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ग्रामीण भारत की सशक्त किशोरियां

ग्रामीण भारत: सवाल करने वाली समूह की इन सभी लड़कियों की उम्र 11 से 20 साल के बीच थी. इनमें से अधिकांश पिछड़े आर्थिक पृष्ठभूमि से थी.

By Charkha Feature
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Empowered Adolescent Girls of Rural India

चेतना वर्मा | सीईओ, चरखा | उत्तर प्रदेश के अयोध्या जिले के एक दूरदराज के गांव में एक कमरे में बैठी किशोरियों के एक समूह ने मुझसे पूछा, "अपने बारे में हमें बताइए." मैंने उनसे पूछा "आप क्या जानना चाहती हैं?" मैं उनसे अपनी उम्र या वैवाहिक जीवन के बारे में प्रश्न की उम्मीद कर रही थी जो अक्सर मुझसे पूछे जाते हैं. लेकिन मुझे सुखद आश्चर्य हुआ क्योंकि 10 साल से अधिक के अपने अनुभव में पहली बार मुझसे फील्ड में आने वाली चुनौतियों के बारे में पूछा गया, जैसे कि 'जब मैं उनकी उम्र की थी, तो लड़की होने के कारण मेरे सामने क्या क्या चुनौतियां आती थीं और मैं उसका सामना कैसे करती थी?' यही कारण था कि मुझे उनका जवाब देने में कुछ समय लगा.

सवाल करने वाली समूह की इन सभी लड़कियों की उम्र 11 से 20 साल के बीच थी. इनमें से अधिकांश पिछड़े आर्थिक पृष्ठभूमि, अन्य पिछड़ा वर्ग और अनुसूचित जाति से थी. जो हमारे देश के सबसे अधिक आबादी वाले राज्य के सुदूर पिछड़े क्षेत्रों में बैठी थीं. इसके बावजूद वे अपने अधिकारों को अच्छी तरह से जानती हैं. ये लड़कियां स्कूल और कॉलेजों में पढ़ती हैं. कुछ क्रिकेट सहित विभिन्न खेलों की कोचिंग भी कर रही हैं. कुछ प्रशिक्षित ड्राइवर हैं. वह अपने अधिकारों के लिए ग्राम प्रधानों के साथ लड़ती हैं और अपने गांव में लड़कियों के साथ भेदभाव के खिलाफ आवाज भी उठाती हैं. वह समझती है कि कैसे लड़कियों और महिलाओं को विभिन्न प्रकार की हिंसा का शिकार होना पड़ता है. वे अपने यौन और प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में जागरूक हैं और एक साथ 'मासिक धर्म' से संबंधित गीत गाती हैं. इस दौरान इनके चेहरे पर सशक्तिकरण का आत्मविश्वास भी देखा जा सकता है.

Empowered Adolescent Girls of Rural India

वे निडर और शक्तिशाली हैं, लेकिन कैसे? एक ऐसे देश में जहां किशोरियों को उनकी उम्र और लिंग के आधार पर भेदभाव के कई स्तरों का सामना करना पड़ता है और जाति, वर्ग तथा धर्म जैसी अलग-अलग पहचानों के कारण उन्हें कमज़ोर साबित करने का प्रयास किया जाता है. ग्रामीण क्षेत्रों में घर से लेकर बाहर तक, यहां तक कि अपने परिवार के अंदर भी उन्हें भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ता है. वह ऐसे समाज में जीती हैं जहां स्वास्थ्य, शिक्षा, महत्वाकांक्षाएं और लड़कों की तुलना में उनका जीवन कोई मायने नहीं रखता है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, सर्वेक्षण में शामिल लगभग 80 प्रतिशत माता-पिता ने कहा कि वह कम से कम एक बेटा चाहते हैं. इन ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों को पढ़ने की अनुमति नहीं है और उन्हें स्कूल जाने के बजाय घर के काम करने के लिए मजबूर किया जाता है. राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की 2018 की रिपोर्ट के अनुसार, पूरे भारत में 15 से 18 वर्ष की आयु में 39.4 प्रतिशत लड़कियां शिक्षा छोड़ देती हैं. उनमें से 64.8 प्रतिशत केवल इसलिए क्योंकि उन्हें घरेलू काम करने या भीख मांगने के लिए मजबूर किया जाता है.

