अगर एक केंद्र सरकार का बाध्यकारी कानून होगा तो व्यवस्था और बेहतर होगी।
इसके अलावा कई समितियों का सुझाव है की सरकार गेहूं और धान की फसल की कम खरीद करे और सरकार इस दिशा में काम भी कर रही है। कमोबेश यही बातें हैं जो किसानों को डरा रही हैं, और वो इस पर कानून बनवा कर निश्चिंतता चाहते है।
क्यों कतरा रही है मोदी सरकार
सरकार के MSP को कानूनी रूप देने से बचने के पीछे अपने कारण हैं और वो कुछ हद तक जायज भी हैं। MSP अगर पहले से निश्चित तौर पर घोषित कर दिया गया तो किसान वही फसल उगाएंगे जिसकी MSP अधिक है। इससे सप्लाई चेन प्रभावित होगी और आर्थिक समस्याएं आएंगी।
अगर MSP को कानूनी दर्जा मिला और इसमें अन्य फसलों को शामिल किया गया तो सरकार को ये फसलें खरीदनी पड़ेंगी और सरकार पर आर्थिक दबाव पड़ेगा। किसी निजी कंपनी को MSP पर उत्पाद खरीदने के लिए राजी करना भी कठिन होगा।
इसके अलावा MSP फेयर एवरेज क्वालिटी के अनाजों पर दिया जाता है। कानूनी दर्जा मिलने पर असमंजस की स्थिति बनेगी, पहले तो फसल की गुणवत्ता निर्धारित करनी मुश्किल होगी, इसके बाद खराब गुणवत्ता वाले अनाज का क्या किया जायेगा ये भी एक बड़ा सवाल है। साथ ही सरकार के पास भण्डारण की सीमित अवसंरचना का होना भी एक समस्या है जिसके चलते सदरकार कानूनी गारंटी देने से बच रही है।
अंत में ऐसा करने पर सरकार को सबसे अधिक दबाव WTO जैसी संस्थाओं झेलना पड़ेगा। अपनी सब्सिडयों को लेकर WTO में अमरीका द्वारा किरकिरी होती रही है। MSP को कानून का दर्जा देने पर पर भारत अंतर्राष्ट्रीय फोरमों में और भी घिर सकता है।
क्या हो आगे की राह
मध्यप्रदेश की पुरानी भावांतर जैसी योजनाएं एक बेहतर विकल्प हो सकती हैं , जिनमे MSP और बाजार मूल्य में फर्क होने उस अंतर का भी भुगतान किया जाता था। इसके अलावा सरकार अपनी एजेंसियों जैसे की FCI और CCI(cotton corporation of India) के माध्यम से किसानों की सीधी खरीद उचित मूल्य पर सुनिश्चित कर सकती है। वहीं अगर दूर की सोचें तो केरल की तर्ज पर सहकारी कृषि को बढ़ावा देकर और इसमें मनरेगा मजदूरों को जोड़ कर सरकार एक साथ खेती व बेरोजगारी की समस्या को हल किया जा सकता है।