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2022 के अनुसार, लड़कियों के स्कूल छोड़ने का मुख्य कारण जल्दी शादी और घर का काम है. 2019-20 शैक्षणिक वर्ष की शुरुआत से पहले लगभग 21,800 लड़कियों ने स्कूल छोड़ दिया था. इनमें से 13 प्रतिशत से अधिक लड़कियों को घर का काम करने के लिए मजबूर किया गया था, जबकि लगभग 7 प्रतिशत ने ऐसा तब किया जब उनकी शादी हो गई. उपर्युक्त आंकड़ों में 17,786 ग्रामीण क्षेत्रों से और 4,065 शहरी क्षेत्रों से थीं. इसी जिले के कटौना ब्लॉक स्थित तरुण गांव की एक किशोरी प्रिया (बदला हुआ नाम) कहती है, “कम आय के कारण मेरे परिवार ने हमेशा मेरे भाई को प्राथमिकता दी, मुझे अपनी शिक्षा पूरी करने के लिए भी उनसे लगातार संघर्ष करना पड़ा और किसी तरह अपनी 12 वीं कक्षा पूरी करने में सफल रही, ऐसा सिर्फ इसलिए, क्योंकि उन्हें मेरी या मेरी बहन की शिक्षा में खर्च करने का कोई फायदा नहीं दिख रहा था. आज वह एक निजी स्कूल में पढ़ाती है और अपनी शिक्षा को आगे बढ़ाने के लिए पैसे कमाती है. इससे वह न केवल अपने सपनों को पूरा करने का प्रयास करती है बल्कि अपने परिवार की भी मदद करती है, जबकि उसका भाई अभी भी नौकरी ढूंढ रहा है. मेरे मन में बार बार यह सवाल उठ रहा था कि आखिर किस बात ने उसे अपने माता-पिता से सवाल करने और अपनी शिक्षा के लिए लड़ने की हिम्मत दी? उसे क्यों नहीं लगा कि लड़कियों का काम सिर्फ घर का काम सीखना, शादी करना, बच्चे और परिवार की देखभाल करने तक सीमित है? इस समूह की सभी लड़कियां यह भी सुनिश्चित करती हैं कि उनके गांव और उसके आसपास कोई भी लड़की उनके परिवारों द्वारा स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर न हो. इसके लिए वह हस्तक्षेप करती हैं और माता-पिता को अपनी लड़कियों को शिक्षित करने के महत्व को समझाती हैं.

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इसी प्रखंड के धमार गांव की सपना कहती हैं, ''ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से माता-पिता चाहते हैं कि उनकी बेटियां स्कूल छोड़ दें.'' बाल विवाह हमारे सामने आने वाले सबसे कठिन मामलों में से है. हम हस्तक्षेप और रणनीति बनाने के लिए एक साथ आती हैं. सबसे पहले हम उस लड़की से बात कर उसकी हिम्मत बढ़ाते हैं क्योंकि कभी-कभी लड़कियां अपने माता-पिता के खिलाफ नहीं जाना चाहती हैं. इसके बाद उसकी मां से बात करते हैं और जब वह विफल हो जाता है तो हम अपने माता-पिता से उनसे बात करने और उन्हें समझाने का प्रयास करते हैं. यदि योजना के अनुसार कुछ नहीं होता है, तो हम चाइल्ड हेल्पलाइन नंबर डायल करते हैं और शिकायत दर्ज करते हैं.

वास्तव में, इन लड़कियों ने न केवल अपने मूल अधिकारों के लिए बल्कि अपने जुनून के लिए भी खड़ा होना सीख लिया है. अब वह ऐसे क्षेत्रों में अपनी कामयाबी का झंडा फहराने की तैयारी कर रही हैं जो विशेष रूप से लड़कों के लिए माना जाता है. उदाहरण के लिए, खेल एक ऐसा क्षेत्र है जिसमें लड़कियों को आगे बढ़ने से हमेशा हतोत्साहित किया जाता है. उसी गांव की एक लड़की नीना कहती है कि 'जब मैंने एक बार अपने माता-पिता से कहा कि मैं क्रिकेट खेलना चाहती हूँ, तो उन्होंने यह कह कर मना कर दिया कि अब तुम लड़कों वाला खेल खेलोगी?' उसने बताया कि 'मेरी बहन ने उन्हें समझाया जिसके बाद कई शर्तों के साथ, जैसे लड़कों के साथ नहीं खेलना है, अभ्यास के दौरान केवल सलवार सूट पहनना है और दो घंटे से अधिक समय तक घर से बाहर नहीं रहना है, के साथ मुझे क्रिकेट खेलने की अनुमति दी गई. आज भी उनके पास वैसी सुविधा नहीं है जहां वह लड़कों के हस्तक्षेप के बिना अभ्यास कर सकें. अपनी चुनौतियों को याद करते हुए इन लड़कियों ने कहा, "सच कहूं तो शुरू में हम डरे हुए थे, लेकिन हम जानते थे कि यह हमारे लंबे संघर्ष की शुरुआत थी और अगर हम पीछे हट गए होते तो हम यहां तक नहीं पहुंच पाते."

भारत में जहां केवल 29 फीसदी महिलाएं ही खेलों में शामिल हैं, ये किशोरियां उन गांवों में खेलने के लिए लड़ रही हैं जहां उचित बुनियादी ढांचा तक नहीं है. शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, सड़क संपर्क, परिवहन आदि, यहां एक बहुत बड़ा मुद्दा है. आज 120 लड़कियां ब्लॉक के विभिन्न गांवों से सुबह और शाम में स्पोर्ट्स जर्सी पहनकर उत्साह के साथ खेलों का अभ्यास करती हैं. वे राष्ट्रीय टीमों में जगह बनाने के लिए जिला और राज्य स्तरीय क्रिकेट, एथलेटिक्स और कबड्डी प्रतियोगिताओं में भाग लेती हैं. समूह की लड़कियों में से एक ने कहा, "आज कोई हमसे पूछता है कि क्रिकेट खेलकर हम क्या भला करेंगे?" तो हम उन्हें मिताली राज की तस्वीर दिखाते हैं।" "तो लोग क्या कहते हैं?" मैंने पूछा. "कुछ नहीं, बहुत से लोग अभी भी हम पर हंसते हैं, जबकि कुछ हमारा उत्साहवर्धन करते हैं और कहते हैं कि एक दिन अपने देश के लिए विश्व कप जीतना. उन्होंने कहा कि हालांकि वह एक लंबा सफर तय कर चुकी हैं, लेकिन अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है.

यह लड़कियां अब रूढ़िवादी सोच और परंपरा को तोड़ रही हैं. यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे आर्थिक रूप से स्वतंत्र हैं, ये लड़कियां पेशेवर ड्राइविंग सीख रही हैं. सड़क परिवहन वर्ष 2015-16 के अनुसार, केवल 11 प्रतिशत महिलाएं मोटर चालक हैं. लेकिन अब वे औद्योगिक प्रशिक्षण में वेल्डर और डीजल यांत्रिकी में व्यावसायिक प्रशिक्षण पाठ्यक्रमों में नामांकन करा रही हैं. हालांकि साल 2014 से 2019 के बीच केवल 17 प्रतिशत महिलाओं ने आईआईटी में दाखिला लिया, जिनमें से केवल 4.3 प्रतिशत इंजीनियरिंग ट्रेडों में थीं, जबकि गैर आईआईटी में 54.7 प्रतिशत थीं. दशकों से युवा लड़कियों को मेकअप आर्टिस्ट, परिधान और स्वास्थ्य देखभाल जैसे पारंपरिक क्षेत्रों तक सीमित रखा गया. उन्हें हाई-टेक या अत्यधिक मशीनीकृत क्षेत्रों से लगभग पूरी तरह से बाहर रखा गया था. आज ये लड़कियां अपने छोटे लेकिन मजबूत इरादों से उन्हीं क्षेत्रों में अपनी जगह बना रही हैं. 2019 में, इस ब्लॉक की 40 लड़कियों ने सफलतापूर्वक वेल्डर कोर्स पूरा किया है, जबकि 60 ने डीजल मैकेनिक के रूप में स्नातक किया है. इनमें से कई लड़कियां गांव छोड़कर दूसरे राज्यों में चली गई हैं. "क्या शादी के बाद भी वह अपना काम जारी रख पाती हैं?" मेरे इस सवाल पर उन्होंने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया कि ''अब लड़कियां एक ही शर्त पर शादी के लिए हां कह रही हैं कि वह अपना काम जारी रखेंगी.''

इस लेख में क्यों, कैसे और क्या का उत्तर यह है कि प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं के एक समूह ने इन किशोरियों के साथ काम करने में इतनी दृढ़ता से विश्वास किया कि आज इन लड़कियों ने अपनी वास्तविकता बदल दी है. इसके लिए उन्होंने इन्हें संगठित किया, उन्हें वर्तमान परिस्थितियों और चुनौतियों के लिए तैयार किया और उन्हें उन पूर्वाग्रहों के खिलाफ लड़ने के लिए शिक्षित किया जो उनकी पिछली पीढ़ियों ने झेले थे. इनके साथ छह साल की उनकी लंबी यात्रा न केवल प्रेरक है, बल्कि इस तथ्य का एक जीता जागता सबूत है कि इस पुरुष-प्रधान समाज में वह सभी आंकड़े जिसमें किशोरियां और महिलाएं पीछे छूट गई हैं, इसके लिए समर्पण, योजना और दीर्घकालिक हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है, जो नारीवादी सिद्धांतों और अधिकार आधारित दृष्टिकोणों का पालन करते हैं. एक बात निश्चित है कि ग्रामीण भारत की किशोरियों को सशक्त बनाने के लिए सामाजिक विकास से कहीं अधिक संगठित, सामूहिक और हम सबके निरंतर प्रयास की आवश्यकता है. (चरखा फीचर)

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